बुधवार, 24 जुलाई 2013

भ्रष्टाचार में उलझी मासूमों की अनुसनी चीखें

डॉ. महेश परिमल
सरकार ने मिड डे मील योजना एक अच्छी भावना के साथ शुरू की। पर अधिकारियों की लापरवाही के कारणक कक यह योजना घोटालों की भेंट चढ़ गई। इस योजना के बुरे हश्र के लिए जितनी दोषी केंद्र सरकार है, उतनी ही राज्य सरकारें भी। आज यह योजना मासूमों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाली योजना बनकर रह गई है। भ्रष्ट सरकारी तंत्र ने इस योजना को रसातल में ले जाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। इस योजना से ही पता चल जाता है कि आज देश में भ्रष्टाचार कितना बढ़ गया है। दूसरी बड़ी बात यह है कि आज कोई भी घटना हो,्र उसका तुरंत ही राजनीतिकरण हो जाता है। नेताओं के बयान आने शुरू हो जाते हैं। जो आखिर में बंद, घेराव, अराजकता की स्थिति में आकर समाप्त होते हैं। अब भले ही इस दिशा में केंद्र और राज्य सरकारें कई नियम-कायदे बनाएं, पर सच तो यह है कि 23 मासूमों की मौत के बाद यदि ऐसा किया जा रहा है, तो यही समझा जाएगा कि सभी को शायद मौतों का इंतजार था। सच है कि कई नियम तो कई मौतों के बाद बनते हैं।
देश में स्कूल जाने वाले 12 करोड़ बच्चों को मध्याह्न भोजन देने की योजना पर अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं। सभी राज्यों में इस योजना का कमोबेश यही हाल है। इस योजना का लाभ अधिकांश गरीब वर्ग के छात्र ही उठाते हैं, इसलिए वे ही सबसे पहले इसके शिकार होते हैं। जिस देश में भुखमरी और कुपोषण का दौर लगातार जारी हो, वहां टीवी पर विज्ञापन दिखाकर लोगों को जागरूक नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर मध्याह्न भोजन को अमल में लाने के लिए जिस सरकारी चुस्ती की आवश्यकता होती है, वह भ्रष्ट अधिकारियों के चलते दिखाई नहीं देती। इस योजना ने कई सरकारी अधिकारियों को मालामाल कर दिया है। कई जगह तो इस बात का विरोध भी हुआ है कि शाकाहारी बच्चों को अंडा खिलाया गया। इस योजना का उद्भव सन 1960 में तमिलनाड़ में हुआ था। शालाओं में अधिक से अधिक बच्चे आएं, इसलिए तत्कालीन मुख्यमंत्री के. कामराज ने इस योजना की शुरुआत की थी। 1982 में एम.जी. रामचंद्रन की सरकार ने इसे पूरे राज्य में शुरू की। इसके बाद गुजरात और केरल में इस योजना को लागू किया गया। 1990-91 तक इस योजना को 12 राज्य अमल में ला चुके थे। 97-98 तक यह योजना पूरे देश में लागू हो गई। कितनी ही विदेशी एजेंसियों ने इस योजना के लिए सहायता दी। 2001 में सुप्रीमकोर्ट ने एक फैसले में इस योजना को पूरे देश में लागू करने के लिए कहा। इसके बाद से शुरू हो गया, इस योजना में घोटाले होना। इस योजना में हुए भ्रष्टाचार की शिकायतें अमूमन सभी राज्यों से आने लगी। इसमें सबसे अहम शिकायत यही होती है कि जो भोजन बच्चों को दिया जाता है, उसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं होती। जो अच्छा अनाज इसके लिए आवंटित किया जाता है, उसे कालाबाजारी में बाजार में बेच दिया जाता है। उसके बदले में निम्न स्तर का घटिया अनाज बच्चों को पकाकर खिलाया जाता है।
कर्नाटक के 33 लाख बच्चों के लिए मिड डे मिल की आपूर्ति के लिए 5 साल का कांट्रेक्ट क्रिस्टी फ्राइडग्राम इंडस्ट्री नामक कंपनी को 500 करोड़ रुपए में दिया गया था। इस कंपनी ने अपनी ही रसोई में भोजन तैयार करने के बदले तमिलनाड़ु से हलकी गुणवत्ता का अनाज खरीदकर बच्चों को देना शुरू कर दिया। इस खुराक को बच्चे अपने घर ले जाते और जानवरों को खिला देते। कांट्रेक्ट लेने वाली कंपनी ने कर्नाटक राज्य के वीमेन्स एंड चाइल्ड डेवलपमेंट विभाग के डायरेक्टर से लेकर चतुर्थ वर्ग कर्मचारियों को हफ्ता देना शुरू कर दिया। इसके अनुसार डायरेक्टर को हर महीने 20 लाख रुपए,डिफ्टी डायरेक्टर को 15 लाख रुपए मिलते थे।  जब कर्नाटक लोकायुक्त द्वारा पूरे मामले को सामने लाया, तो इस योजना का लाभ लेने वाले सभी 33 लाख बच्चों का डॉक्टरी परीक्षण किया गया, तो उसमे से 21 लाख बच्चो कुपोषण से पीड़ित मिले।
मध्याह्न भोजन योजना का एक उद्देश्य अंडे की खपत बढ़ाने और शाकाहारियों को मांसाहारी बनाने का प्रचार करना भी है। अंडे के उत्पादकों की नेशनल एग कोर्डिनेशन कमिटी नाम की संस्था सभी राज्यों के शिक्षा मंत्री से मिलती है और उन्हें मध्याह्न भोजन योजना मे बच्चों को उबले अंडे देना शुरू किया। शुरुआत में वे सप्ताह में दो अंडे देते थे, जिसे बाद में बढ़कार तीन कर दिया गया। आज की तारीख में भारत के 9 राज्यों में और दो केंद्र शासित प्रदेश में मध्याह्न भोजन योजना में अंडे परोसे जा रहे हैं। इस योजना के माध्यम से देश के करीब 2.18 करोड़ बच्चों को साल में 99 करोड़ के अंडे खिलाए जा रहे हैं। महाराष्ट्र सरकार ने 2005 से बच्चों को अंडे देना शुरू किया है। दूसरी ओर गुजरात और मध्यप्रदेश में इसका विरोध हो रहा है। इनका तर्क है कि जो अंडा दिया जा रहा है, वह पोषक न होकर रोग बढ़ाने वाला है। सरकार की अन्य कई योजनाओं की तरह मिड डे मिल योजना के अमल की जवाबदारी सरकारी अधिकारियों पर है। इसलिए वे इसमें भी अपना लाभ देख रहे हैँ। 2005 में उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर में फूड कापरेरेशन आफ इंडिया के गोदाम से आठ ट्रक चावल रवाना किए गए, जो दिल्ली के बाजार में बिकने के लिए आ गए। दिल्ली पुलिस ने छापा मारकर चावल जब्त किया था। 2009 में गुजरात के लिमड़ी तहसील में भी मध्याह्न भोजन योजना के अनाज में किया गया घोटाला सामने आया था। इस घोटाले में प्राथमिक शाला के तीन शिक्षकों ने विद्यार्थियों की अधिक उपस्थिति दर्ज कर 2.73 लाख रुपए कर घोटाला किया।
यदि पूरे देश में अनाज के नाम पर जितने भी भ्रष्टाचार के मामलों का सामने लाया जाए, तो इसमें मध्याह्न भोजन योजना के अनाज में की जा रही हेराफेरी का मामला सबसे आगे होगा। सरकार राशन के सस्ते अनाज बॉटने के बजाए उतनी राशि बैंक में सीधे जमा करने की योजना शुरू की है। इस तरह की योजना यदि मध्याह्न भोजन के लिए किया जाए, तो शायद इसके अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे। संभवत: भ्रष्टाचार पर भी लगाम कसी जा सके। मिड डे मिल योजना अधिकांश सरकारी स्कूलों में ही चल रही है। इसमें गरीब वर्ग के बच्चे ही होते हैं। इस योजना में सड़े हुए अनाज और बासी खाना परोसा जाता है, तो इसकी शिकायत यदि कोई गरीब करे, तो उसकी कोई सुनने वाला ही नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार इस योजना मे एक बच्चे के लिए तीन से सवा तीन रुपए दिए जाते हैं, इतनी कम राशि में पौष्टिक खुराक तो एक सपना ही है। इसी सपने को लेकर अधिकारी अपने स्वार्थ के सपने देखने लगते हैं। गरीब बच्चों का सपना भले ही पूरा न होता हो, पर सच तो यह है कि शिक्षा मंत्री से लेकर शिक्षा अधिकारियों का सपना अवश्य पूरा हो जाता है। यह देश के लिए एक विडम्बना ही है कि बच्चों में पढ़ाई का लालच देने के लिए उन्हें दोपहर का भोजन स्कूल में दिए जाने की योजना सरकार ने बनाई है। यदि सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर बेहतर हो, तो फिर बच्चे अन्य स्कूलों की तरफ देखें ही क्यों? इस बात को सरकार को समझने में न जाने कितने साल लगेंगे। अभी तो यही सच है कि मध्याह्न भोजन योजना से बच्चों को कोई लाभ हुआ हो या न हो, पर इससे कई अधिकारी पल गए, कई तर गए और कई तरने वाले हैं।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 22 जुलाई 2013

एक महीने बाद भी नहीं बदले हालात


हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख

शनिवार, 20 जुलाई 2013

डीजिटल ड्रेगन का बढ़ता जाल

डॉ. महेश परिमल
आज हर कोई कंप्यूटर या मोबाइल से इस तरह से जुड़ गया है, मानो उससे बढ़कर बेहतर चीज दुनिया में कोई है ही नहीं। लोग दिन भर कभी कंप्यूटर तो कभी अपने मोबाइल से चिपके रहते हैं। इसमें उनका कितना वक्त बरबाद होता हे, इसका आभास उन्हें अभी नहीं है, पर पानी जब सर से ऊपर निकल जाएगा, तब शायद समझ में आ जाए। कंप्यूटर तो शायद कुछ लोगों के पास है, पर मोबाइल जिस तरह से एक नशे के रूप में हमारे सामने आया है, उससे यही लगता है कि आज के युवाओं के पास अब कोई काम ही नहीं बचा। एक शोध से पता चला है कि दिन भर कंप्यूटर और मोबाइल के उपयोग से अंगूठा और पंजों में पीड़ा होती है, माऊस के उपयोग से भी स्नायु में दबाव बढ़ रहा है। वे भी अब जवाब देने लगी हैं। इन दो चीजों के दुष्परिणाम हमें अभी भले ही नजर न आएं, पर यह भयानक सच जब भी हमारे सामने आएगा, हमें चौंकाए बिना नहीं रहेगा।
इंटरनेट का उपयोग दिनों-दिन बढ़ रहा है। मोबाइल, टेबलेट समेत कई गेजेट्स के कारण लोग घंटों उसमें अपना दिमाग लगाते रहते हैं। अब तो हाथ के पंजे में पूरा विश्व समा चुका है। एक तरफ इसी इंटरनेट ने लोगों को काफी करीब ला दिया है, तो दूसरी तरफ उसने हमें संकुचित कर दिया है। कई सामाजिक समस्याएं उसने हमें परोस दी हैं। स्वास्थ्य संबंधी कई बीमारियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं। जो इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, वे सामान्य रूप से इस तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को नजरअंदाज कर देते हैं। पर लगातार इससे जुड़े रहने वालों की आंखें दर्द करने लगी हैं। कई लोगों ने इसका भी इलाज खोज निकाला है। अब वे कंप्यूटर, लेपटॉप, या फिर टेबलेट को आंखों से एक निश्चित दूरी पर रखने लगे हैं। पर मोबाइल को आंख से कितनी दूर रखेंगे आप? इससे सफिंग करने वाले आज किस दुविधा और पीड़ा से गुजर रहे हैं, इसे वे ही अच्छी तरह से जानते हैं। यहां समस्या डीजिटल लाइफ की है। यह डीजिटल लाइफ ऐसी हो गई है, मानों जानकारियों के समुद्र में डुबकी लगाकर जिंदगी तैरने लगी है। इस स्थिति को डीजिटल ड्रेगन की संज्ञा दी जा सकती है।
जो लोग लगातार कंप्यूटर के सामने बैठकर माऊस का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे शायद नहीं जानते कि वे प्रेटीपोज का शिकार हो रहे हैं। माऊस का उपयोग करते हुए जिस ऊंगली पर अधिक भार दिया जाता है, उससे जुड़ी नस दर्द करने लगती है। यही नहीं माऊस का उपयोग करने वाला हाथ ही दर्द करने लगा है। उसमें कमजोरी आने लगी है। कई बार ऐसा भी होता है कि कोई साइट न खुल रही हो, तो लोग अपना गुस्सा बेचारे माऊस पर उतारते हैं। इससे उनका पूरा पंजा ही दर्द करने लगता है। इससे बचने का एक ही तरीका है कि टच स्क्रीन वाले कंप्यूटर का इस्तेमाल किया जाए। ताकि माऊस के इस्तेमाल से बचा जा सके। जिस तरह से माऊस से प्रेडीपोज होता है, ठीक उसी तरह टेक्स्ट मैसेज करने से अंगूठे का जिस तरह से इस्तेमाल होता है, उससे टेनासायनोवीटीस होता है। इसके कारण अंगूठे के कोने वाले भाग में दर्द होता है। टेक्स्ट मैसेज भेजना आज एक फैशन हो गया है। यह जीवन के लिए आवश्यक भी है। तो फिर एक काम किया जा सकता है, यदि अंगूठे में दर्द हो, तो नमक वाले हल्के गर्म पानी में उसे डूबो कर रखें। यहां महत्वपूर्ण यह है कि टेक्स्ट मैसेज भेजना जहां आवश्यक हो, वहीं भेजा जाए, इसे भी एक सीमा तक ही स्वीकार करें, अधिक होने से यह एक समस्या के रूप में हमारे सामने होगा।
कई लोगों को कंप्यूटर पर गेम खेलना अच्छा लगता है। आजकल ऑनलाइन गेम एक मुनाफे के व्यापार की तरह फैल रहा है। पर इस गेम में जगमगाती लाइटें आंखों को नुकसान पहुंचा रही हैं। कुछ लोग मोबाइल हेडसेट इस तरह से पकड़ते हैं, जिससे उनके कान और कंधे दर्द करने लगते हैं। लोग वाहन चलाते समय मोबाइल को कांधे पर रखकर कान उससे सटा देते हैं, इससे वाहन भी चलता रहता है और बातचीत भी होती रहती है। यह स्थिति खतरनाक है, क्योंकि चालक का ध्यान पीछे आने वाले वाहनों की तरफ से हट जाता है, जो उसकी जान जोखिम में डाल देता है। ऐसे लोग अपनी स्नायु में पीड़ा होने की शिकायत अधिक करते हैं। इसके अलावा मोबाइल फोन के लगातार उपयोग से ब्रेन ट्यूमर होता है या नहीं, इस पर शोध जारी है। जल्द ही कुछ परिणाम सामने आएंगे। जो लेगा लगातार कंप्यूटर पर बैठे रहते हैं, उन्हें कंप्यूटर विजन सिंड्रोम की शिकायत हो सकती है। कंप्यूटर पर सतत काम करने वालों में से 50 से 69 प्रतिशत लोग इस सिंड्रोम से ग्रस्त हैं। हमारे बीच न जाने कितने ही लोग ऐसे हैं, जिन्हें इस सिंड्रोम की जानकारी तक नहीं है। पर जब शरीर टूटने लगता है, आंखें लाल होने लगती हैं, तब वे डॉक्टर के पास दौड़े चले जाते हैं। तब समझ में आता है कि उन्हें क्या हो गया है। कंप्यूटर जीवन की आवश्यकता है, डॉक्टर भी इसे समझते हैं। इसलिए वे अपने मरीजों को यह सलाह देते हैं कि कंप्यूटर पर लगातार काम न करें, बीच-बीच में आँखों पर पानी का छिड़काव करें। आंखों को राहत मिले, ऐसे उपाय भी करते रहना चाहिए। इसके अलावा जो लोग सतत मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं,उन्हें केंटोन फोन सिंड्रोम की बीमारी होती है। उन्हें हमेशा ऐसा लगता है कि उनका फोन बज रहा है। आपके आसपास भी ऐसे लोग होंगे ही, जो इस तरह की हरकतें करते हैं। कई लोगों के पास यदि एक मिसकॉल भी आ जाए, तो वे इसी चिंता में घुलते रहते हैं कि न जाने किसने फोन किया होगा। आवश्यक होगा, तभी तो किया होगा। उसे फोन किया जा या न किया जाए। ऐसे लोग हमेशा अपने सर पर हाथ रखकर स्वयं को अलर्ट बताना चाहते हैं, वास्तव में यह आज की अत्याधुनिक तकनीक से जुड़े एक सिंड्रोम की गिरफ्त में हैं।
ऐसे ही एक डिसऑर्डर का नाम है ‘फोमो’, यानी फीयर ऑफ मिसिंग आऊट। ऐसी  स्थिति पुरुषों के बजाए महिलाओं में अधिक देखी जाती है। यह बीमारी सीधे तौर पर मानसिक रूप से जुड़ी है। स्वयं किसी से पीछे न रह जाएँ, इस तरह का डर उन्हें हमेशा लगा रहता है, इसलिए वे स्वयं को असुरक्षित समझती हैं। इस असर उनकी कार्यक्षमता पर पड़ता है। वे निर्णय नहीं ले पातीं। उन्हें अपने सभी फैसले कयास लगते हैं। इन हालात में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि आज का युग प्रतिस्पर्धात्मक है, यह सच है, पर यदि हम थोड़े समय के लिए इस प्रतिस्पर्धा से स्वयं को दूर रखें, तो खुद को  सुकून महसूस होता । लोग आगे बढ़ते हैं, तो उन्हें बढ़ने दिया जाए, इस भाव के साथ आज की प्रतिस्पर्धा को देखा जाए, हमें यह महसूस होगा कि हम जो भी किया अच्छा किया। अनजाने में हम उन लोगों को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुए, जो वास्तव में आगे बढ़ने के काबिल हैं। हम बेवजह ही उनका रास्ता रोक रहे थे। अपने स्वास्थ को दाँव पर लगाकर आखिर हम किस तरह की सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं। कहा जाता है कि जब दांत मजबूत थे, तब चने खाने की हालत नहीं थी, आज चने खाने की स्थिति में हैं, तो दांतों ने काम करना बंद कर दिया है। कभी-कभी प्रतिस्पर्धा को एक दर्शक की भांति भी देखना चाहिए। हम हर प्रतियोगिता में भाग लेंगे, तो यह आवश्यक भी नहीं कि सभी में जीत हमारी ही होगी। इसलिए हार का सबक पहले सीख लिया जाए। तभी हम जीत को गंभीरता से लेना शुरू करेंगे।
आज डीजिटल का क्षेत्र लगातार व्यापक हो रहा है। इसके उपयोगकर्ताओं की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। आम जीवन में भी इसका दखल बढ़ता ही जा रहा है। पर इसके उपयोग में सावधानी भी हमें ही बरतनी होगी। नहीं तो यह सीधे हमारे स्वास्थ्य पर हमला कर देगा। इसलिए पहले हम अपने आसपास ऐसे लोगों को पहचानें, जो मोबाइल या फिर गेजेट्स को लेकर एक तरह से पागल हैं। उनका व्यवहार पर नजर डालें, कहीं उनमें आत्मविश्वास की कमी तो नहीं। क्या वे लोगों से आंख मिलाकर बात कर  सकते हैं। फोन आते ही क्या वे सबके सामने बात कर लेते हैं, या फिर सबसे दूर चले जाते हैं। उनमें चिंता का भाव लगातार तो नहीं रहता। वे खुलकर बात करते हैं या नहीं। ें हम उनसे अधिक पूछताछ कर उन्हें डिस्टर्ब तो नहीं कर रहे हैं। वे कितने खुश हैं और कितने दु:खी? मोबाइल या कंप्यूटर का न होना कहीं उन्हें पागल तो नहीं बना देता?  बच्चों से उनका व्यवहार कैसा है? इन बातों पर आप गौर करेंगे, तो हमें कई ऐसे मरीज मिल जाएंगे, तो वास्तव में डीजिटल ड्रेगन के जाल में उलझ गए हैं। उन्हें इससे निकालना होगा।
  डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

एक महीने बाद भी हालात में बदलाव नहीं

डॉ. महेश परिमल
उत्तराखंड में हुई तबाही को एक महीना हो गया। आंखों के सामने से अभी तक तबाही के वे मंजर नहीं हट पाए हें। पवित्रधाम की यात्रा हजारों लोगों के लिए अंतिम यात्रा बनकर रह गई। ऐसी अंतिम यात्रा जिमसें उनके साथ उनका कोई अपना नहीं था। सरकार ने भी घोषणा कर दी है कि अब उन लापता लोगों को मृत मान लिया जाएगा। ठीक  भी है, एक महीने तक कोई भूखा-प्यासा नहीं रह सकता। पर जिंदगी भी न जाने कब किस रूप में मौत को भी मात दे सकती है। कुछ लोगों की जिंदगी ने मौत को मात दे भी दी हो, तो उनके नाम अब मृतकों की सूची में ही मिलेंगे। यह विडम्बना है कि अभी तक केदारनाथ में कितने यात्रियों की मौत हुई है, यह किसी को नहीं मालूम। कई प्रश्न ऐसे हैं, जो एक महीने बाद भी अनुत्तरित हैं।
उत्तराखंड में आज हालत यह है कि लोग अपने स्वजनों के पासपोर्ट फोटो लेकर दर-दर भटक रहे हैं। कहीं से कुछ तो सुराग मिल जाए अपनों का। शासन से इस दिशा में उदारता दिखाते हुए लापता लोगों की संख्या एक हजार से बढ़ाकर चार हजार कर दी है। जबकि त्रासदी को देखते हुए यही माना जा रहा है कि वहां करीब 15 हजार से अधिक लोग अभी भी लापता हैं। एफआईआर के अनुसार अभी भी 4 हजार लोग लापता हैं और 11 हजार 600 लोग जीवित हैं या मौत की भेंट चढ़ गए हैं, यह स्पष्ट नहीं है। पिछले 17 जून को केदारनाथ पहुंचने वाले यात्रियों को जब यह सूचना दी गई कि मौसम खराब हो रहा है, यात्री तुरंत सुरक्षित स्थानों पर पहुंच जाएं। पर लोगों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया था। कुछ लोग जो उत्तराखंड के मौसम के जानकार थे, उन्होंने मौसम विभाग की इस चेतावनी को गंभीरता से लिया। 17 जून को ही मृत्यु का आंकड़ा 60 था, जो 18 को 100 हो गया। आठ दिनों के अंदर ही ये आंकड़े दस हजार तक पहुंच गए, ऐसा चर्चा में आया। इस पूरे घटनाक्रम में उत्तराखंड सरकार की लापरवाही और अव्यवस्था सामने आई। लोग चीखते-चिल्लाते रहे, पर उन्हें कोई मददगार नहीं मिला। अलबत्त्ता लूटने वाले लोग अपना काम करते रहे।
पवित्र केदारधाम मंदिर के परिसर में शव ही शव दिखाई दे रहे थे। इस दृश्य को जिसने भी देखा, कंपकंपाकर रह गया। चार धाम की इस यात्रा में आए कई श्रद्धालु पानी में ही बह गए और पहुंच गए, ऐसे स्थान पर, जहां से आना संभव नहीं। केदारनाथ में भले ही इसे प्राकृतिक आपदा माना जाए, पर उसके बाद जो कुछ हुआ, उसे अव्यवस्था, वचाब की कार्यवाही, राहत सामग्री का वितरण आदि में इस अव्यवस्था का खुला नजारा देखने में आया। एक महीने बाद भी चार धाम की यात्रा का मार्ग टूटा हुआ ही है। यात्रा के मार्ग पर आने वाले ग्रामों की स्थिति बहुत ही खराब है। देशभर से आई राहत सामग्री तलहटी में पड़ी सड़ रही है। इंतजार करते-करते ट्रक वापस चले गए। इस दौरान मीडिया ने कोने-कोने की खबर दिखाकर सराहनीय काम किया है। देखा जाए, तो एक तरह से मीडिया ने उत्तराखंड की अव्यवस्था की पोल ही खोल दी है। पहले तो इसी उत्तराखंड की सरकार ने राहत सामग्री के वितरण और सेना की मदद के लिए आना-कानी की थी। पर उसे बाद में समझ में आया कि इसके बिना उद्धार संभव नहीं, इसलिए बाद में उसे झुकना पड़ा।
तबाही का एक नजारा देखो कि एक पूरा गांव ही विधवा हो गया। यही नहीं जो लोग प्रकृति के इस प्रकोप से बचकर आ गए हैं, वे सरकार को ही इसके लिए दोष दे रहे हैं। सेना की वे लोग भरपूर प्रशंसा कर रहे हैं, जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर लोगोंे को बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सेना ने पूरे 20 दिनों तक यह काम किया। यह उत्तराखंड सरकार की ही नासमझी थी कि वह प्रकृति के इस प्रकोप तो तुरंत नहीं समझ पाई, इसलिए उसने तीन दिन बाद ही सेना को मदद के लिए बुलाया। मौसम विभाग ने जो चेतावनी दी थी, उसे सरकार ने भी गंभीरता से नहीं लिया। यदि सरकार थोड़ी सी भी सावधान होती, तो प्रकृति का यह प्रकोप कुछ कम ही असर दिखाता। इसके बाद तो इस प्रकोप का जिस तरह से राजनीतिकरण हुआ, उससे लोगों को लगा कि ये नेता तबाही को भी राजनीति से जोड़ देते हैं। जिस तरह से आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला, उससे यही साबित होता है कि आज कल हमारे नेता केवल बयानबाजी ही कर रहे हैं। इस चक्कर में न तो राहत सामग्री समय पर पहुंच पाई, न ही सेवाभावी संस्थाएं अपना काम ठीक से कर पाई। राहत सामग्री की कोई कमी नहीं थी, फिर भी वह सही हाथों तक नहीं पहुंच पाई। केंद्र और राज्य सरकार को कोसने का अच्छा मौका मिल गया, हमारे नेताओं को। इससे उनका असली चेहरा भी सामने आ गया।
इस चारधाम की यात्रा का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह कठिन यात्रा वाला क्षेत्र अब टूरिस्ट स्पॉट में बदल गया है। लोग यहां अब घूमने के लिए आते हैं। ट्रेवल कंपनियां लोगों को तरह-तरह के लुभावने आफर दे देकर उन्हें हर तरह की सुविधाएं देने का वादा करने लगी। इस चक्कर में हुआ यह है कि सुविधाओं के विस्तार के लिए प्रकृति से छेड़छाड़ शुरू हो गई। इस तबाही में हर राज्य के लोग प्रभावित हुए है, इससे यही सिद्ध होता है कि कई लोगों का ध्येय केदारनाथ की यात्रा न होकर केवल घूमना ही था। इसलिए वे पर्वतीय प्रदेश उत्तराखंड पहुंच गए और प्रकृति का ग्रास बन गए। सरकार यहां पर इस बात के लिए चूक गई कि यात्रियों को किस तरह से सुरक्षित रखा जाए। जिस तरह से हज यात्रियों के लिए रेडियो बेल्ट बांधना आवश्यक होता है, ठीक उसी तरह यदि केदारनाथ पहुंचने वाले श्रद्धालुओं के लिए रेडियो बेल्ट बांधना अनिवार्य कर दिया जाता, तो कौन व्यक्ति कहां पर है, इसकी जानकारी कंप्यूटर पर हो जाती। एक व्यक्ति भी लापता नहीं होता। आश्यर्च इस बात का है कि इस आपदा में जो लोग बचकर आ गए हैं, वे अगले साल फिर वहीं जाने की तमन्ना रखते हैं। यह उनका जज्बा ही है, जो उन्हें फिर वहीं जाने के एि विवश कर रहा है।
इस बार तो यह यात्रा  पूरी तरह से बरबाद हो गई है। रास्ते टूट गए हैं। यात्री किसी तरह से ऊपर पहुंच भी जाएं, तो मंदिर में दर्शन की सुविधा नहीं मिल रही है। इस पर्वतीय प्रदेश में जो लोग ऊपर तक पहुंचते हैं, वे स्थानीय लोग हैं। सरकार अभी तो उनके लिए ही सुविधाएं उपलब्ध नहीं कर पाई हैं, तो फिर यात्रियों के बारे में किस तरह से सोचा जाए। पर इस बार केदारनाथ में जो कुछ देखने को मिला, उसे इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी कहा जा सकता है। यह ऐसी त्रासदी रही, जिसमें अपने अपनी ही आंखों के सामने मौत से जूझ रहे थे, मौत की नींद सो रहे थे, पानी के तेज बहाव में बह रहे थे। उनकी चीख-चिल्लाहट के बाद भी कुछ लोग इतने अधिक बेबस थे कि चाहकर भी उनके लिए सहायता का हाथ नहीं उठा सकते थे। लोग चीखते रहे, चिल्लाते रहे, मरते रहे, पर मौत ने जो खेल खेला, वह यही बताता है कि प्रकृति से कभी छेड़छाड़ मत करो, जिस दिन प्रकृति अपना बदला लेना चाहेगी, तो फिर कोई कुछ नहीं कर पाएगा। सब कुछ बिखरकर रह जाएगा। जिंदगी हार जाएगी, मौत को अपना तमाशा दिखाने का अवसर मिल जाएगा। इस बार प्रकृति ने हमें केदारनाथ से यह संदेश भेजा है, अगली बार कहीं और से भेजेगी। यह हमें ही समझना है कि उसके संदेश को हम किस तरह से लेते हैं।
    डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 15 जुलाई 2013

निष्‍प्राण कर गए प्राण

 


हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

ग्लोबल हुई भगवद् गीता

डॉ. महेश परिमल
पश्चिम के देशों में आज मैनेजमेंट की पुस्तकों और वेबसाइट्स पर भगवद् गीता के श्लोकों को समावेश करने का एक नया ही फैशन चल पड़ा है। अमेरिका की सभी उच्च बिजनेस स्कूलों के मैनेजर अपनी नेतृत्व क्षमता के विकास के लिए और काम के दबाव के बीच अपनी आत्मिक शक्ति के संचरण के लिए गीता का सहारा ले रहे हैं। इसके लिए कई लोग क्लासेस भी चला रहे हैं। कई भारतीय विद्वान अब इसी काम में लग गए हैं। भारत के सी.के. प्रह्लाद , रामचरण और विजय गोविंदराज जैसे बिजनेस गुरु आज अनेक मल्टीनेशनल कंपनियों के कंसल्टेंट हैं। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल , केलोग्स स्कूल ऑफ बिजनेस, मिशीगन यूनिवर्सिटी की रोस स्कूल ऑफ बिजनेस आदि के भारतीय मूल के प्रोफेसरों की काफी संख्या में नियुक्ैित की गई है। ये सभी भगवद् गीता के तत्वज्ञान के आधार पर शिक्षा दे रहे हैँ। यह सच्चई ही साबित कर रही है कि गीता का तत्वज्ञान आज भी प्रासंगिक है।
व्यापार और वाणिज्य विषय में दुनिया के ख्यातिप्राप्त मेगजीन के लेखक पेटे एंगार्डियो ने विस्तार ने बताया कि विश्व की ख्यातनाम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीए आखिर क्यों भगवद् गीता के प्रवचनों को सुनने के लिए मोटी रकम चुकाते हैं। कितने ही एक्जिक्यूटिव तो भगवद् गीता का ट्यूशन भी ले रहे हैं। ये सभी ईसाई धर्म के बुद्धिजीवी हैं, पर भगवद् गीता का पाठ कर रहे हैं। ताकि उसमें निहित अर्थो को समझ सकें। अब उन्हें पता चल गया है कि इसे ही पढ़कर जीवन सफल हो सकता है। वे इससे जीवन को सफल बनाने का गुर समझ रहे हैं। भारत के स्वामी पार्थसारथी वेदांत के विद्वान माने जाते हैं और अमेरिका में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एक्जिक्यूटिव लोगों के लिए वे भगवद् गीता का विशेष प्रवचन करते हैं। 85 वर्षीय स्वामी जी का प्रवचन सुनने के लिए कई अधिकारी फीस का भुगतान करते हैं। उन्होंने व्हाटर्न बिजनेस स्कूल में गीता के आधार पर तनाव पर अंकुश के लिए एक सेमिनार का आयोजन किया। न्यूयार्क में उन्होंने हेज फंड के मैनेजरों की एक बैठक को संबोधित किया। इसमें उन्होंने बेपनाह दौलत जमा करने की तृष्णा के साथ उसे किेस तरह से मैनेज कर आंतरिक सुख प्राप्त किया जाए, इस पर भी उनके प्रवचन को काफी सराहा गया। अपने प्रवचन में उन्होंने कहा-बिजनेस में सफल होने के लिए एकाग्रता, न टूटने वाली परंपरा और सहकार की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। इन तीन चीजों पर किस तरह से विजय प्राप्त की जाए, यह रहस्य हमें भगवद् गीता में समझाया गया है। बुद्धि के विकास के बिना मन और शरीर पर अकुश नहीं रखा जा सकता। बुद्धि का विकास करने के उपाय केवल भगवद् गीता  में ही जानने को मिलता है।
एक बार लेहमेन ब्रदर्स कंपनी की एक इकाई में स्वामी जी का प्रवचन रखा गया। वहां एक निवेशक ने उनसे प्रश्न किया कि स्वभाव से उग्र कर्मचारियों पर किस तरह से काम लिया जाए? तब स्वामी जी ने एक आसान सा उत्तर दिया कि उसे अपने दिमाग से निकाल दो, अपनी सफलता-विफलता के लिए आप ही जिम्मेदार हैं। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मैनेजरों में एक होड़ लगी है कि किस तरह से दूसरी कंपनियों को नीचा दिखाकर अपनी कंपनी को आगे बढ़ाया जाए। इस उत्तर उन्हें भगवद् गीता से ही मिल रहा है। भगवद् गीता  में युद्ध के समय जब अजरुन ने कौरवों की सेना में सभी अपनों को देखा, तब हथियार डाल दिए। अजरुन द्वारा युद्ध से इंकार किए जाने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें समझाया कि मोह-माया को त्यागकर स्थित प्रज्ञ बनो। अपने कर्तव्य को पूर्ण करो। उनका यही ज्ञान भगवद् गीता में समाहित है। मैनेजरों को इससे यह समझाया जा रहा है कि जो प्रज्ञावान नेता हैं, उन्हें भावनाओं से उठकर काम करना चाहिए। वही हैं, जो आपको उचित निर्णय लेने से रोकते हैं। अच्छे नेता उन्हें कहा जाएगा, जो नि:स्वार्थी होते हैं और आर्थिक लाभ या परिणाम की चिंता किए बिना ही अपना कर्तव्य निभाते हैं।
अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी की सीईओ जेकी इमेल्ट तो रामचरण नामक एक भारतीय मैनेजमेंट गुरु के पास भगवद् गीता का प्राइवेट ट्यूशन ले रही हैं। इस पर रामचरण कहते हैं कि भगवद् गीता में व्यक्ति के बजाए उद्देश्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आज की कापरेरेट लीडरशिप के लिए यह बात महत्वपूर्ण है कि जो कंपनी आज की स्पर्धा में प्रगति कर सर्वोच्च स्थान प्राप्त करना चाहती है, उसके लिए भारत का कर्म विज्ञान जानना बहुत ही आवश्यक है। यह कर्म विज्ञान उनके लिए मार्गदर्शक साबित हो सकता है। गीता में इसका समाधान बताया गया है। भारत के मैनेजमेंट गुरु इस तत्वज्ञान को कापरेरेट लीडर को समझा रहे हैं। अमेरिका की प्रसिद्ध टक स्कूल ऑफ बिजनेस के प्रोफेसर विज गोविंदराज ने मैनेजमेंट पर अनेक बेस्ट सेलर किताबें लिखी हैं। वे शेवरॉन कापरेरेशन और ऐसी ही कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कंसल्टेंट भी हैं। वे इन कंपनियों को अपना भूतकाल भूलकर अब नए सिरे से किस तरह से आगे बढ़ा जाए, इसकी शिक्षा भी दे रहे हैं। गोविंदराज कहते हैं कि उनके मैनेजमेंट के सिद्धांतों की बुनियाद कर्म की थ्योरी है। इस थ्योरी में वे कहते हैं कि कर्म यानी कार्य करने का सिद्धांत,हम आज जो कर्म कर रहे हैं, उसी पर निर्भर है हमारा भविष्य। नई शोध करने के लिए परिणाम की चिंता किए बिना ही कर्म करते रहना चाहिए। इसके पहले की मार्केटिंग थ्योरी उपभोक्ताओं को गलत दिशा में ले जाती थी। अब भारतीय तत्वज्ञान के कारण बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मार्केटिंग स्ट्रेटेजी में परिवर्तन आया है। अब ये कंपनी ग्राहकों का विश्वास प्राप्त करने के लिए सहभागिता का पाठ पढ़ रही हैं। केलोग्स बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर मोहनबीर साहनी स्वयं सिख हैं, इसके बाद भी अपनी वेबसाइट में भगवद् गीता के श्लोकों का इस्तेमाल अपने मैनेजमेंट के सिद्धातों को समझने के लिए करते हैं।
इस तरह से देखा जाए, तो अब भगवद् गीता पूरे विश्व में मैनेजमेंट के लिए काम आ रही है। अब तक भारतीय ही इसके गुण गाते नहीं अघाते थे, पर अब यह पूरे विश्व में समझी जा रही है। गीता के ज्ञान को कभी अनदेखा नहीं किया जा सकता। वह केवल मैनेजमेंट ही नहीं, बल्कि जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी कई तरह से अनुकरणीय है। हम भारतीय भले ही इसे समझ न पाएं हों, पर विदेशों में इसकी चर्चा है और गीता का थोड़ा सा भी ज्ञान रखने वाला वहां किसी न किसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कंसल्टेंट बन रहा है, यह बहुत बड़ी बात है। हमें इस पर गर्व होना चाहिए।
   डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 8 जुलाई 2013

सामंजस्य का अभाव:राहत सामग्री बरबाद

 डॉ. महेश परिमल
देश में जब कहीं भी प्राकृतिक आपदा आती है, तो लोगों में पीड़ितों को राहत देने की इच्छा होती है। इस दौरान कई सेवा भावी संस्थाएं काम में लग जाती हैं। कर्मचारियों के वेतन से एक दिन की रोजीे काट ली जाती है। जो पीड़ितों को पहुंचाई जाएगी, इसका भरोसा दिया जाता है। लोग अपने दु:ख भूलकर उन्हें थोड़ी-सी खुशी देने में लग जाते हैं। केदारनाथ में हुई तबाही के बाद लोगों ने खुले दिल से राहत देने की योजना बनाई। आवश्यक चीजें जमा की गई, ट्रकों से भेजा भी गए। खाद्य सामग्री के पेकेट भी भेज गए। पर सरकार की इस दिशा में कोई योजना न होने के कारण भेजी गई राहत सामग्री अब सड़ने लगी है। जब गुजरात में भूकम्प आया था, तब भी बोर्नविटा और दूध पावडर के ढेर हो गए थे, जो बाद में बेकार हो गए। इस तरह से अब केदारनाथ पहुंचने वाली सामग्री का हो रहा है। सामंजस्य की कमी के कारण चीजें बरबाद हो रही हैं। सरकार उन चीजों को सही हाथों तक पहुंचाने में नाकाम रही। राहत सामग्री लेकर गए ट्रक अब वापस आने लगे हैं। उन ट्रकों की सामग्री अब किसी काम की न रही। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर हमारी संवेदनाओं का क्या होगा? वैसे भी लोगों पर यह आरोप है कि उनकी संवेदनाएं मर गई है। यदि किसी भी तरह से वे कुछ देर के लिए जागी भी, तो उस दौरान हमारे द्वारा किए गए अच्छे कार्य का हश्र क्या होता है? क्या केवल इसलिए कि सरकार के पास राहत सामग्री पहुंचाने के लिए संसाधन की कमी है।
सामान्य रूप से प्राकृतिक आपदा के बाद दान का प्रवाह बढ़ जाता है। कोई धनराशि से तो कोई चीजों से सहायता करता है। लोगों की संवेदना दान के रूप में बाहर आती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि खाद्य सामग्री पर फंगस जम जाती है, जिसे बाद में फेंकना पड़ता है। आपदा के 15 दिनों तक खाद्य सामग्री के पेकेट की मांग रहती है। उसके बाद पीड़ित भ इसे लेने से इंकार कर देते हैं। राहत सामग्री की इस कीट में दूध पावडर, चाय, शक्कर, स्टोव, केरोसीन की बोतल, गद्दे, माचिस, साबुन आदि होते हैं। जहां इस तरह की आपदा आती है, वहां यदि महीने भर बाद जाओ, तो पता चलता है कि कई घरों में ढेरों गद्दे, स्टोव आदि होते हैं। यानी जिन्हें आवश्यकता नहीं भी होती, उन्हें वे चीजें जबर्दस्ती दे दी जाती हैं, ताकि सरकार यह बताए कि इतने लोगों तक राहत सामग्री पहुंची। यदि सही सामंजस्य हो, तो आपदाग्रस्त लोगों को सही समय पर सही सामग्री मिल जाती है। लोग यह सोचकर दान देते हैं कि पीड़ित एकदम से खाली हो गए हैं, उनके घर बरबाद हो गए हैं, वे लाचार हैं। इसलिए राहत सामग्री देने का सैलाब ही उमड़ पड़ता है। पर सही सामंजस्य के अभाव में राहत सामग्री सही लोगों तक सही समय पर नहीं पहुंच पाती। फिर इसका व्यापार शुरू हो जाता है। फिर सम्पन्न लोग भी पीड़ितों से इन चीजों को खरीदना शुरू कर देते हैं। लोग ऐसे ही कमाई शुरू कर देते हैं। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू बहुत ही विकराल है। इस दौरान ऐसे लोग भी सक्रिय हो जाते हैं, जिनका आपदा से कोई सीधा संबंध नहीं होता। वे आपदाग्रस्त क्षेत्रों में आने वाली सामग्री का कालाबाजार शुरू कर देते हैं। सरकार से सहायता के नाम परा सामग्री लेते हैं, फिर उसे पीड़ितों को ही बेचने लगते हैं।
राहत सामग्री देकर या फिर चंदा देकर लोग स्वयं को थोड़ी देर के लिए संतुष्ट समझते हैं कि हमने कुछ किया। पर यह सोचना हमारी भूल होगी। कितने ही सेवाभावी यह मानते हैं कि यदि हमने सामग्री के बजाए नगद राशि राहत कोष में दी होती, तो बेहतर होता। राशि सही रूप से सही लोगों को मिलती है। वैसे देखा जाए तो राशि का वितरण भी सही न हो, तो वह राशि अनजाने या फिर स्वार्थी हाथों में पहुंच जाती है। ऐसे अवसरों में बहुत सी स्वार्थी सेवाभावी संस्थाएं ऊग आती हैं, जो सरकार के साथ मिलकर राहत सामग्री बॉटने का काम करती हैं। पर ये संस्थाएं अपने स्वार्थ के कारण राहत सामग्री सही हाथों तक नहीं पहुंचाती। उत्तराखंड में यही हो रहा है। खाद्य वस्तुएं लेकर बउ़े-बड़े ट्रक देहरादून तक पहुंच गए, पर आगे पहाड़ की चढ़ाई नहीं चढ़ पाए। इन ट्रकों में अचार, पूड़ी आदि चीजें थीं। सामंजस्य के अभाव में यह चीजें सही हाथों तक नहीं पहुंच पाई और बेकार हो गई। ट्रक वापस आने लगे हैं। क्योंकि उस सामग्री को लेने के लिए कोई तैयार ही नहीं था। देहरादून के रास्तों पर आज भी कई चीजें बेकार पड़ी हैं। ये वे चीजें हैं, जो राहत सामग्री के रूप में उत्तराखंड तक पहुंची थी, पर वहां कोई लेने वाला नहीं था, इसलिए वापसी के समय उन चीजों को रास्ते में ही फेंक दिया गया। अब इन सामग्री को पशु भी नहीं खा रहे हैं। ये चीजें सड़कर अब बीमारी फैलाने का ही काम कर रहीं हैं।
वैसे देखा जाए, तो राहत सामग्री भेजने का समय अभी है। क्योंकि अब तक काफी लोगों को बचाया जा चुका है। अब लोग अपने घरों में या राहत शिविरों में लौटने लगे हैं। इस समय यदि उन्हें खाद्य सामग्री या फिर गद्दे, स्टोव, केरोसीन आदि मिल जाए, तो जिंदगी की गाड़ी फिर चलने लगे। उत्तराखंड सरकार अभी तो लोगों को निकालने में ही लगी है। सेना ने अब यह काम बंद कर दिया है। अब पूरी भीडृ राहत शिविरों में है, लोग घरों तक लौटने लगे हैं, तब राहत सामग्री अधिक उपयोगी साबित होगी। उत्तराखंड सरकार को केंद्र सरकार समेत कई संस्थाओं ने राहत राशि देने की घोषणा की है। अब यदि एक को-आर्डिनेशन सिस्टम तैयार किया जाए और दान में मिली राशि को आपदा पीड़ितों तक पहुंचाने का प्रयास किया जाए, तो यह प्रयास सराहनीय होगा। यह आज की आवश्यकता भी है। वैसे भी उत्तराखंड सरकार पर तमाम आरोप लग रहे हैं, क्योंकि उसने सही समय पर सही कदम नहीं उठाया। तबाही के तीन दिनों तक सरकार पर सोते रहने का आरोप है। सचमुच हुआ भी यही। अब यदि वहां के मुूख्यमंत्री यह कहें कि इस तबाही में मृतक संख्या कभी भी नहीं बताई जा सकती, तो वे शायद गलत नहीं हैं। पर भविष्य में इस तरह की आपदा से किस तरह से निपटा जाए, इसका भी उत्तर उनके पास नहीं है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

मानवता


बुधवार, 3 जुलाई 2013

महाराष्ट्र में दबे पांव आती अकाल की विभीषिका


डॉ. महेश परिमल

महाराष्ट्र अपनी समृद्धि के लिए जाना जाता है। इसी समृद्धि के पीछे छिपी है सच्चई अकाल की। जो दबे पांव इस प्रदेश में आ रही है। निश्चित रूप से यह पूरे देश को प्रभावित करेगी। पर महाराष्ट्र के नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी दिनचर्या में ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं देता कि वे राज्य में फैले अकाल से दु:खी हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मुम्बई की यात्रा की और कई नसीहतें देकर चले गए। अकाल ही नहीं, इस प्रदेश में राजनीतिक विवाद भी उतने ही गहरे हैं। कांग्रेस में गुटबाजी जारी है। अजीत पवार और राज ठाकरे के बीच प्रतिस्पर्धा जारी है। उधर राज ठाकरे-उद्धव ठाकरे के मिलने की भी खबरें पर्दे के पीछे चल रही है। क्ष्ेत्रीय दल इसका लाभ उठाने के लिए तत्पर हैं। यदा-कदा में अपनी राजनीतिक ताकत का परिचय देते रहते हैं। एनसीपी नेता अजीत पवार और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे के बीच राजनीतिक खींचतान महाराष्ट्र की राजनीति को डगमगा रही है। राज ठाकरे के काफिले पर हुए हमले के बाद राज ठाकरे के समर्थकों ने एनसीपी को निशाना बनाया था। इस तरह की घटनाओं का असर मुम्बईवासियों के रोजमर्रा के जीवन पर भी पड़ता है। दोनों युवा नेता अपने राजनीतिक पांव को मजबूत बना रहे हैं। अजीत पवार को मानो खुले हाथ मिल गए हैं, ऐसा उनकी कार्यशैली से लगता है।
महराष्ट्र में अकाल की समस्याओं के समाधान का किसी के पास समय नहीं है। कितने ही स्थान ऐसे हैं, जहां पानी की समस्या बनी हुई है। यहां दो-तीन महीने में ही स्थिति और भी भयावह हो जाएगी, यह तय है। यह अकाल कम बारिश के कारण हुआ है। अभी ठंड विदा ले रही है, गर्मी की दस्तक शुरू हो गई है। अब अकाल अपने विकराल रूप में सामने आएगा। अकाल से निपटने में महाराष्ट्र सरकार पूरी तरह से निष्फल साबित हुई है। संभावित अकाल के संबंध में तो साल भर पहले से ही निर्णय ले लिया जाना था। अकाल कोई अचानक नहीं आया। कम बारिश से अकाल की आशंका हो गई थी। यदि समय रहते निर्णय लिए जाते, तो इसका असर कम होता। पर अब बहुत ही देर हो चुकी है। विदर्भ में कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं। विदर्भ की हालत इस समय बहुत ही खराब है। स्थिति इतनी अधिक दारुण है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। सरकारी राहत इन क्षेत्रों में आ रही है, पर वह राहत जरुरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रही है। एक तरफ महाराष्ट्र बहुत ही समृद्ध है। वाणिज्य की राजधानी कहा जाता है इसे, मायानगरी भी कहा जाता है। लेकिन दूसरी ओर यहां अकाल अपने डैने पसार रहा है।
राहुल गांधी ने यहां आकर कांग्रेसियों की क्लास ली। क्या करना है, क्या नहीं करना है, कब करना है, पार्टी क्या चाहती है, यह उन्होंने समझाया। कांग्रेसियों ने उन्हें पूरे उत्साह के साथ सुना। सभी को यह लगा कि राहुल कोई जादू की छड़ी लेकर आएंगे, कुछ ऐसा करेंगे जिससे पार्टी में गुटबाजी खत्म हो जाए। कांग्रेस पिछले एक साल से अध्यक्ष को खोज रही है। पर सभी को संतुष्ट करने वाला अध्यक्ष नहीं मिला। राहुल गांधी कोई घोषणा करेंगे, यह भी सोचा था कांग्रेसियों ने, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। राहुल गांधी को पूरा जोर अनुशासन पर ही था। इधर राहुल गए, उधर गुटबाजी फिर उभरकर सामने आई। राहुल की सारी नसीहतें ताक पर रख दी गई। उनकी सलाह पर कांग्रेस की गुटबाजी ने ही पानी फेर दिया। वैसे महाराष्ट्र कांग्रेस में गुटबाजी कोई नई बात नहीं है। गुटबाजी के ये वाइरस भाजपा में भी फैल गए हैं। यहां कांग्रेस एनसीपी के बिना सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, तो भाजपा बिना शिवसेना के सरकार के सरकार नहीं बना सकती। उद्धव-राज के बीच वार्ता चल रही है। दोनों कभी भी मिल सकते हैं, इसकी चर्चा जोरों पर है। दोनों का राज्य में अपना महत्व है, अच्छी बात यह है कि दोनों ने अभी तक एक-दूसरे पर किसी तरह का कोई खुलेआम आक्षेप नहीं लगाया है, न ही किसी तरह का अनर्गल प्रलाप किया है। उद्धव स्वभाव से सौम्य हैं, तो राज थोड़े आक्रामक हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में राज ठाकरे ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है, वे अपना विस्तार भी कर रहे हैं। अजीत पवार पर एक साथी होने के नाते कांग्रेस उन्हें सावधान करते रहती है। पर इसका कोई असर उन पर होता दिखाई नहीं दे रहा है।
केंद्र में भी यूपीए के महत्वपूर्ण साथियों में एक एनसीपी भी है। शरद पवार की राजनीतिक इच्छाओं का सीधा लाभ अजीत पवार को भी मिल रहा है। भ्रष्टाचार के आक्षेपों के बीच हाल ही में उन्हें इस्तीफा दे दिया था, किंतु फिर उन्हें क्लीन चिट मिल गई, तब उन्होंने दुबारा शपथ ली। कांग्रेस-एनसीपी के बीच भी कम मतभेद नहीं है। दोनों ही यह मानते हैं कि वे अपने बल पर चुनाव जीत सकते हैं, और सरकार भी बना सकते हैं। उनके इस तरह के मतभेद और अतिआत्मविश्वास का पूरा लाभ भाजपा उठाना चाहती है। पर वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही है। असली तस्वीर अभी काफी धुंधली है, पर चुनाव आते-आते साफ हो जाएगी, यह तय है। अकाल को देखते हुए यदि राज्य के नेता आपसी मतभेद भुलाकर कुछ ऐसा करें, जिससे जनता को लगे कि सरकार उनके लिए भी कुछ कर रही है। पर इस तरह के संदेश अभी नहीं जा रहे हैं। गुटबाजी में फंसे नेता अपने में ही खुश हैं। चुनाव आते ही उन्हें नागरिकों की पीड़ा समझ में आएगी। अभी उनकी सारी संवेदनाएं सोयी हुई हैं। चुनाव की दस्तक उनकी संवेदनाओं को जगाने का काम करेगी। तब तक लोगों को राह देखनी ही होगी, भले ही अकाल अपने पूरे तेवर में आ जाए। जब सरकार जन हितार्थ फैसले लेने लगे, तब सोच लेना चाहिए कि चुनाव आने वाले हैं।
डॉ. महेश परिमल

बाघ के संरक्षण में मध्यप्रदेश फिसड्डी

डॉ. महेश परिमल
एक तरफ सुप्रीम कोर्ट गीर के जंगलों से बाघों को मध्यप्रदेश स्थानांतरित करने का आदेश दिया है, वही दूसरी तरफ पिछले एक साल में मध्यप्रदेश में एक दर्जन बाघों की मौत हुई है। बाघों के लगातार होते शिकार को देखते हुए पहले मध्यप्रदेश को ‘टाइगर स्टेट’ कहा जाता था, पर अब ‘टाइगर किलर स्टेट ’ कहा जाने लगा है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर बाघ सबसे अधिक कहां सुरक्षित हैं? मध्यप्रदेश सरकार को बाघों पर कम किंतु बाघों को देखने आने वाले पर्यटकों की चिंता अधिक है। इसलिए पर्यटकों के लिए लगातार सुविधाओं का विस्तार किया जा रहा है, पर बाघों का शिकार करने वाले अभी तक कानून की पहुंच से दूर हैं। उन्हें पकड़ने के लिए कोई तैयारी दिखाई नहीं दे रही है। गीर के जंगलों में बाघ भले ही सुरक्षित न हों, पर मध्यप्रदेश की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
पिछले एक साल में जिस तरह से शिकारियों द्वारा बाघों का शिकार किया गया है, उससे यही लगता है कि बाघों का शिकार इलेक्ट्रिक तार में करंट देकर किया गया है। सभी मामलों में शिकारी इतने अधिक चालाक दिखाई दिए कि वन विभाग का अमला मृत बाघ तक पहुंचे, इसके पहले बाघ के तमाम अवशेष गायब कर दिए जाते हैं। कई मामलों में ऐसा भी हुआ कि बाघ की लाश को पहचाना भी नहीं जा सके, इस तरह से उसके शरीर की चीर-फाड़ कर दी गई। इसलिए अब मध्यप्रदेश बाघों के शिकार के लिए स्वर्ग बन गया है। क्योंकि यह अब पूरी तरह से स्पष्ट हो चुका है कि मध्यप्रदेश में बाघों की सुरक्षा करने के लिए पर्याप्त संख्या में सुरक्षाकर्मी नही हैं। देश में कुल 40 टाइगर रिजर्व में से सबसे अधिक 5 मध्यप्रदेश में ही हैं।
अब यदि मध्यप्रदेश से बाहर निकलकर देश की बात करें, तो 2012 में समग्र भारत में 89 बाघों की मौत हुई। इसमें से 31 का शिकार हुआ है। 2013 को अभी साढ़े पांच महीने ही पूरे हुए हैं, इस बीच देश में 42 बाघों की मौत हुई है। इन 42 में 19 का शिकार हुआ है। इन 19 में से 12 का शिकार मध्यप्रदेश में ही हुआ है। पिछले एक दशक में मध्यप्रदेश के विविध अभयारण्यों में कुल 453 बाघ कम हुए हैं। इसमें बाघों की प्राकृतिक मौत के अलावा उनके शिकार भी शामिल हैं। इनमें से अभी तक केवल दो व्यक्तियों पर ही बाघ की हत्या के मामले में सजा हुई है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाघों की सुरक्षा को लेकर मध्यप्रदेश सरकार कितनी चिंतित है? आंकड़े सरकार की बेबसी को दर्शाते हैं। 2001-02 में मध्यप्रदेश के 6 नेशनल पार्क में कुल 710 बाघ थे। जब 2011 में गिनती हुई, तब बाघों की संख्या कम होकर 257 रह गई। अब इसमें लगातार कमी आ रही है। ‘वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया’ द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार देश में पिछले दो दशक में 986 बाघों की हत्या हुई है। ये आंकड़े केवल हत्या के हें। कई बाघ प्राकृतिक तौर पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इनकी संख्या भी काफी अधिक है। बाघों की मौत के  संबंध में मध्यप्रदेश पूरे देश में आगे है। यहां अभी तक बाघों के संरक्षण के लिए कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है और न ही बाघों की मौत के लिए जिम्मेदार लोगों पर किसी तरह की कठोर कार्रवाई हुई है। जो शिकारी पकड़े गए हैं, उन्हें भी मामूली सजा हुई है। इससे शिकारियों में किसी प्रकार की दहशत नहीं है। शिकारी बेखौफ हैं। सरकार निश्ंिचत। ऐसे में बाघों का संरक्षण कैसे हो?
 कुछ रोचक तथ्य 
- वर्ष 2004 को बाघों की संख्या 713 थी वर्तमान में बाघों की संख्या घटकर 245 हो गई है। इससे मप्र मे टाइगर स्टेट का दर्जा छिन गया। जहां कर्नाटक में बाघों की संख्या 235 से कम थी, उस राज्य में बाघों की संख्या बढकर 300 हो गई।
- वर्ष 2002 से 2012 जून तक 24 बाघों का शिकार हुआ, इसमें से केवल 2 प्रकरणों में अपराधियों को सजा हुई।
भोपाल में वर्ष 2012 में हुई बाघों की मौत को वन विभाग शिकार नहीं, बल्कि हादसा मान रहा है, वहीं कटनी रेंज में करंट लगाकर बाघों के शिकार की घटना को वन विभाग हादसा ही मान रहा है। इस मामले में वन विभाग का कहना है कि किसान ने सुअरों से खेत को बचाने के लिए करंट लगाया था उसकी चपेट में बाघ आ गया तो क्या किया जा सकता है। वर्ष 2012 में बाघों की हो रही आप्रकृतिक मौत के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मप्र शासन को को पत्र लिखकर  बाघ की आप्रकृतिक मौत की जांच एक हफ्ते में कर जिम्मेदार अधिकारियों जबावदेही तय करने के  निर्देश दिए थे। लेकिन बाघों की जांच एक हफ्ते में दूर छह माह में भी पूरी नहीं होती तो जबावदेही तय करने की बात बहुत दूर की बात है।
बाघों का संबंध चीन से
देश के किसी भी हिस्से में यदि बाघ का शिकार होता है, तो उसके पीछे चीन का संबंध निश्चित रूप से है। चीन में बाघ की मांग खूब है। आयुर्वेद में बाघ के अंगों का इस्तेमाल किया जाता है। चीन में बरसों से इसे आजमाया जा रहा है। चीन की कुल आबादी का 60 प्रतिशत आज भी आयुर्वेद से इलाज करता है। बाघ दवा के रूप में इस्तेमाल किए जाने से वहां बाघ की कमी हमेशा से ही रहती आई है। विश्व बाजार में बाघों की संख्या लगातार कम होने से अब मांग बढ़ने लगी है और आपूर्ति कम होने लगी है। इसलिए  चीन येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक बाघों के अंगों का आयात करने लगा है। चीन की आवश्यकता के अनुसार दुनियाभर में औसतन रोज ही एक बाघ की हत्या की जा रही है। बाघ के शरीर के दांत, नख, चमड़ी, हड्डी, आंख की पुतली, मूंछ, मस्तिष्क, प्रजनन अंग और उसके मल के बहुत से खरीददार हैं। जिस तरह से अनेक उपयोग में आने वाली गाय को कामधेनु कहा जाता है, ठीक उसी तरह बाघ की हत्या के बाद पूरा बाघ किसी कामधेनु से कम नहीं होता। उसके शरीर का एक-एक ीाग कीमती होता है। इतनी अधिक मात्रा में बाघ के अंगों का आयात करने के बाद भी चीन में अभी भी मांग बनी हुई है। चीन के कई इलाकों में टाइगर फार्म बने हुए हैं, जहां बाघों का लालन-पालन किया जाता है। पूरे विश्व के जंगलों में अभी 3500 बाघ नहीं हैं, किंतु चीन के कब्जे में करीब 5 हजार बाघ हैं। चीन के अपने जंगलों में 30 से अधिक बाघ नहीं हैं, चीन की दिलचस्पी बाघों के संरक्षण में कभी भी नहीं रही। उसके देश में बाघ नहीं हैं, पर वह विदेशों से बाघ आयात करने में सक्षम है। उसकी इस प्रवृत्ति के कारण पूरे विश्व में बाघों का शिकार हो रहा है। यदि सरकार सचमुच बाघों के संरक्षण के लिए गंभीर है, तो उसे बाघों के संरक्षण पर पूरा ध्यान देना होगा, यही नहीं बाघों की हत्या करने वाले को कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए, ताकि दूसरे उससे सबक सीखें। यह जान लीजिए कि बाघ हैं, तो हम हैं, हमारा पर्यावरण है। यदि बाघ नहीं रहे, तो हम भी नहीं रहेंगे। बाघ का इस्तेमाल जिस तरह से दवाओं के रूप में किया जा रहा है, उस पर तुरंत प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। ताकि बाघ के शिकार पर अंकुश लग सके।
बाघ की मौत: कब कितनी
वर्ष            हत्या
1994            95
  1995            121
1996            52
1997            88
1998            39
1999            81
2000            52
2001            72
2002            46
2003            38
2004            38
2005            46
2006            37
2007            27
2008            29
2009            32
2010            30
2011            13
2012            31
2013            19

   डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 1 जुलाई 2013

हरिभूमि और प्रभात खबर में प्रकाशित मेरा आलेख





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