सोमवार, 17 जून 2013

जन्मभूमि से दूर होनी चाहिए कर्मभूमि

डॉ. महेश परिमल
माँ पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है, पर पिता पर लिखना आसान नहीं। माँ भावना का दूसरा रूप होती हैं। पिता के पास आँसुओं को जज्ब करने की शक्ति होती है। पिता एक खामोश कविता की तरह होते हैं, जिसमें भावनाएँ नहीं, बल्कि आवरणयुक्त कठोरता होती है। संतानें इसी कठोरता से डरती हैं, पर जो इस कठोरता के उस पार आँसुओं के सैलाब को छिपाकर रखने वाले व्यक्ति को देख पाते हैं, वे पिता की महानता को स्वीकार कर लेते हैं। पिता में माँ की ममता होती है। इसे वे अच्छी तरह से समझते हैं, जो माँ के घने साये से महरुम हो जाते हैं। तब पिता ही अपना ममत्व उँड़ेलकर संतानों को सबल देते हैं। पिता एक निर्विकार मानव, जिसमें संवेदनाएँ तो कूट-कूट कर भरी होती हंै, पर उन संवेदनाओं को महसूस करना बहुत ही मुश्किल है। पिता का हृदय इतना विशाल होता है कि उसमें पूरा विश्व समा सकता है। खुले आकाश सा व्यक्तित्व छिपाए पिता सभी को स्वच्छंद विचरने की अनुमति देते हैं। जीवन की विषमताओं से सचेत करने वाले होते हैं पिता। पिता की खामोशी में सब कुछ समाहित होता है। पिता को रोते किसी ने नहीं देखा होगा। हर परिस्थिति में उन्हें अविचल होते हैं पिता। मैंने अपने बढ़ई पिता को हमेशा एक मजदूर के रूप में ही देखा। पर जीवन को बहुत गहरे तक जीया था उन्होंने। इसका अंदाजा तब हुआ, जब उन्होंने जीवन का फलसफा सरल शब्दों में समझाया।
पिता से जुड़ी एक घटना याद आ रही है। 36 वर्ष पहले वे जीवन के अंतिम दिनों की ओर थे। पीड़ा की एक अंतहीन यात्रा शुरू हो चुकी थी। उन्हें समझ में आ गया था कि वे अब इस यात्रा के अंतिम पड़ाव पर हैं। यहाँ आकर इंसान अपने अनुभवों के मोतियों को बाँटना चाहता है। पर उसे लेने के लिए लोग कितने आतुर होते हैं। उनकी वेदना उनके शब्दों में झलकती थी। अंतिम साँस लेने के पाँच दिन पहले की घटना है। उन्हें हाथ-पाँव में तेज दर्द था। रात में उनकी कराह सुनकर मैंने तेल में लहसुन डालकर गर्म किया और उस तेल से हाथ-पाँव की मालिश की। उन्हें कुछ राहत मिली। तब उन्होंने मुझे जिंदगी का फलसफा समझाया। मैं हतप्रभ था! उन्होंने कहा-जीवन में यदि सफल होना है, तो अपनी जन्मभूमि से दूर रहना। इंसान अपनी जन्मभूमि से जितना अधिक दूर होगा, उतना ही सफल होगा।
आज इतने वर्षो बाद पिता की इस बात पर सोचता हूँ तो उन्हें अक्षरश: सही पाता हॅँू। जन्मभूमि से कर्मभूमि हमेशा दूर होनी ही चाहिए। मेरे सामने अनेक ऐसे उदाहरण हंै। आप भी अपने आसपास सफल व्यक्तियों कों देख लें, सभी अपनी जन्मभूमि से दूर ही होंगे। इन सभी ने अपना मुकाम जन्मभूमि से दूर ही बनाया और सफलता के झंडे गाड़े। जन्मभूमि से दूर होकर इंसान अपनी अलग पहचान बनाता है। यहाँ उसके साथ केवल उसकी प्रतिभा होती है। जिसके बल पर वह नए शहर में नए लोगों के बीच नई चुनौतियों का सामना करता है। यहाँ न तो पिता का नाम काम आता है न खानदान का। सब कुछ अपने स्वभाव पर निर्भर होता है। रोज चुनौतियों का सवेरा होता है। कुछ ऐसा ही सफल हस्तियों के साथ भी हुआ। सोचो, पिता ने अपनी दूरदृष्टि से कितनी महत्वपूर्ण बात कही थी। आज अपनी जन्मभूमि से 750 किलोमीटर दूर हूँ। जब भी पिता के फलसफे पर सोचता हूँ तो लगता है, आज जितना भी सफल हो पाया हूँ क्या अपनी जन्मभूमि में रहकर उतना सफल हो पाता? आज आप भी अपने भीतर उस खामोश पिता से पूछ ही लो कि उनकी खामोश कविता जीवन को किस तरह का संदेश देती है? घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध मिसाल यूं ही नहीं गढ़ी गई होगी? अनुभवों की आँच में तपे मुहावरों की नजर दूर तक देखती है?

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मैंने उन्हें जब भी देखा,
सरोवर-सा शांत देखा
मुश्किलों में भी वे
कभी उदास नहीं होते
खामोश कविता से लगते
सर पर प्यार भरा हाथ ही
हमें देता है हौसला
उनके साथ रहने से मिलती है ऊज्र
रोज चरणस्पर्श प्रणाम पर
आशीषों का सागर लहराया
पिता को याद करते हुए
भर आईं हैं आँखें
पिता होते हैं बरगद की छाँव
संघर्ष की तेज धूप का आश्रय
इस सत्य से अलग न होना
क्योंकि
पुत्र भी एक दिन
पिता बन कर
इसी सत्य को जिएगा

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बचपन में देखा है कई बार
जब भाई को घर आने में
हो जाती थी देर
काली रात में
पिता पैरों से नापते थे
समय की दूरी
माथे पर उभर आती थी
कुछ लकीरें
आक्रोश रहता था
चेहरे पर
जो बंद मुट्ठी में
कभी -कभी कैद हो जाता था
भाई के आते ही
ये सारी चीजें उड़ जाती थी
कपूर की तरह
और काँपते होंठों पर रहता था
केवल एक प्रश्न -
तू ठीक तो है ना ?
आज बुजुर्ग पिता लाचार हैं
बदलती जीवनशैली में
कुछ बोल नहीं सकते
पर बेटे से मुलाकात होते ही
अब भी आँखों में तैरता है प्रश्न
तू ठीक तो है ना ?

डॉ महेश परिमल

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