शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

प्रजा के मिजाज के सामने सरकार लाचार

डॉ. महेश परिमल
वास्तव में देखा जाए, तो 2013 का प्रारंभ यूपीए सरकार के लिए फ्लॉप शो साबित हुआ। दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार का मामला सरकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। एक तरफ बिना किसी नेतृत्व के जमा हुए आक्रोशित युवा थे, दूसरी तरफ बंधे हाथों में सरकार थी। सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थी। सरकार भले ही विरोधियों के खिलाफ खुलकर सामने न पाई हो, फिर भी उसने कड़े निर्णय लेने के लिए कदम उठाया है। सरकार ने मेट्रो स्टेशन बंद करने और मीडिया को समझाने के प्रयास में सफलता पाई। प्रदर्शनकारियों को अधिक हाइलाइट न करने के लिए सरकार के मौखिक निर्देश को मीडिया ने मान भी लिया्र।
आज सरकार की हालत बहुत ही खराब है। चारों तरफ उसकी निंदा हो रही है। पिछले 15 दिनों से खासकर पिछले चार-पांच दिनों से दिल्ली में हो रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शन से सरकार पसोपेश में है। युवाओं का गुस्सा आसमान पर है। सरकार युवाओं की बात तो मान रही थी, उनके प्रदर्शन को भी सही बता रही थी, फिर भी कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रही है। इस दौरान सरकार ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया, जिससे प्रदर्शनकारी युवाओं को किसी तरह का संतोष हो। सरकार तो संसद का विशेष सत्र बुलाने के लिए भी राजी नहीं हो पाई है। एक तरफ तो यही सरकार फांसी न देने वाले देशों का समर्थन कर रही है। दूसरी तरफ कसाब को फांसी देने में जल्दबाजी करती है। और जब बलात्कारियों को फांसी देने के लिए कहा जाता है, तो उससे बचने की कोशिश करती है। सरकार दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को भी बदलने के लिए तैयार नहीं है। सरकार इतनी अधिक भयभीत है कि वह दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी थोड़ी सी झिड़की भी नहीं दे पा रही है। पुलिस कमिश्नर संदीप दीक्षित की बदली का संकेत देकर भी वह ऐसा नहीं कर पाई। यह सरकार की विवशता है।
दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शनकारी बलात्कारियों के खिलाफ कड़े कानून बनाने की मांग कर रहे हैं, पर सरकार इतनी भयभीत कि न तो प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई कर पा रही है और न ही कोई ऐसा निर्णय ले पा रही है, जिससे प्रदर्शनकारी संतुष्ट हो पाएं। यह सरकार का दुर्भाग्य है कि उसने जो भी काम किए, वह प्रजा की दृष्टि में पारदर्शक नहीं रहे। सरकार में इतनी हिम्मत भी नहीं है कि अपने द्वारा किए गए कार्यो को सही भी बता पाए। उसका कोई भी खुलासा जनता को रास नहीं आ रहा है। सरकार तो कसाब की फांसी में की गई जल्दबाजी में उठे सवालों का जवाब भी देने को तैयार नहीं है। केवल गुजरात चुनाव के मद्देनजर उसने वोट बटोरने के लिए यह किया, यह वह बताना नहीं चाहती, पर जनता अच्छी तरह से समझती है। इसलिए गुजरात चुनाव में उसने किस तरह से मुंह की खाई है, वह सभी जानते हैं। लोग तो यह भी कह रहे हैं कि कसाब की मौत तो डेंग्यू से ही हो गई थी, फांसी तो उसके मृत शरीर को दी गई है। सरकार पसोपेश में तो थी ही, पर सभी चाहते थे कि कसाब को फांसी पर लटकाया जाए, इसलिए यह मामला ठंडा पड़ गया। विवाद अधिक लम्बा नहीं चल पाया।
इसी तरह गेंगरेप की शिकार युवती की हालत तो दिल्ली में ही खराब हो गई थी, उसके शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था, उसके बाद भी उसे सिंगापुर ले जाया गया। सरकार यह अच्छे से जानती थी कि यदि पीड़ता की मौत भारत में होती है, तो प्रदर्शनकारियों को संभालना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए उसे देर रात सिंगापुर ले जाया गया। सिंगापुर से भी पीड़िता के स्वास्थ्य के बारे में कई जानकारियां मिलती रहीं, पर उसका भी अधिक खुलासा नहीं किया गया। उसकी मौत की खबर तब सामने आई, जब लोग अहमदाबाद में हुए पाकिस्तान के खिलाफ टी-20 में भारत की जीत की खुशी में लोग झूम रहे थे। सरकार की चालाकी काम आ गई। सरकार को यह विश्वास था कि प्रदर्शनकारी अब तक ठंडे पड़ चुके होंगे, इसलिए पीड़िता की मौत की घोषणा देर रात की गई। मौत की खबर सुनते ही इंडिया गेट और जंतर-मंतर लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा। रविवार को दस मेट्रो स्टेशन बद होने के बाद भी लोग उमड़ पड़े। ये सभी अपनी भीगी आंखों से दामिनी या फिर निर्भया को अपनी भावभीनी श्रद्धाजंलि देने के लिए आए थे।
पिछले 15 दिनों में देश भर में बलात्कार की कई घटनाएं सामने आई। लेकिन सभी दिल्ली के गेंगरेप के मामले में फीके साबित हुए। देश में जब भी महिला सशक्तिकरण की बात भाषणों और आलेखों के माध्यम से आती है, तब लोगों का भरोसा सरकार से उठने लगता है। देश भर में एक तरह से हिस्टीरिया जैसी स्थिति थी। जंतर-मंतर पर प्रदर्शनकारी शांत थे। पर इंडिया गेट पर थोड़े उग्र। पीड़िता की पीड़ा से लोग देश में ही नहीं, बल्कि सात समुंदर पार विदेशों में भी भारतीय लोग आहत थे। मलाला ने अपना बयान देकर सरकार को मुश्किल में डाल दिया। वह कहती रहीं कि बलात्कारियों ने पीड़िता को सड़क पर फेंका और सरकार ने उसे सिंगापुर में फेंका, दोनों में क्या फर्क रहा? भयभीत सरकार आखिर तक भयभीत ही बनी रही। वह न तो प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई कर पा रही थी और न ही कोई ऐसी घोषणा कर पा रही थी, जिससे लोगों का गुस्सा थोड़ा शांत हो। देश की राजनीति ही उलझन में थी। राजनेता संज्ञाशून्य। वे क्या कहते। हालात ऐसे हैं कि वे जो भी कहते, उसका अर्थ उल्टा ही निकल सकता था। भारत को हमेशा उदारवादी ही माना गया है। पर जनता ने सड़क पर आकर यह बता दिया कि अब उदारवादी बनने का समय नहीं है। कानून का ही सहारा लेकर लोग बलात्कार करके बच निकलते हैं। वे न्याय प्रक्रिया की धीमी गति से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। सरकार की ढिलाई भी इस काम में अनजाने में ही मदद भी करती है। जो सरकार स्वयं महिला आरक्षण विधेयक को बरसों तक लटकाए रख सकती है, उससे यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह महिलाओं के लिए कुछ ऐसा करेगी, जो महिलाओं के लिए हितकारी हो। इस बार जनता इतनी अधिक नाराज है कि वह बलात्कारियों को सरे आम फांसी देने की मांग कर रही है। पर क्या इस ढीली सरकार से यह अपेक्षा की जा सकी है? जनता से भयभीत होने वाली सरकार कभी सफल नहीं हो सकती, यह सच है। सरकार अपनी करतूतों के कारण भयभीत है। वह जनता के सवालों का जवाब देना नहीं चाहती। जंतर-मंतर के प्रदर्शनकारियों के खिलाफ इसलिए कुछ नहीं कर सकती कि वे कतई गलत नहीं हैं। इसलिए सरकार ने प्रदर्शनकारियों के गुस्से को जायज ठहराया।
इतना बड़ा कांड हो गया, पर सरकार अभी तक उलझन से बाहर नहीं आ पाई है। हां यह बात ठीक हुई कि इस बार नए वर्ष को उल्लास और खुशी के साथ आने देने में आगे रही। लोग उतने उत्साह से नए साल का स्वागत नहीं कर पाए। पर इसके पीछे जनता की भावना ही थी। कई लोगों ने स्वयं ही यह फैसला ले लिया कि वे नए वर्ष पर खुशी नहीं मनाएंगे। बॉलीवुड भी पूरी तरह से शांत रहा। यह सरकार के लिए सोचने का समय है कि वह कुछ ऐसा करे, जिससे लोग सरकार की प्रशंसा करे, सरकार के कार्यों को सराहें। यदि पहला कदम वह यही उठाए कि जो भी बलात्कार के आरोपी सांसद हैं, उन्हें बर्खास्त करे, यह पहला कदम ही उसे जनता के करीब ला सकता है। पर अल्पमत वाली सरकार से भला ऐसी उम्मीद कैसे की जा सकती है? भयभीत सरकार, डरी-सहमी सरकार, अपनों से ही घिरी और अपनों में ही उलझी सरकार से किसी अच्छे की उम्मीद करना ही बेकार है।
  डॉ. महेश परिमल

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