गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

पीके घर आज प्यारी दुल्हनिया चली

डॉ.महेश परिमल
बिदाई के समय बेटियों को धार धार रुलाने वाली यह पुरकशिश आवाज की मलिका अब हमारे बीच नहीं है। पर उनकी आवाज का जादू आज भी हमारे सर चढ़कर बोलता है। गीत कोई भी हो, यदि उसे शमशाद जी गा रही हैं, तो तय है यह कंटीली आवाज आपको चुभेगी नहीं। भीतर तक उतर जाएगी। ऐसी आवाज जो रोशनी की तरह बिखरकर पूरे जिस्म में उतर जाती है। लगता है किसी विरही ने अपने प्रियतम के लिए ऐसी तान छेड़ दी है, जो सीधे दिल पर उतर रही है। विरह वेदना से झुलसती नायिका की पीड़ा को यदि किसी ने अपने आवाज दी है, तो वह है केवल शमशाद बेगम। उनकी आवाज का खुरदरापन कभी एक ऐसी टीस पैदा करता है, जिसे समझकर कोई भी तड़प सकता है। इसी तड़प को शमशाद बेगम ने अपनी आवाज में पूरी शिद्दत के साथ पेश किया। न भूलने वाली आवाज, मानों सदियों से गूंज रही थी, अब खामोश हो गई। सचमुच उनका जाना कई आवाजों को खामोश कर जाना है।
कजरा मोहब्बत वाला, अखियों में ऐसा डाला, मेरी नींदों में तुम, मेरे ख्वाबों में तुम, तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर, हम भी देखेंगे और लेके पहला-पहला प्यार जैसे सदाबहार गीतों की फिल्में और संगीतकार भले ही अलग हैं, लेकिन इनमें एक बात समान है कि इन सभी गीतों को शमशाद बेगम ने अपनी खनकदार आवाज बख्शी है।
अपनी पुरकशिश आवाज से हिंदी फिल्म संगीत की सुनहरी हस्ताक्षर शमशाद बेगम के गानों में अल्हड़ झरने की लापरवाह रवानी, जीवन की सच्चाई जैसा खुरदरापन और बहुत दिन पहले चुभे किसी काँटे की रह रहकर उठने वाली टीस का सा एहसास समझ में आता है। उनकी आवाज की यह अदाएँ सुनने वालों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करती है और उनके गानों की लोकप्रियता का आलम यह है कि आज भी उन पर रीमिक्स बन रहे हैं।
करीब चार दशकों तक हिन्दी फिल्मों में एक से बढ़कर एक लोकप्रिय गीतों को स्वर देने वाली शमशाद बेगम बहुमुखी प्रतिभा की गायिका रहीं। साफ उच्चारण, सुरों पर पकड़ और अनगढ़ हीरे सी चारों तरफ रोशनी की तरह बिखर जाने वाली शमशाद की आवाज जैसे सुनने वाले को बाँध ही लेती थी। उन्होंने फिल्मी गीतों के अलावा भक्ति गीत, गजल आदि भी गाए। गायकों और संगीतकारों पर प्राय: यह आरोप लगाया जाता है कि वे संगीत के चक्कर में शब्दों को पीछे धकेल देते हैं या उच्चारण के मामले में समझौता करते हैं। लेकिन शमशाद बेगम के गानों में यह तोहमत कभी नहीं लगाई जा सकी। उस दौर के बेहद मशहूर संगीतकार ओपी नैयर  ने तो एक बार यहाँ तक कहा था कि शमशाद बेगम की आवाज मंदिर की घंटी की तरह स्पष्ट और मधुर है।
सीआईडी फिल्म में लोकधुनों पर आधारित गीत ‘‘ बूझ मेरा क्या नाम रे ’’ गाने वाली शमशाद ने संगीतकार सी रामचन्द्रन के लिए ‘‘ आना मेरी जान. संडे के संडे ’’ जैसा पश्चिमी धुनों पर आधारित गाना भी गाया, जो उनकी आवाज की विविधता की बानगी पेश करते हैं। इस गाने को हिन्दी फिल्मों में पश्चिमी धुनों पर बने शुरुआती गानों में शुमार किया जाता है। समीक्षकों के अनुसार शमशाद बेगम की आवाज में एक अलग ही वजन था, जो कई मायने में पुरुष गायकों तक पर भारी पड़ता थी। मिसाल के तौर पर रेशमी आवाज के धनी तलत महमूद के साथ गाए गए युगल गीतों पर स्पष्ट तौर पर शमशाद बेगम की आवाज अधिक वजनदार साबित होती है।
अमृतसर में 14 अप्रैल 1919 में जन्मी शमशाद बेगम उस दौर के सुपर स्टार गायक कुंदनलाल सहगल की जबरदस्त फैन थी। एक साक्षात्कार में शमशाद बेगम ने बताया कि उन्होंने के एल सहगल अभिनीत देवदास फिल्म 14 बार देखी थी। उन्होंने सारंगी के उस्ताद हुसैन बख्शवाले साहेब से संगीत की तालीम ली। शमशाद बेगम ने अपने गायन उनकी सुरीली आवाज ने उस्ताद बख्शवाले साहब का ध्यान खींचा और उन्होंने शमशाद बेगम को अपनी शागिर्दी में ले लिया। लाहौर में रहने वाले संगीतकार गुलाम हैदर को उनकी विशिष्ट आवाज भा गई और उन्होंने उनकी आवाज का इस्तेमाल %खजांची% (1941) और %खानदान% (1942) जैसी फिल्मों में किया। गुलाम हैदर 1944 में मुंबई आ गए और शमशाद बेगम भी उनके दल में शामिल होकर मायानगरी पहुँच गई। महबूब खान उस समय हुमाँयू (1944) नामक फिल्म बना रहे थे। इसमें संगीतकार के तौर पर गुलाम हैदर को रखा गया। हैदर ने शमशाद बेगम की आवाज का बखूबी इस्तेमाल किया। उस जमाने में अमीरबाई कर्नाटकी शीर्ष पार्श्व गायिका हुआ करती थीं। शमशाद बेगम के रूप में बॉलीवुड में नई आवाज आने के बाद संगीतकारों में शमशाद बेगम की आवाज का इस्तेमाल करने की होड़-सी मच गई। ओपी नैयर, नौशाद, एसडी बर्मन जैसे संगीतकारों ने अपने करियर की शुरूआत में उनकी आवाज का जबर्दस्त इस्तेमाल किया और एक से बढ़कर एक सदाबहार गाने दिए।की शुरुआत रेडियो से की। 1937 में उन्होंने लाहौर रेडियो पर पहला गीत पेश किया। उस दौर में उन्होंने पेशावर, लाहौर और दिल्ली रेडियो स्टेशन पर गाने गाए। शुरुआती दौर में लाहौर में निर्मित फिल्मों खजांची और खानदान में गाने गाए। वह अंतत: 1944 में बंबई आ गईं। मुंबई में शमशाद ने नौशाद अली, राम गांगुली, एसडी बर्मन, सी रामचन्द्रन, खेमचंद प्रकाश और ओपी नैयर  जैसे तमाम संगीतकारों के लिए गाने गाए। इनमें भी नौशाद और नैयर  के साथ उनका तालमेल कुछ खास रहा क्योंकि इन दोनों संगीतकारों ने शमशाद बेगम की आवाज में जितनी भी विशिष्टताएँ छिपी थी उनका भरपूर प्रयोग करते हुए एक से एक लोकप्रिय गीत दिए।
नौशाद के संगीत पर शमशाद बेगम के जो गीत लोकप्रिय हुए उनमें ओ लागी लागी (आन), धड़ककर मेरा दिल (बाबुल), तेरी महफिल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे (मुगले आजम) और होली आई रे कन्हाई (मदर इंडिया) शामिल हैं। लोकधुनों और पश्चिमी संगीत का अद्भुत तालमेल करने वाले संगीतकार ओपी नैयर  के संगीत निर्देशन में तो शमशाद बेगम ने मानो अपने सातों सुरों के इंद्रधुनष का जादू बिखेर दिया है। इन गानों में ले के पहला-पहला प्यार (सीआईडी), कभी आर कभी पार (आरपार), कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना (सीआईडी), कजरा मोहब्ब्त वाला (किस्मत), मेरी नींदों में तुम मेरे ख्वाबो में तुम (नया अंदाज) ऐसे गीत हैं जो सुनने वाले को गुनगुनाने के लिए मजबूर कर देते हैं। करीब तीन दशक तक हिन्दी फिल्मों में अपनी आवाज का जादू बिखरने के बाद शमशाद बेगम ने धीरे-धीरे पार्श्व गायन के क्षेत्र से अपने को दूर कर लिया। समय का पहिया घूमते घूमते अब रिमिक्सिंग के युग में आ गया है। आज के दौर में भी शमशाद के गीतों का जादू कम नहीं हुआ क्योंकि उनके कई गानों को आधुनिक गायकों एवं संगीतकारों ने रीमिक्स कर परोसा और नई बोतल में पुरानी शराब के सुरूर में नई पीढ़ी थिरकती नजर आई।शमशाद बेगम को सन 2009 में भारत सरकार द्वारा कला के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
   डॉ. महेश परिमल

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