शुक्रवार, 21 जून 2013

आडवाणी के राजनैतिक सूर्य का अवसान

डॉ. महेश परिमल
भाजपा के सभी प्रमुख पदों से इस्तीफा देकर लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी बीमारी को सिद्ध कर दिया है। इससे यही संदेश जाता है कि वे अब किसी भी तरह से पार्टी से जुड़े नहीं रहना चाहते। वे अब पार्टी के संस्थापकों का हवाला देते हुए कह रहे हैं कि अब पार्टी वैसी नहीं रही। इसलिए उन्हें पार्टी के सभी तीनों प्रमुख पदों से इस्तीफा दे देना चाहिए। ऐसा कहते हुए वे स्वयं को आरोपों से मुक्त नहीं कर सकते। क्या गोवा सम्मेलन के पहले पार्टी में सभी मूल्य सुरक्षित थे। अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी, वे नहीं आए और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी के चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। यह उन्हें रास नहीं आया। इस उम्र में भी वे अपने भीतर प्रधानमंत्री बनने की लालसा को दबा नहीं पा रहे हैं। क्या इसे पद लोलुपता की संज्ञा नहीं दी जा सकती? अच्छा होता यदि वे स्वयं आगे बढ़कर नरेंद्र मोदी की ताजपोशी करते, तो शायद मोदी और भी अधिक उदारवादी बन जाते। वे ही प्रधानमंत्री पद के लिए उनका नाम आगे बढ़ाते। पर ऐसा हो नहीं पाया। आज आडवाणी की दृष्टि में पार्टी अब वैसी नहीं रही। इतने वर्षो तक प्रमुख पदों पर रहते हुए क्या वे पार्टी को अपनी तरह से नहीं बना पाए? आज जब उनके राजनैतिक जीवन का सूर्य अस्ताचल की ओर है, तब उन्हें सब कुछ याद आ रहा है। शायद उन्हें अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि विकास सदैव विनाश के रास्ते ही आता है। जब तक खंडहर को गिराया नहीं जाएगा, तब तक उस स्थान पर नई इमारत तैयार नहीं की जा सकती। गोवा में भाजपा को सिंह तो मिल गया, पर उसने अपना गढ़ खो दिया है।
अब तक भाजपा नेता यह दावा करते आए हैं कि भाजपा एक अलग ही तरह की राजनैतिक पार्टी है। गोवा में भाजपा के नेताओं ने मिलकर जो कुछ किया, उसे देखकर तो उनके दावे की पोल खुलती दिखाई दे रही है। गोवा में नरेंद्र मोदी को चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति की घोषणा की गई। इसके पहले ही लालकृष्ण आडवाणी कोपभवन में जा बैठे। बीमार होने का बहाना बनाकर उन्होंने अपशकुन ही किया है। भाजपा के ही कई कार्यकर्ताओं ने उनके दिल्ली निवास पर प्रदर्शन किया। इस तरह का प्रदर्शन शायद ही कभी किसी के सामने हुआ हो। अपने ही लोग अपने ही नेता के खिलाफ खुलेआम नारे लगाएं। भाजपाध्यक्ष राजनाथ सिंह आडवाणी को मनाने में पूरी तरह से विफल साबित हुए। कुछ अन्य नेता भी नाराज हो गए हैं, कुछ अवसर की ताक में हैं। कुछ लगातार अनवरत विरोध के लिए ही पैदा हुए हैं, इसलिए उनका विरोध जारी ही रहेगा। छह महीने पहले की ही बात है, जब भाजपाध्यक्ष नीतिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। तब पार्टी में घमासान शुरू हो गया था। चारों तरफ यही चर्चा थी कि अब गडकरी के बाद कौन? ऐसे में गडकरी को इस्तीफा देना पड़ा और कमान संभाली कुशल नेतृत्व के धनी राजनाथ सिंह ने। राजनाथ सिंह का मुख्य टारगेट है 2014 का लोकसभा चुनाव। लेकिन आज भी वे अपनी तमाम शक्ति मोदी और आडवाणी के बीच सामंजस्य बिठाने में लगाते रहे हैं। गोवा सम्मेलन से यह बात भी उभरकर आई कि राजनाथ ¨सह ने अपनी तटस्थता वाली छवि को अक्षुण्ण नहीं रख पाए।
कांग्रेस अब तक भाजपा पर यह कटाक्ष करती रही है कि भाजपा नेता जब अपनी ही पार्टी को अनुशासित नहीं रख पा रहे हैं, तो देश को किस तरह से अनुशासित रख सकते हैं। अब यह कटाक्ष सही साबित हो रहा है। गोवा में जो कुछ हुआ, उससे ही संदेश जा रहा है कि जो नेता अपनी पार्टी को मजबूत बनाने के लिए दिल्ली से गोवा की यात्रा नहीं कर सकते, वे किस तरह से कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैेले देश की व्यवस्था देख पाएंगे। भाजपा ने यह भूल की कि चुनाव से पहले देश के प्रधानमंत्री का नाम आगे बढ़ाने में जल्दबाजी। इसके पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ। हां अटल जी को लेकर भाजपा ने चुनाव लड़ा था और जीतकर दिखाया भी था। तब अटल जी प्रधानमंत्री भी बने थे। इस बार इस तरह के हालात नहीं थे। भाजपा को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के बजाए यदि कांग्रेस द्वारा किए गए घोटाले, देश की दुरावस्था, नेताओं द्वारा किए जा रहे आचरण, मुद्रास्फीति आदि को मुद़दा बनाया जाता, तो कांग्रेस से नाराज जनता भाजपा के और करीब आ जाती। पर प्रधानमंत्री पद के लिए प्रत्याशी के नाम पर पार्टी में जिस तरह से बवाल हुआ, उससे पार्टी की छबि ही धूमिल हुई। प्रधानमंत्री तब आवश्यक है,जब पार्टी बहुमत में हो। उसके पहले तो कई मुद्दे हैं, जिनसे चुनाव जीता जा सकता है। ब्रिटेन की लोकशाही में पार्टी प्रमुख होती है, जिस पार्टी को बहुमत मिलता है, उसके सांसद अपना प्रधानमंत्री चुनते हैं। वहां पार्टी प्रमुख होती है, व्यक्ति नहीं। पार्टी को ही जनता भी सर्वोपरि मानती है।
गोवा के भूमि नरेंद्र मोदी के लिए हमेशा लकी साबित हुई है। सन 2002 में जब पणजी में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी, तब नरेंद्र मोदी पर गोधरा कांड की कालिख लगाई गई थी, तब हालात यह थे कि भाजपा केकई वरिष्ठ नेताओं के अलावा अटल जी ने भी उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए दबाव बना रहे थे, तब आडवाणी दीवार बनकर सबके सामने आ गए थे। उन्हीं ने मोदी की वकालत की। मोदी की कुर्सी बच गई। 2013 में इतिहास का पुनरावर्तन हुआ है। इस समय आडवाणी, सुषमा स्वराज जैसे नेता नरेंद्र मोदी की प्रगति में अवरोधक बने थे। पर राजनाथ सिंह ने अरुण जेटली से मिलकर मोदी विरोधी छावनी को परास्त कर मोदी का राज्याभिषेक किया। आडवाणी के लिए गोवा की कार्यकारिणी की बैठक वाटरलू युद्ध की तरह बना रहेगा। जिस पार्टी को जिन्होंने जन्म दिया, पाला-पोसा, जिसके वे गॉडफादर बने, उसी पार्टी ने उन्हें हाशिए पर धकेल दिया। इसके लिए उनकी पदलोलुपता ही जिम्मेदार है। यदि उन्होंने समय को परखते हुए अपनी व्यूह रचना तैयार की होती, तो शायद उनका गौरव भंग नहीं हुआ होता। गोवा में आडवाणी के राजनैतिक जीवन का सूर्यास्त हुआ है और नरेंद्र मोदी का उदय। सभी जानते हैं कि ऊगते सूर्य को हर कोई प्रणाम करता है। जो नेता अब तक आडवाणी की स्तुति करते अघाते नहीं थे, वे ही अब नरेंद्र मोदी के गुणगान करने लगेंगे, यह तय है। अब नरेंद्र मोदी के आसपास चापलूसों की जमात इकट्ठी होने लगेगी, यह भी तय है। हालांकि अभी तक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में सामने लाने की घोषणा नहीं की गई है, फिर भी चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्हें उस पद की दौड़ पर एक कदम आगे बढ़ा दिया गया है। अब यह तय माना जा रहा है कि आडवाणी के पराभव को पितामह के पराभव की संज्ञा दी जाए। भाजपा में अभी बहुत कुछ होना बाकी है।
डॉ. महेश परिमल

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