शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

जेपीसी पर सरकार फिर मुश्किल में

आज हरिभूमि में प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

पीके घर आज प्यारी दुल्हनिया चली

डॉ.महेश परिमल
बिदाई के समय बेटियों को धार धार रुलाने वाली यह पुरकशिश आवाज की मलिका अब हमारे बीच नहीं है। पर उनकी आवाज का जादू आज भी हमारे सर चढ़कर बोलता है। गीत कोई भी हो, यदि उसे शमशाद जी गा रही हैं, तो तय है यह कंटीली आवाज आपको चुभेगी नहीं। भीतर तक उतर जाएगी। ऐसी आवाज जो रोशनी की तरह बिखरकर पूरे जिस्म में उतर जाती है। लगता है किसी विरही ने अपने प्रियतम के लिए ऐसी तान छेड़ दी है, जो सीधे दिल पर उतर रही है। विरह वेदना से झुलसती नायिका की पीड़ा को यदि किसी ने अपने आवाज दी है, तो वह है केवल शमशाद बेगम। उनकी आवाज का खुरदरापन कभी एक ऐसी टीस पैदा करता है, जिसे समझकर कोई भी तड़प सकता है। इसी तड़प को शमशाद बेगम ने अपनी आवाज में पूरी शिद्दत के साथ पेश किया। न भूलने वाली आवाज, मानों सदियों से गूंज रही थी, अब खामोश हो गई। सचमुच उनका जाना कई आवाजों को खामोश कर जाना है।
कजरा मोहब्बत वाला, अखियों में ऐसा डाला, मेरी नींदों में तुम, मेरे ख्वाबों में तुम, तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर, हम भी देखेंगे और लेके पहला-पहला प्यार जैसे सदाबहार गीतों की फिल्में और संगीतकार भले ही अलग हैं, लेकिन इनमें एक बात समान है कि इन सभी गीतों को शमशाद बेगम ने अपनी खनकदार आवाज बख्शी है।
अपनी पुरकशिश आवाज से हिंदी फिल्म संगीत की सुनहरी हस्ताक्षर शमशाद बेगम के गानों में अल्हड़ झरने की लापरवाह रवानी, जीवन की सच्चाई जैसा खुरदरापन और बहुत दिन पहले चुभे किसी काँटे की रह रहकर उठने वाली टीस का सा एहसास समझ में आता है। उनकी आवाज की यह अदाएँ सुनने वालों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करती है और उनके गानों की लोकप्रियता का आलम यह है कि आज भी उन पर रीमिक्स बन रहे हैं।
करीब चार दशकों तक हिन्दी फिल्मों में एक से बढ़कर एक लोकप्रिय गीतों को स्वर देने वाली शमशाद बेगम बहुमुखी प्रतिभा की गायिका रहीं। साफ उच्चारण, सुरों पर पकड़ और अनगढ़ हीरे सी चारों तरफ रोशनी की तरह बिखर जाने वाली शमशाद की आवाज जैसे सुनने वाले को बाँध ही लेती थी। उन्होंने फिल्मी गीतों के अलावा भक्ति गीत, गजल आदि भी गाए। गायकों और संगीतकारों पर प्राय: यह आरोप लगाया जाता है कि वे संगीत के चक्कर में शब्दों को पीछे धकेल देते हैं या उच्चारण के मामले में समझौता करते हैं। लेकिन शमशाद बेगम के गानों में यह तोहमत कभी नहीं लगाई जा सकी। उस दौर के बेहद मशहूर संगीतकार ओपी नैयर  ने तो एक बार यहाँ तक कहा था कि शमशाद बेगम की आवाज मंदिर की घंटी की तरह स्पष्ट और मधुर है।
सीआईडी फिल्म में लोकधुनों पर आधारित गीत ‘‘ बूझ मेरा क्या नाम रे ’’ गाने वाली शमशाद ने संगीतकार सी रामचन्द्रन के लिए ‘‘ आना मेरी जान. संडे के संडे ’’ जैसा पश्चिमी धुनों पर आधारित गाना भी गाया, जो उनकी आवाज की विविधता की बानगी पेश करते हैं। इस गाने को हिन्दी फिल्मों में पश्चिमी धुनों पर बने शुरुआती गानों में शुमार किया जाता है। समीक्षकों के अनुसार शमशाद बेगम की आवाज में एक अलग ही वजन था, जो कई मायने में पुरुष गायकों तक पर भारी पड़ता थी। मिसाल के तौर पर रेशमी आवाज के धनी तलत महमूद के साथ गाए गए युगल गीतों पर स्पष्ट तौर पर शमशाद बेगम की आवाज अधिक वजनदार साबित होती है।
अमृतसर में 14 अप्रैल 1919 में जन्मी शमशाद बेगम उस दौर के सुपर स्टार गायक कुंदनलाल सहगल की जबरदस्त फैन थी। एक साक्षात्कार में शमशाद बेगम ने बताया कि उन्होंने के एल सहगल अभिनीत देवदास फिल्म 14 बार देखी थी। उन्होंने सारंगी के उस्ताद हुसैन बख्शवाले साहेब से संगीत की तालीम ली। शमशाद बेगम ने अपने गायन उनकी सुरीली आवाज ने उस्ताद बख्शवाले साहब का ध्यान खींचा और उन्होंने शमशाद बेगम को अपनी शागिर्दी में ले लिया। लाहौर में रहने वाले संगीतकार गुलाम हैदर को उनकी विशिष्ट आवाज भा गई और उन्होंने उनकी आवाज का इस्तेमाल %खजांची% (1941) और %खानदान% (1942) जैसी फिल्मों में किया। गुलाम हैदर 1944 में मुंबई आ गए और शमशाद बेगम भी उनके दल में शामिल होकर मायानगरी पहुँच गई। महबूब खान उस समय हुमाँयू (1944) नामक फिल्म बना रहे थे। इसमें संगीतकार के तौर पर गुलाम हैदर को रखा गया। हैदर ने शमशाद बेगम की आवाज का बखूबी इस्तेमाल किया। उस जमाने में अमीरबाई कर्नाटकी शीर्ष पार्श्व गायिका हुआ करती थीं। शमशाद बेगम के रूप में बॉलीवुड में नई आवाज आने के बाद संगीतकारों में शमशाद बेगम की आवाज का इस्तेमाल करने की होड़-सी मच गई। ओपी नैयर, नौशाद, एसडी बर्मन जैसे संगीतकारों ने अपने करियर की शुरूआत में उनकी आवाज का जबर्दस्त इस्तेमाल किया और एक से बढ़कर एक सदाबहार गाने दिए।की शुरुआत रेडियो से की। 1937 में उन्होंने लाहौर रेडियो पर पहला गीत पेश किया। उस दौर में उन्होंने पेशावर, लाहौर और दिल्ली रेडियो स्टेशन पर गाने गाए। शुरुआती दौर में लाहौर में निर्मित फिल्मों खजांची और खानदान में गाने गाए। वह अंतत: 1944 में बंबई आ गईं। मुंबई में शमशाद ने नौशाद अली, राम गांगुली, एसडी बर्मन, सी रामचन्द्रन, खेमचंद प्रकाश और ओपी नैयर  जैसे तमाम संगीतकारों के लिए गाने गाए। इनमें भी नौशाद और नैयर  के साथ उनका तालमेल कुछ खास रहा क्योंकि इन दोनों संगीतकारों ने शमशाद बेगम की आवाज में जितनी भी विशिष्टताएँ छिपी थी उनका भरपूर प्रयोग करते हुए एक से एक लोकप्रिय गीत दिए।
नौशाद के संगीत पर शमशाद बेगम के जो गीत लोकप्रिय हुए उनमें ओ लागी लागी (आन), धड़ककर मेरा दिल (बाबुल), तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे (मुगले आजम) और होली आई रे कन्हाई (मदर इंडिया) शामिल हैं। लोकधुनों और पश्चिमी संगीत का अद्भुत तालमेल करने वाले संगीतकार ओपी नैयर  के संगीत निर्देशन में तो शमशाद बेगम ने मानो अपने सातों सुरों के इंद्रधुनष का जादू बिखेर दिया है। इन गानों में ले के पहला-पहला प्यार (सीआईडी), कभी आर कभी पार (आरपार), कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना (सीआईडी), कजरा मोहब्ब्त वाला (किस्मत), मेरी नींदों में तुम मेरे ख्वाबो में तुम (नया अंदाज) ऐसे गीत हैं जो सुनने वाले को गुनगुनाने के लिए मजबूर कर देते हैं। करीब तीन दशक तक हिन्दी फिल्मों में अपनी आवाज का जादू बिखरने के बाद शमशाद बेगम ने धीरे-धीरे पार्श्व गायन के क्षेत्र से अपने को दूर कर लिया। समय का पहिया घूमते घूमते अब रिमिक्सिंग के युग में आ गया है। आज के दौर में भी शमशाद के गीतों का जादू कम नहीं हुआ क्योंकि उनके कई गानों को आधुनिक गायकों एवं संगीतकारों ने रीमिक्स कर परोसा और नई बोतल में पुरानी शराब के सुरूर में नई पीढ़ी थिरकती नजर आई।शमशाद बेगम को सन 2009 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
   डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

जेपीसी पर सरकार फिर मुश्किल में

डॉ. महेश परिमल
जेपीसी रिपोर्ट सरकार के लिए आफत की पुड़िया
जेपीसी और दिल्ली में हुए मासूम के साथ दुष्कर्म के खिलाफ सरकार से मोर्चा लेने के लिए इस बार विपक्ष की तैयारी पूरी है। इस बार वह सरकार को पूरी तरह से नकारा बनाने के लिए कृतसंकल्प है। इसके पहले तमाम सत्रों में विपक्ष ने वाकआउट का ही सहारा लिया। लेकिन इस बार विपक्ष ने तय कर लिया है कि सरकार से हर प्रश्न का उत्तर लेकर ही रहेंगे। इसलिए सरकार इस बार घिर गई है। कई सवालों के जवाब उसके पास नहीं हैं। कई बार जवाब वह गोलमोल देती है। आगामी चुनाव को देखते हुए विपक्ष ने अपनी तैयारी की है। वह सरकार को झुकाने में किसी तरह से कसर बाकी नहीं रखना चाहता। सरकार इस बार भी लाचार ही नजर आएगी।
1.76 लाख करोड़ रुपए के टू जी घोटाले की जांच का पहाड़ खोदकर जेपीसी ने एक ऐसा चूहा बाहर निकाला है, जिससे सभी वाकिफ थे। जेपीसी की रिपोर्ट में यह बताया गया है कि इस घोटाले में न तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का और न ही गृह मंत्री पी.चिदम्बरम की कोई भूमिका नहीं है। रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत करने के पहले मीडिया में लीक कर देना किस ओर संकेत करता है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है। जेपीसी एक तरह से सरकारी तंत्र बनकर रह गया है। जेपीसी के गठन के पहले ये भरोसा दिलाया गया था कि एक ईमानदार रिपोर्ट सामने आएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समिति ने न तो प्रधानमंत्री को बुलाया और न ही गृहमंत्री को। यही नहीं समिति में अपनी बात रखने के लिए ए. राजा ने कई बार दरख्वास्त की, पर उन्हें भी नहीं बुलाया गया। यह भी भला कैसी समिति, जो आरोपी से ही डर कर भाग रही है। जिस पर आरोप है, उससे पूछताछ नहीं कर पा रही है। एक तरह से यह रिपोर्ट एक सरकारी मखौल बनकर रह गई है। निश्चित रूप से यह मामला अब संसद के ग्रीष्मकालीन सत्र में उठाया जाएगा, तो यह सत्र भी हंगामेदार होगा, इस पर कोई दो मत नहीं। इस बार विपक्ष के पास जेपीसी की रिपोर्ट के अलावा दिल्ली में मासूम के साथ हुए दुष्कर्म में दिल्ली पुलिस की भूमिका को लेकर भी संसद के सत्र को गर्म कर देगा। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि जेपीसी के अध्यक्ष पी.सी. चाको ने एक तरह से सरकारी एजेंटा की भूमिका ही निभाई है। वे शायद यह भूल गए हैं कि उन्होंने रिपोर्ट नहीं दी है, बल्कि आफत की पुड़िया दे दी है। जो सरकार को मुश्किल में ही डालेगी।
इस रिपोर्ट के पहले उन तथ्यों पर नजर डाल लिया जाए, जिसमें मुख्य आरोपी ए राजा बार-बार कह रहे हैं कि इस घोटाले की पूरी जानकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को थी। इसका सबूत देते हुए उन्होंने वह पत्र भी समिति के सामने रखा, जिसमें उन्होंने इस घोटाले की पूरी जानकारी का जिक्र है। यह पत्र 2 नवम्बर 2007 को लिखा गया था।
उन्होंने जेपीसी को यह भी बताया कि 2001 के भाव से स्पेक्ट्रम की नीलामी 2007 करने का निर्णय तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम की सहमति के बाद ही लिया गया था। राजा के 17 पन्नों के बयान की पूरी तरह से उपेक्षा कर जेपीसी ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को क्लिन चिट देकर विपक्ष को छेड़ दिया है। जेपीसी ने जो रिपोर्ट तैयार की है, वह संसदीस समिति की रिपोर्ट न होकर कांग्रेस का मुखपत्र बनकर सामने आई है। इस रिपोर्ट में केग द्वारा दिए गए 1.75 लाख रुपए के आंकड़े को भी अनदेखा किया गया है। इसके बदले में 2 जी घोटाले की पूरी जिम्मेदारी सरकार पर ढोल देने की कोशिश की जा रही है। जानकारी के मुताबिक सन 1999 में वाजपेयी सरकार के गलत निर्णय के कारण 40 हजार करोड़ का नुकसान हुआ थ। इसके लिए तत्कालीन टेलिकॉम मंत्री स्व.प्रमोद महाजन को जवाबदार ठहराया गया है।
जेपीसी के सामने भूतपूर्व केबिनेट मंत्री के.एम. चंद्रशेखर ने भी अपना पक्ष रखा। इसमें स्पष्ट बताया गया है कि उन्होंने इस संबंध में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चेताया था कि टेलिकॉम लायसेंस के बँटवारे में देश को 30 हजार करोड़ का नुकसान हो सकता है। उनकी इस सलाह को अनदेखा किया गया।
केंद्र सरकार द्वारा कांग्रेस सांसद पी.सी.चाको की मध्यस्थता में जो संसदीय समिति बनाई गई है,उसमें कांग्रेस के 12 एवं अन्य दलों के 18 सदस्यों को मिलाकर कुल 30 सदस्य हैं। इसके पहले तृणमूल कांग्रेस और डीएमके के प्रतिनिधि सरकार में थे, इससे जेपीसी में उनका बहुमत था। अब जेपीसी में कांग्रेस के केवल 12 सांसद ही रह गए हैं। समाजवादी पार्टी और बसपा के सांसद कांग्रेस को समर्थन दें, तो उनके प्रतिनिधियों की संख्या 14 से ऊपर पहुंच जाती है। बाकी के 16 सांसद अभी सरकार के खिलाफ हैं। इसमें भाजपा, तृणमूल कांग्रेस और डीएमके का समावेश होता है। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सबसे अधिक यदि किसी दल ने सहन किया है, तो वह है डीएमके। इसलिए जेपीसी की रिपोर्ट का सबसे अधिक विरोध यही दल करेगा। इन हालात में 25 अप्रैल को होने वाली जेपीसी की बैठक भी निश्चित रूप से हंगामापूर्ण होगी। इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यदि विपक्ष जेपीसी की रिपोर्ट को पूरी तरह से खारिज कर देता है, तो सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। सरकार दबाव में भी आ सकती है।
सीबीआई ने टेलिकॉम घोटोले में ए. राजा के साथ डीएमके सुप्रीमो करुणानिधि की पुत्री कनिमोजी को भी आरोपी बनाया था। करुणानिधि के अथक प्रयासों के बाद भी 2011 में कनिमोजी को 190 दिनों तक जेल में रहना पड़ा था। अब डीएमके ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है, तो सीबीआई कनिमोजी को फिर से सीखचों के पीछे धकेलने की तैयारी में है। कनिमोजी के खिलाफ एंफोर्समेंट डायरेक्टर ने भी मनी लांडरिंग एक्ट के तहत मामला दर्ज किया है। कनिमोजी पर यह आरोप है कि उनके संचालन में क्लाईग्नर टीवी को स्वान टेलिकॉम द्वारा 209 करोड़ रुपए की रिश्वत विदेशी बैंक के खाते में डालकर दी गई थी। इस मामले में कनिमोजी के खिलाफ जब आरोप पत्र फाइल किया जाएगा, तब उनकी धरपकड़ हो सकती है। कनिमोजी की धरपकड़ होने के बाद एंफोर्समेंट के अन्य डायरेक्टर भी उनकी सम्पत्ति में दखलंदाजी कर सकते हैं।
जेपीसी अब सभी को यह समझाने में लगी है कि 2 जी घोटाले में 1.76 लाख का नुकसान होने के आंकड़े ही झूठे हैं। यदि समिति की मानें, तो देश में इस तरह को कोई घोटाला हुआ ही नहीं है। यदि हुआ भी है, तो इसके लिए देश के प्रधानमंत्री और तात्कालीन वित्त मंत्री किसी भी रूप में दोषी नहीं हैं। वैसे तूणमूल और डीएमके द्वारा सरकार से समर्थन वापस लेने के कारण सरकार मुश्किल में है। मुलायम और मायावती कभी भी सरकार गिराने में सक्षम हैं। इन परिस्थितियों में सरकार ने सीबीआई से सुप्रीमकोर्ट में झूठा शपथपत्र दाखिल करवाने का  विवाद सामने लाया है। भाजपा नेता और समिति के सदस्य यशवंत सिन्हा ने पीसी चाको पर नैतिकता ताक पर रखने का आरोप लगाया है। सीपीआई नेता गुरुदास दास गुप्ता की भी तीखी प्रतिRिया आई है। इसके बाद जेपीसी की रिपोर्ट एकपक्षीय होना भी सिद्ध हो गया है। इन सारे तथ्यों से इस बार विपक्ष मजबूत दिखाई दे रहा है और सरकार लाचार। विपक्ष के इस हमले को सरकार किस तरह से झेल पाती है और स्वयं को बचा पाती है, यह देखना है। यह भी हो सकता है कि इस सत्र के अंत तक सरकार का पतन भी हो जाए और लोकसभा चुनाव की तारीखें ही घोषित हो जाएँ। जिस तरह 2-जी पर बनी इस जेपीसी ने काम काज किया है और नतीजे निकाले हैं, उससे संयुक्त संसदीय समितियों के गठन के औचित्य पर सवाल खड़े हो गए हैं।
   डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

पीली धातु से होता मोहभंग

डॉ. महेश परिमल
सोने के दाम लगातार गिर रहे हैं। इसका आशय यही है कि अब पीली धातु का स्वर्णयुग समाप्त हो रहा है। जानकार लोगों से यही कह रहे हैं कि वे अब सोने की कीमतों को देखते हुए न तो सोना खरीदें और न ही बेचने में उतावले हों। अब सवाल यह उठता है कि आखिर किया क्या जाए? सोना यदि आवश्यक है, तो हीे खरीदें। सम्पत्ति के नाम पर सोना खरीदने का अब समय नहीं रहा। जिन्होंने निवेश के लिए सोना खरीदा है, वे क्या करें? उन्हें यही सलाह दी जाती है कि वे उतावले न हों। उत्तर कोरिया के दिन फिर जाएं और संभव है सोने में तेजी आ जाए। सोने की कीमतों में आने वाले उतार-चढ़ाव के संबंध में एक ही भविष्यवाणी की जा सकती है कि इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। निवेशकों को अभी हालात देखते हुए ही सोने पर कोई नीति अपनानी चाहिए।
प्रकृति का नियम है कि जो चढ़ता है, वह उतरता भी है। अब तक हम सब यही मानते आए हैं कि सोने पर यह कानून लागू नहीं होता। यह मान्यता अब झूठी साबित हो रही है। पिछले दो दशक में हमारे देश में सोने के भावों में 6 गुना वृद्धि हो चुकी है। सन् 2001 में जो सोना 5 हजार रुपए तोला बिक रहा था, वही सोना 2011 तक 33 हजार रुपए तोला तक पहुंच गया। सटोरिये तो यही सोच रहे थे कि सोना 50 हजार की ऊंचाई का पार कर लेगा। पर उनकी योजनाओं पर तुषारापात हो गया। विशेषज्ञ कहते हैं कि सोने में मंदी का दौर शुरू हो गया है, यह अभी और लंबा चलेगा। हमें अभी तक यही कहा जाता रहा है कि सोने के भावों में हमेशा तेजी आती रहती है। इसलिए पूंजी निवेश के लिए सोने से सुरक्षितऔर कोई धातु नहीं है। किंतु सोने का अंतरराष्ट्रीय इतिहास कुछ और ही बयां करता है। सन् 1971 में जब अमेरिका ने गोल्ड स्टैंडर्ड को तिलांजलि दी, तब उसके एक औंस का भाव 35 डॉलर था। उसके बाद यह भाव लगातार बढ़कर 1989 में 834 डॉलर हो गया। इसके बाद सोने ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इन दो दशकों में सोने पर अपना धन लगाने वाले कई लोग दीवालिया घोषित हो गए। जो यह कहते हैं कि सोने के दाम हमेशा बढ़ते ही रहते हैं, वे जरा सोने के 1980 से 2000 तक के अंतरराष्ट्रीय भावों पर एक नजर डाल लें।
सोने के भाव में तेजी सन् 2003 से शुरू हुआ। हाल ही में 33 हजार रुपए प्रति दस ग्राम बिकने वाला सोना आज 27 हजार हो चुका है। विशेषज्ञ कहते हैं कि बहुत ही जल्द सोना 1300 डॉलर प्रति ग्राम बिकने लगेगा। यानी उसके दाम अभी और गिरेंगे और वह 25 हजार रुपए प्रति दस ग्राम में मिलेगा। सोने के दाम बढ़ने का एक कारण यह था कि दुनिया में जब आर्थिक मंदी के हालात पैदा होते हैं, तब लोगों का सरकारी करेंसी पर विश्वास कम होने लगता है। इन हालात में वे सोना खरीदना शुरू कर देते हैं। वर्तमान में उत्तर कोरिया की दखलंदाजी के कारण अणुयद्ध की स्थिति पैदा हो गई है, जापान अपनी धनराशि की आपूर्ति दोगुनी करना चाहता है, इधर साइप्रस की बैंकों में रखा गया काला धन जब्त करने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। इन कारणों से सोने की कीमत बढ़नी चाहिए, पर ऐसा क्या हुआ, जिससे सोना लुढक रहा है। सन् 2011 में सोने की कीमतों में जो उछाल आया, उसका मुख्य कारण यह था कि तब यूरोजोन के टूटने का भय था। इस कारण निवेशकों से सोना खरीदना शुरू कर दिया। अब यह भय कुछ अंशों तक खत्म हुआ, तो दूसरा पांच वर्ष बाद अमेरिका ने घोषित किया कि वह अर्थतंत्र में धन की आपूर्ति घटा रहा है, इस कारण मुद्रास्फीति दर घटेगी। तीसरा साइप्रस अपनी माली हालत को सुधारने के लिए 40 करोड़ यूरो का सोना बेचने के लिए निकालेगा, ऐसी संभावना है। इटली के पास 94 अरब डॉलर की कीमत का 2,452 टन सोने का जखीरा है। इटली का अर्थतंत्र भी डांवाडोल है। साइप्रस की तरह इटली भी अपना सोना बाजार में लाना चाहे, तो काफी अफरा-तफरी मच सकती है।
पिछले एक दशक में सोने की कीमतों में जो उछाल आया है, उसकी वजह वास्तव में उसके उपयोगकर्ता नहीं, बल्कि सटोरिए हैं। दुनियाभर के शेयरबाजारों में मंदी के आने से सटोरिए शेयर से राशि निकालकर सोने और खनिज तेलों में लगाया था। सन् 2010 और 2011 के दौरान निवेशकों ने सोने के साथ जुड़ी सिक्योरिटी में 25 अरब डॉलर का निवेश किया। इसके पीछे उनकी धारणा यह थी कि यूरोजोन की मंदी गहरी होगी, तो सोने की कीमतों में भारी इजाफा होगा। सोना उड़ने लगेगा, पर ऐसा हुआ नहीं, इसलिए सटोरिए सोने की चमक से बाहर आने लगे। एसपीडीआर नामक कंपनी ने सोने में किया गया 7.7 अरब डॉलर का निवेश पीछे खींच लिया है, इस कारण सोने के भावों का अध:पतन शुरू हो गया है। हमारे देश में सोने पर आयात कर में लगातार वृद्धि हो रही है, इसके कारण सोने के भावों में कामचलाऊ उछाल देखने को मिला था, इससे तस्करी को बल मिल रहा है। अभी विश्वबाजार में होने वाली मंदी के कारण यह कामचलाऊ बढ़ोत्तरी एक तरह से पचा ली गई है। भारत के अनेक सटोरिओं ने भी अपना सोना बेचने के लिए बाजार में ला दिया है। इस कारण भी भाव घट रहे हैं। सोने में तेजी के कारण ही सन 2013 के पहले दस महीने में 42 अरब डॉलर के सोने का आयात हुआ था। इस कारण आयात-निर्यात के बीच की खाई चौड़ी होती गई, इससे सरकार चिंतित हो गई। अब सोने की कीमतें नीचे आने से आयात में भी कटौती होने की संभावना है।
वेसे यह भी कहा जाता है कि सोने का मिलना और सोने का खोना दोनों ही अच्छा नहीं है। जिसे मिलता है, उसे चिंतित कर देता है, जिसका खोता है, वह जिंदगी से ही निराश हो जाता है। खुशी किसी को नहीं होती। इसलिए सोने को लेकर इतना गंभीर नहीं होना चाहिए। इसे भी एक धातु ही माना जाए। अब तो वैज्ञानिक सोने को खेतों में उगाएंगे, ऐसी भी खबरें हैं। तब तो फसल सोने की नहीं, बल्कि सोना ही एक फसल होगा। अब देखते हैं कि इस फसल को खेतों तक लाने में हमारे वैज्ञानिक कितने सफल हो पाते हैं?
  डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

प्राण नहीं प्राणवान

डॉ. महेश परिमल
परदे पर प्राण के होने का मतलब यही नहीं है कि एक बुरा आदमी भला कितना बुरा हो सकता है। उसकी नीचता कहां तक जा सकती है। वह कितना गिर सकता है। उसकी इंसानियत की मौत कब हुई। उसकी हैवानियत क्या कहती है। उसकी दरिंदगी की हद क्या है? इसके बाद भी जब वे परदे पर आते हैं, तो विश्वास हो जाता है कि अब कुछ बुरा होने ही वाला है। निश्चित ही अब मानवता मर जाएगी। अत्याचार और अन्याय अपनी सीमाएं पार कर देगा। परदे पर एक बुरा आदमी का आना उतना नहीं डराता, बल्कि उस बुरे आदमी की आंखें ही सब कुछ बता देती हैं कि वह अब क्या करने वाला है? उसकी हरकतें ही उसकी भाषा बन जाती हैं। यह सब देखना हो, तो केवल प्राण साहब के अभिनय में देखा जा सकता है। 93 वर्ष की उम्र में उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने से वे भले ही रोमांचित हों, पर सरकार को शर्म आनी चाहिए। अब यदि घोषणा कर ही दी है, तो प्राण साहब को यह पुरस्कार उनके घर पर जाकर दिया जाना चाहिए। तभी वे स्वयं को गौरवान्वित महसूस करेंगे।
मायानगरी में केवल प्राण साहब ही ऐसे शख्स रहे हैं, जो केवल परदे पर ही खलनायकी करते रहे। आम जिंदगी में वे कभी खलनायक नहीं बन पाए। अन्य खलनायकों की कहानियां आते रहती हैं कि वे रियल लाइफ में भी खलनायकी कर चुके हैं। पर प्राण साहब हमेशा खलनायक नहीं रहे। अपने आप को बदलने में लगे रहे। 60 से 70 के दशक का वह दौर जब प्राण साहब अपने कैरियर के सबसे ऊंचे मुकाम पर थे, तब हालत यह थी कि वे हीरों से अधिक मेहनताना लेते थे। उस दशक में पैदा होने वाले बच्चों में किसी का नाम प्राण नहीं रखा गया। भला हो, मनोज कुमार जी का, जिन्होंने पहले उन्हें शहीद में और फिर उपकार में उन्हें लीक से हटकर भूमिका दी। उपकार में जब उन्हें मलंग बाबा की भूमिका दी गई, इसके लिए मनोज कुमार ने उनके लिए अलग से किरदार लिखा। तब लोगों ने मनोज कुमार से यही कहा कि ऐसा कभी मत करना, फिल्म नहीं चल पाएगी। उसके बाद जब यह बात सामने आई कि इस फिल्म में प्राण एक गाना भी गाएंगे, तो लोगों ने मनोज कुमार को सरफिरा घोषित कर दिया। उन्हें आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। लेकिन मलंग बाबा की भूमिका ने प्राण के जीवन में एक नया मोड़ ही ला दिया। इसके बाद प्राण वास्तव में वही हो गए, जो आम जिंदगी में थे। सबका भला करने वाले, नर्म दिल, कविताओं का शौक रखने वाले, प्रतिभावानों की सिफारिश करने वाले।
ये कतई गलत नहीं है कि पूरी फिल्म इंडस्ट्री में प्राण जैसा प्राणवान कोई नहीं है। जंजीर में अमिताभ को लेने के लिए प्रकाश मेहरा से सिफारिश प्राण साहब ने ही की थी। वे जब भी विलेन के रूप में परदे पर आए, तो कभी मुंह बिचका कर, कभी आंखें तरेरकर, कभी सिगरेट के छल्ले बनाकर, कभी ठीक है ना ठीक बोलकर अपनी शैतानियत का खुलासा करते। फिल्म में वे चाहे डाकू बने या फिर स्मगलर या फिर लुटेरे, हर तरह की भूमिका में उन्होंने जान डाल दी। जब उन्होंने चरित्र अभिनेता की भूमिका शुरू की, तो लाचार पिता बनने में उन्हें गुरेज नहीं था।  यह कहना गलत न होगा कि प्राण ने फिल्मों को प्राणवान बनाया। अपने साथ-साथ वे अन्य साथी कलाकारों के लिए भी अभिनय का संग्रहालय होते। साथी कलाकार उनसे प्रेरणा लेते। मायानगरी के उम्रदराज प्राण को फाल्के अवार्ड मिलना उनके लिए बड़ा सम्मान है। पर यह फिल्म नगरी का भी सम्मान है। शायद ही कोई होगा, जो इस खबर को सुनकर दु:खी होगा। सभी ने अपनी खुशी जाहिर की है। किसी ने सरकार को दोष भी दिया है, पर इसमें प्राण साहब के लिए सम्मान ही है। फिल्मों में उनकी भूमिका ऐसी होती थी कि लोग उन्हें गाली देते थे। पर आम जिंदगी में वे उतने ही सज्जन हैं। यह तो उनकी भूमिका का ही प्रभाव है कि लोग उनसे नफरत भी करते थे। अभिनय सर चढ़कर बोला, तभी तो नफरत आई। आम जीवन में वे फिल्मी बुराइयों से दूर हैं। उनकी संतानों का नाम फिल्मी दुनिया में सुनने को नहीं मिलता।
प्राण साहब का होना ही इस बात का परिचायक है कि वे अपने अभिनय से फिल्म के हीरो पर भारी पड़ेंगे। ऐसा बार-बार हुआ। खलनायकी के वे बेताज बादशाह रहे। ऐसी बात नहीं है कि उनका नाम पहली बार कमेटी में पुरस्कर के लिए आया और घोषणा हो गई। प्राण साहब का नाम दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए पहले भी एकाधिक मौकों पर आया था। लेकिन किसी न किसी वजह से उनके नाम पर सहमति नहीं बन पाई थी। फिल्म इंडस्ट्री के इस सबसे बडे सम्मान के विजेता के चुनाव के लिए जो समिति बनी, उस समिति के किसी न किसी सदस्य को या तो उनके नाम पर ऐतराज रहा या कभी क्षेत्रवाद हावी हो गया और दक्षिण की किसी हस्ती को यह पुरस्कार नसीब हो गया। 93 वर्ष की उम्र पार कर चुके प्राण साहब इस सम्मान से दूर ही रहे। मनोरंजक यह है कि हर बार की तरह इस बार भी फिल्म इंडस्ट्री के कुछ लोग खुद को यह सम्मान दिलवाने के लिए सक्रिय रहे। कुछ ऐसे लोग सदस्य के तौर पर शामिल नहीं हो पाए जो कभी नहीं चाहते थे कि प्राण साहब को यह सम्मान मिले। एक नामी फिल्म निर्देशक और राज्यसभा सांसद तथा एक मशहूर मलयाली फिल्मकार इस बार चुनाव समिति से दूर रहे। वे सालों से इस चुनाव समिति में बतौर दादा साहेब फाल्के विजेता शामिल होते रहे थे। वाजिब तर्क यह दिया गया कि सिर्फ कुछ चुनिंदा लोगों को क्यों हर बार चुनाव समिति का सदस्य बनाया जाए।् सूचना-प्रसारण मंत्रालय के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, फाल्के सम्मान के चयन के लिए जो समिति बनती है, उसमें कुल पांच सदस्य होने चाहिए और उनमें से कम से कम एक या दो वे हों जिन्हें पहले यह सम्मान मिल चुका है। संयोग ऐसा रहा कि इस बार की चुनाव समिति में सायरा बानो, आशा भोंसले, रमेश सिप्पी और डी. रामानायडू जैसे लोग शामिल किए गए, जो प्राण साहब के नाम पर सहमत हो पाए। ये लोग पहले से ही चाहते थे कि प्राण साहब इस सम्मान के हकदार काफी पहले से हैं। उनके पक्ष में एक बात और गई कि वे पहले चरित्र अभिनेता हैं, जिन्हें इस सम्मान से नवाजा जा रहा है।
हिन्दी फिल्मों के जाने माने नायक, खलनायक और चरित्र अभिनेता प्राण का जिR आते ही आंखों के सामने एक ऐसा चेहरा नजर आ जाता है जिसके चेहरे पर हमेशा मेकअप रहता है और भावनों आ तूफान नजर आता है जो अपने हर किरदार में जान डालते हुए यह अहसास करा जाता है कि उसके बिना यह किरदार बेकार हो जाता। उनकी संवाद अदायगी की शैली को आज भी लोग भूले नहीं हैं। प्राण की शुरुआती फिल्में हों या बाद की फिल्में उन्होंने अपने आप को कभी दोहराया नहीं। उन्होंने अपने हर किरदार के साथ पूरी ईमानदारी से न्याय किया। इसीलिए अपने किरदार का वे घर पर पहले स्केच बनवाते, फिर उनका मेकअप होता। ताकि रोल में पूरी तरह से डूब जाएं। शेर खान की भूमिका करते हुए जब यारी है ईमान मेरा गीत फिल्माया जा रहा था, तब उनकी पीठ में काफी दर्द था, फिर भी उन्होंने जमकर नृत्य किया, जिसे आज भी भुलाया नहीं जा सकता। अभिनय के प्रति यही समपॅण आज उन्हें फिल्म पुरस्कार के ऊंचे मकाम पर खड़ा कर दिया है। शायद ही ऐसी कोई फिल्म हो, जिसमें उन्होंने अपना तकियाकलाम ‘बर्खुरदार’ का इस्तेमाल न किया हो। प्राण साहब ने फिल्मों में जितना डराया, उतना हंसाया भी। विक्टोरिया नम्बर 203 देखकर आपको हंसने के लिए मजबूर होना ही पड़ेगा।
प्राण हमेशा प्राणवान रहे, फिल्म इंडस्ट्री को प्राणवान करते रहें, यही कामना।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

संजू बाबा की सजा के बहाने

मासिक खरी न्‍यूज के अप्रैल 2013 के अंक में प्रकाशित


बुधवार, 10 अप्रैल 2013

मालामाल करने वाला तमाशा

आज जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण के पेज 9 पर प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

संजय दत्त को क्यों दी जाए माफी ?

डॉ. महेश परिमल
इन दिनों सभी चिंतित हैं कि संजय दत्त को जेल की सजा न हो। सजा न होने के लिए अजीबो-गरीब बहाने बताए जा रहे हैं। कोई कहता है कि उन्होंने जो अपराध किया है, वह जवानी में किया है। अब वे सुधर गए हैं। संजय दत्त स्वयं कहते हैं कि सजा केवल मुझे ही नहीं, मेरे बच्चों को भी होगी। मेरे लिए दुआ करो। कई लोग इसके विरोध में भी हैं। उनका कहना है कि आखिर उन्हें माफी क्यों दी जाए? केवल इसलिए कि वे एक भूतपूर्व कांग्रेसी मंत्री और बेहतरीन अदाकारा के बेटे हैं। यही नहीं वे स्वयं भी एक अच्छे कलाकार हैं। क्या केवल इस बात के लिए उन्हें जेल की सजा न दी जाए? ये कहां का तर्क है? यह सच है कि वे आतंकवादी नहीं है। पर उनकी हरकते किसी आतंकवादी से कम नहीं रहीं। कम से कम जवानी के दिनों में। उनका बचपन गलत सोहबत के बीच नशे की लत में बीता। स्कूली जीवन में ही उन्हें नशे की लत लग गई थी। उनकी पृष्ठभूमि फिल्मी थी, इसलिए अनायास ही वे फिल्मों में आ गए। अन्यथा उनका गलत रास्ते पर जाना तय था। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ सोच-समझकर ही उन्हें सजा सुनाई होगी। कोर्ट के आदेश की अवमानना नहीं होनी चाहिए। उनकी सजा माफ हो जाती है, तो एक गलत संदेश पूरे देश में जाएगा। फिर इस पर भी बहस छिड़ सकती है कि क्या केवल अच्छे परिवार से होना ही सजा माफी के लिए पर्याप्त कारण हो सकते हैं। अपराध किया है, तो सजा होगी ही, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए।
कुछ लोग समय के साथ बदल जाते हैं। कुछ को समय ही बदल देता है। पर संजय दत्त उन लोगों में से हैं, जो कभी नहीं बदल सकते। वे कभी भी गंभीर नहीं रहे। हां गंभीर होने का अभिनय उन्होंने बहुत ही अच्छे तरीके से अवश्य किया है। एक योजना के तहत उनके अच्छे कार्यो की जानकारी मीडिया को मिलती रही है। उन्होंने किसी की सहायता की, इस आशय की बात कई बार मीडिया के माध्यम से बाहर आई। आज अपनी अच्छी आदतों या फिर दिखावे के लिए किए गए कार्यो को हाइलाइट करने का धंधा ही चल पड़ा है। करों का पहले से भुगतान करना, मेहनताने की राशि चेरिटी में देना, झोपड़पट्टी पर जाकर बच्चों के बीच रहना आदि कई तरह के नखरे सेलिब्रिटियों के देखे जा रहे हैं। सीधी सी बात है कि वे जब ऐसा करने जा रहे हैं, तो मीडिया को बताने की क्या आवश्यकता? ये काम वे चुपचाप भी तो कर सकते थे। आखिर इस तरह के कार्यो से वे बताना क्या चाहते हैं? संजय दत्त के बारे में भी इस तरह की कई बातें मी¨डया के माध्यम से बाहर आई हैं। पर जिस तरह से उन्होंने तीन शादियां की हैं, बेटी के लिए वे अच्छे पिता नहीं हैं, इसे भी तो सभी जानते हैं। इस तरह की बातें भी मीडिया के माध्यम से बाहर आई हैंे। कल यदि सलमान खान को भी सजा होनी हो, तो क्या वे भी अपने अच्छे संस्कारवान परिवार का रोना रोएंगे या फिर अपनी गलती मानकर सजा भुगतेंगे?
संजय दत्त को सजा सुनाकर अदालत ने कोई गुनाह नहीं किया है। सजा सुनाना अदालत का काम है। इसके पहले न जाने कितने निर्दोषों को सजा हुई, तब कहां से ये सब कानून के रखवाले? किसी निर्दोष को सजा न हो, यह सभी चाहते हैं, फिर भी उन्हें सजा हो ही जाती है। पर न जाने कितने गुनाहगार ऐसे हें, जो खुले आम घूम रहे हैं। जिनके लिए कानून मात्र एक खिलौना है। ऐसे कई मंत्रीपुत्र आज भी अपराध करने के बाद भी सलाखों की पीछे नहीं जा पाए हैं, उसकी वजह यही है कि उन पर कानून के रखवालों का वरदहस्त है। हर राज्य में न जाने कितने राजा भैया हैं, जो खुलकर कानून का मजाक उड़ाते हैं। अपना कानून बनाते हैं, न्याय के नाम पर अन्याय करते हैं। फिर भी वे कानून की पहुंच से बहुत दूर हैं। आखिर इन्हें संरक्षण कौन देता है? कानून को लेकर मनमानी हर तरफ है। पर कोई कुछ कर नहीं पाता। बीस साल बाद सजा सुनाने वाली सरकार अभी तक न तो दाऊद को पकड़ पाई, न ही उसके साथियों को। सभी जानते हैं कि वह कहां है, क्या कर रहा है? पर पाकिस्तान को लेकर हमारा देश कभी सख्त हुआ ही नहीं। इसी का फायदा उठाकर वह अपनी करतूतों को अंजाम देता रहा है। जिस तरह से ओबामा ने ओसामा बिन लादेन का खात्मा पाकिस्तान में ही कर दिया, कुछ ऐसे ही उपाय करने के लिए भारत सरकार में इच्छाशक्ति होनी चाहिए। यह इच्छाशक्ति अभी तक हमारे देश के नेताओं में नही आई है।
रही बात संजय दत्त को माफी की। उसे किसी भी रूप में माफी नहीं मिलनी चाहिए। उनकी हरकतें कभी भी समाज के लिए प्रेरणादायी नहीं रहीं। वे कलाकार हैं, तो उन्हें अपनी कलाकारी दिखाने पर खूब धन भी तो मिलता है। कोई मुफ्त में तो नहीं करते, फिल्मों में काम? अपनी कमाई का एक हिस्सा दान भी तो नहंी करते। आखिर क्या सोचकर उन्हें माफी दी जाए? ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्होंने अपराध किया, उनका भी परिवार है, भले ही अपराध किसी विवशतावश किया गया हो, पर वे सजा तो भुगत ही रहे हैं। कई लोग तो जेल में ही अपने अच्छे आचरण के लिए समय से पहले ही छूट जाते हैं। संजय दत्त भी कुछ ऐसा ही करें, जिससे उनकी सजा कम से कम हो जाए। वे संस्कारवान हैं,अच्छे परिवार से हैं, यह सब उन्हें जेल के भीतर बताने की आवश्यकता है, जेल के बाहर नहीं। यह तर्क पूरी तरह से गलत है कि वे अब सुधर गए हैं। अब इसकी कौन गारंटी देगा कि वे अब कभी नहीं बिगड़ेंगे? उन्हें माफी देने की वकालत करने वालों में से एक भी ऐसा नहीं है, जो यह गारंटी ले कि वे अब कभी कानून अपने हाथ में नहीं लेंगे। भला ऐसे व्यक्ेित को कौन गारंटी लेगा, जो कभी बौद्धिक रूप से वयस्क हुआ ही नहीं। यदि माता-पिता ने अच्छे संस्कार दिए हैं, तो उसे अच्छा इंसान बनने से कोई रोक नहीं सकता। अच्छे संस्कार मिलने केदौरान ही उन्होंने नशे को अपना साथी बनाया, इसमें दोष किसका? उनकी हरकतों को देखते हुए उनकी बेटी त्रिशला का लालन-पालन संजय दत्त को न देकर उसकी नाना-नानी ने किया। आज वह विदेश में पढ़ रही है। अपने पिता को वह केवल एक कलाकार के रूप में ही जानती है। बस इतना ही संबंध है उसका अपने पिता से। रही बात उन पर लगाए गए धन से। तो उन निर्माताओं को सोचना चाहिए कि वे उस व्यक्ति पर अपना धन लगा रहे हैं, जिस पर अवैध रूप से हथियार रखने का आरोप है और उस पर मुकदमा चल रहा है। आखिर वे एक गैरजिम्मेदार व्यक्ैित पर इतना धन कैसे लगा सकते हैं? यदि लगाया है, तो वे स्वयं भुगतें। उन्हें माफी मिल जाने से उनकी फिल्में तो पूरी हो जाएंगी, पर इसका लाभ आखिर किसको होगा? आम आदमी को यही संदेश जाएगा कि फिल्मी लाइन में होने से सजा से भी माफी मिल सकती है।
अंत में संजय दत्त के बारे में यही बात कि जब उनकी मां नरगिस को कैंसर था, तब उनकी आयु 18 वर्ष थी, पत्नी ऋचा जब इलाज के दौरान जिंदगी और मौत से जूझ रही थी, तब फिल्मों की जूनियर आर्टिस्ट के साथ गुलर्छे उड़ाने वाले संजू बाबा की उम्र 26 वर्ष थी, ए के 47 रखते समय उनकी उम्र 33 वर्ष थी। समाजवादी पार्टी की टोपी पहनकर चुनाव प्रचार में निकलते समय उनकी उम्र 48 साल थी। इन सारी उम्रों के साथ उन्होंने कब अपनी संजीदगी का परिचय दिया। आज जब उन्हें सजा सुना दी गई है, तब उनके लिए कई तरह की मनोहर कहानियां सामने आ रही हैं। अच्छा होगा कि वे सजा भुगतकर बाहर आएं और एक अच्छे इंसानऔर देशभक्त होने का परिचय दें।
   डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

मालामाल करने वाला आईपीएल का तमाशा


डॉ. महेश परिमल
आईपीएल का तमाशा शुरू हो गया है। अब होगी चौकों-छक्कों की बरसात। लोगों में होगा जोश और रोमांच। पूरे डेढ़ महीने तक जारी रहेगा कमाल, धमाल और मालामाल का सिलसिला। वैसे देखा जाए, तो क्रिकेट अब जेंटलमेन गेम नहीं रहा। आईपीएल भी एक खेल नहीं, बल्कि बिजनेस है। लोगों को क्या अच्छा लग रहा है, यह देखना आवश्यक नहीं है। आवश्यक यह है कि इससे किसको कितना फायदा होगा। फिर चाहे खिलाड़ी हो, आयोजक हो, या फिर कोई खेल हो। सभी को लाभ की दृष्टि से देखा जा रहा है। सिर्फ देखने का नहीं.. इंडियन प्रीमियर लीग के टीवी पर एक विज्ञापन में कोरियाग्राफर फराह खान कहती है कि केवल मैच देखना ही नहीं, नाचने का भी है। छक्का लगे, तो किस स्टाइल में नाचना और चौका लगे तो किस तरह के स्टेप्स लेना, विकेट गिरे, तो किस तरह से उछलना। यह सब आजकल सिखा रही है, फराह खान। इस विज्ञापन में एक और लाइन जोड़ देनी चाहिए कि यह सिर्फ देखने का नहीं और सोचने का भी नहीं। जस्ट हेव फन, ऐश करो।
आईपीएल का जश्न शुरू हो गया है। जश्न के बजाए इसे तमाशा कहना ठीक होगा। वन डे में घायल हुए सभी खिलाड़ी एकदम तरोताजा हो गए हैं। अब किसी को किसी से परेशानी नहीं है। क्योंकि मैच से अपार धन मिलने की संभावना है। आईपीएल के संबंध में एक क्रिकेटर का कहना है कि बीसीसीआई का मैच सरकार नौकरी की तरह है, इसमें कुछ भी चल सकता है। पर आईपीएल प्राइवेट जॉब की तरह है, इसके लिए परिश्रम करना पड़ता है, इसमें कुछ भी नहीं चल सकता। अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन देना होता है। इसमें लक्ष्य होता है, एक-एक बॉल की गिनती होती है। आप कह सकते हैं कि सभी का ‘भाव’ है। अगर आपने बेहतर प्रदर्शन नहीं किया, तो आपका भाव गिर जाएगा। हां एक बात और गेम के साथ फन होता है, जहां सब केवल फन के लिए ही होता हो, वहां जोरदार हाइप और कंट्रोवर्सी तो होनी ही है। 2008 से शुरू होने वाली आईपीएल की यह छठी कड़ी है। दो महीने में 76 मैच, यानी दे दनादन। इस दौरान वाद विवाद होते रहेंगे। कितने ही विवाद तो बनेंगे और कितने बनाए जाएंगे। कितने ही मीडिया में छा जाएंगे। आईपीएल के पास अभी तो यही एक नियम है कि जो दिखता है, वही बिकता है। आईपीएल के प्रणोता ललित मोदी को अब कोई याद नहीं करता। पर इस खेल को पूरी तरह से धंधे को बदलने का यश या अपयश उन्हीं को जाता है। आपको याद होगा कि वे हेलीकाप्टर से मैदान पर उतरकर उद्घाटन समारोह में आए थे। कम कपड़ों वाली चीयर्स लीडर्स और मैच के बाद आयोजित होने वाली कॉकटेल पार्टिज बॉलीवुड के दबदबे को भी फीका कर देती थी। इसके बाद इसमें कुछ नियंत्रण दिखाई दिया। पर इस खेल में कहीं न कहीं तो ग्लैमर उभरकर आया। यदि यह न होता, तो लोगों को मजा कैसे आता?
आईपीएल के दौरान दो तरह के खेल होते हैं, एक मैदान पर और दूसरा स्टेडियम में। सट्टेबाजों की इमसें गिनती ही नहीं है। बाकी बात तो यह है कि आयोजन के कुल खर्च से अधिक राशि तो सट्टे में ही लग जाती है। भूतकाल में जो भी विवाद हुए हैं, वे क्रिकेट में अतिरेक हो गए हैं। इसे देखकर पहले तो यही लगा था कि कुछ समय बाद आईपीएल का जादू खत्म हो जाएगा। आईपीएल का यह बुखार जल्द ही उतर जाएगा, देख लेना, कहने वाले आज खामोश हैं। उन्हें यह समझ में आ गया है कि यह आईपीएल एक नशा बनकर युवाओं में छा रहा है। इसीलिए फिल्म वाले भी इससे अब नहीं डरते, इस दौरान काफी फिल्में भी रिलीज होंगी। शायद किसी को पता नहीं होगा कि पिछले साल जो आईपीएल खेला गया था, उसमें कितने का फायदा हुआ था। पूरे दस हजार 790 करोड़ रुपए। अब आप ही बताएं कि दुनिया का ऐसा कौन सा धंधा है, जिसमें केवल दो महीने में ही इतने रुपए कमाए जा सकते हैं? हर मैच में 40 हजार दर्शक तो आते ही थे, इसके अलावा टीवी के माध्यम से विज्ञापनों का जो धंधा हुआ, वह अलग। इसी से पैदा हुए ब्रांड प्रमोशन करने वाले ब्रांड एम्बेसेडर।
आईपीएल के मजे को दोगुना बनाने के लिए बॉलीवुड ने भी कमर कस ली है। अभी से ही यह चर्चा शुरू हो गई है कि शाहरुख की टीम जब वानखेड़े स्टेडियम में खेल रही होगी, तब उन्हें अंदर जाने दिया जाएगा या नहीं? आपको शायद याद होगा, शाहरुख ने वानखेड़े स्टेडियम में धमाल मचाया था। इस विवाद के बाद शाहरुख ने कहा था कि अब वर्ष में एक विवाद करना है और दो फिल्में। अभी तक इस वर्ष शाहरुख ने कोई विवाद खड़ा नहीं किया है, शायद उसने आईपीएल के लिए बचा रखा हो। हमारे यहां फुटबॉल का यूरोप-अफ्रीका देशों जैसा बोलबाला नहीं है। राष्ट्रीय खेल हॉकी में कोई दम नहीं दिखता। जो कुछ यदि है, तो वह है क्रिकेट। फुटबॉल के इंग्लिश प्रीमियर लीग की तर्ज पर इंडियन प्रीमियर लीग की रचना की गई। इससे खेल को भी एक धंधा बना लिया गया। आज आईपीएल की ब्रांड वेल्यू 3.67 बिलियन डॉलर हो गई है। भारत के बाद श्रीलंका और अन्य देशों के मुंह पर भी इस धंधे को देखकर लार टपकने लगी है। इसकी तगड़ी कमाई ने सभी को आकर्षित किया है। यही हाल रहा, तो क्रिकेट का निजीकरण हो जाएगा। क्रिकेटर ही बाजार में खड़े होकर अपनी कीमत लगाएंगे और कहेंगे कि हमें खरीद लो।
वैसे भी अब क्रिकेट जेंटलमेन गेम नहीं रहा। वैसे भी संस्कृति या फिर परंपरा भी कहां बची है, जो क्रिकेट बचता। अब खेलों से स्पोर्ट्समेन स्पीरिट ही खो गई है। अब तो केवल स्पीरिट ही रह गया है। थ्री चीयर्स टू आईपीएल सिंक्स! देख तमाशा क्रिकेट का। अब से डेढ़ महीने तक लोगों पर क्रिकेट का बुखार चढ़ता रहेगा। इससे दूर होना युवाओं के बस की बात नहीं। खूब चौके, खूब छक्के और खूब सारा पैसा। चीयर्स लेडी का आकर्षण, तेज लाइट की चकाचौंध के बीच होगा क्रिकेट का तमाशा।
 डॉ. महेश परिमल

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