बुधवार, 24 जुलाई 2013

भ्रष्टाचार में उलझी मासूमों की अनुसनी चीखें

डॉ. महेश परिमल
सरकार ने मिड डे मील योजना एक अच्छी भावना के साथ शुरू की। पर अधिकारियों की लापरवाही के कारणक कक यह योजना घोटालों की भेंट चढ़ गई। इस योजना के बुरे हश्र के लिए जितनी दोषी केंद्र सरकार है, उतनी ही राज्य सरकारें भी। आज यह योजना मासूमों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाली योजना बनकर रह गई है। भ्रष्ट सरकारी तंत्र ने इस योजना को रसातल में ले जाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। इस योजना से ही पता चल जाता है कि आज देश में भ्रष्टाचार कितना बढ़ गया है। दूसरी बड़ी बात यह है कि आज कोई भी घटना हो,्र उसका तुरंत ही राजनीतिकरण हो जाता है। नेताओं के बयान आने शुरू हो जाते हैं। जो आखिर में बंद, घेराव, अराजकता की स्थिति में आकर समाप्त होते हैं। अब भले ही इस दिशा में केंद्र और राज्य सरकारें कई नियम-कायदे बनाएं, पर सच तो यह है कि 23 मासूमों की मौत के बाद यदि ऐसा किया जा रहा है, तो यही समझा जाएगा कि सभी को शायद मौतों का इंतजार था। सच है कि कई नियम तो कई मौतों के बाद बनते हैं।
देश में स्कूल जाने वाले 12 करोड़ बच्चों को मध्याह्न भोजन देने की योजना पर अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं। सभी राज्यों में इस योजना का कमोबेश यही हाल है। इस योजना का लाभ अधिकांश गरीब वर्ग के छात्र ही उठाते हैं, इसलिए वे ही सबसे पहले इसके शिकार होते हैं। जिस देश में भुखमरी और कुपोषण का दौर लगातार जारी हो, वहां टीवी पर विज्ञापन दिखाकर लोगों को जागरूक नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर मध्याह्न भोजन को अमल में लाने के लिए जिस सरकारी चुस्ती की आवश्यकता होती है, वह भ्रष्ट अधिकारियों के चलते दिखाई नहीं देती। इस योजना ने कई सरकारी अधिकारियों को मालामाल कर दिया है। कई जगह तो इस बात का विरोध भी हुआ है कि शाकाहारी बच्चों को अंडा खिलाया गया। इस योजना का उद्भव सन 1960 में तमिलनाड़ में हुआ था। शालाओं में अधिक से अधिक बच्चे आएं, इसलिए तत्कालीन मुख्यमंत्री के. कामराज ने इस योजना की शुरुआत की थी। 1982 में एम.जी. रामचंद्रन की सरकार ने इसे पूरे राज्य में शुरू की। इसके बाद गुजरात और केरल में इस योजना को लागू किया गया। 1990-91 तक इस योजना को 12 राज्य अमल में ला चुके थे। 97-98 तक यह योजना पूरे देश में लागू हो गई। कितनी ही विदेशी एजेंसियों ने इस योजना के लिए सहायता दी। 2001 में सुप्रीमकोर्ट ने एक फैसले में इस योजना को पूरे देश में लागू करने के लिए कहा। इसके बाद से शुरू हो गया, इस योजना में घोटाले होना। इस योजना में हुए भ्रष्टाचार की शिकायतें अमूमन सभी राज्यों से आने लगी। इसमें सबसे अहम शिकायत यही होती है कि जो भोजन बच्चों को दिया जाता है, उसकी गुणवत्ता अच्छी नहीं होती। जो अच्छा अनाज इसके लिए आवंटित किया जाता है, उसे कालाबाजारी में बाजार में बेच दिया जाता है। उसके बदले में निम्न स्तर का घटिया अनाज बच्चों को पकाकर खिलाया जाता है।
कर्नाटक के 33 लाख बच्चों के लिए मिड डे मिल की आपूर्ति के लिए 5 साल का कांट्रेक्ट क्रिस्टी फ्राइडग्राम इंडस्ट्री नामक कंपनी को 500 करोड़ रुपए में दिया गया था। इस कंपनी ने अपनी ही रसोई में भोजन तैयार करने के बदले तमिलनाड़ु से हलकी गुणवत्ता का अनाज खरीदकर बच्चों को देना शुरू कर दिया। इस खुराक को बच्चे अपने घर ले जाते और जानवरों को खिला देते। कांट्रेक्ट लेने वाली कंपनी ने कर्नाटक राज्य के वीमेन्स एंड चाइल्ड डेवलपमेंट विभाग के डायरेक्टर से लेकर चतुर्थ वर्ग कर्मचारियों को हफ्ता देना शुरू कर दिया। इसके अनुसार डायरेक्टर को हर महीने 20 लाख रुपए,डिफ्टी डायरेक्टर को 15 लाख रुपए मिलते थे।  जब कर्नाटक लोकायुक्त द्वारा पूरे मामले को सामने लाया, तो इस योजना का लाभ लेने वाले सभी 33 लाख बच्चों का डॉक्टरी परीक्षण किया गया, तो उसमे से 21 लाख बच्चो कुपोषण से पीड़ित मिले।
मध्याह्न भोजन योजना का एक उद्देश्य अंडे की खपत बढ़ाने और शाकाहारियों को मांसाहारी बनाने का प्रचार करना भी है। अंडे के उत्पादकों की नेशनल एग कोर्डिनेशन कमिटी नाम की संस्था सभी राज्यों के शिक्षा मंत्री से मिलती है और उन्हें मध्याह्न भोजन योजना मे बच्चों को उबले अंडे देना शुरू किया। शुरुआत में वे सप्ताह में दो अंडे देते थे, जिसे बाद में बढ़कार तीन कर दिया गया। आज की तारीख में भारत के 9 राज्यों में और दो केंद्र शासित प्रदेश में मध्याह्न भोजन योजना में अंडे परोसे जा रहे हैं। इस योजना के माध्यम से देश के करीब 2.18 करोड़ बच्चों को साल में 99 करोड़ के अंडे खिलाए जा रहे हैं। महाराष्ट्र सरकार ने 2005 से बच्चों को अंडे देना शुरू किया है। दूसरी ओर गुजरात और मध्यप्रदेश में इसका विरोध हो रहा है। इनका तर्क है कि जो अंडा दिया जा रहा है, वह पोषक न होकर रोग बढ़ाने वाला है। सरकार की अन्य कई योजनाओं की तरह मिड डे मिल योजना के अमल की जवाबदारी सरकारी अधिकारियों पर है। इसलिए वे इसमें भी अपना लाभ देख रहे हैँ। 2005 में उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर में फूड कापरेरेशन आफ इंडिया के गोदाम से आठ ट्रक चावल रवाना किए गए, जो दिल्ली के बाजार में बिकने के लिए आ गए। दिल्ली पुलिस ने छापा मारकर चावल जब्त किया था। 2009 में गुजरात के लिमड़ी तहसील में भी मध्याह्न भोजन योजना के अनाज में किया गया घोटाला सामने आया था। इस घोटाले में प्राथमिक शाला के तीन शिक्षकों ने विद्यार्थियों की अधिक उपस्थिति दर्ज कर 2.73 लाख रुपए कर घोटाला किया।
यदि पूरे देश में अनाज के नाम पर जितने भी भ्रष्टाचार के मामलों का सामने लाया जाए, तो इसमें मध्याह्न भोजन योजना के अनाज में की जा रही हेराफेरी का मामला सबसे आगे होगा। सरकार राशन के सस्ते अनाज बॉटने के बजाए उतनी राशि बैंक में सीधे जमा करने की योजना शुरू की है। इस तरह की योजना यदि मध्याह्न भोजन के लिए किया जाए, तो शायद इसके अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे। संभवत: भ्रष्टाचार पर भी लगाम कसी जा सके। मिड डे मिल योजना अधिकांश सरकारी स्कूलों में ही चल रही है। इसमें गरीब वर्ग के बच्चे ही होते हैं। इस योजना में सड़े हुए अनाज और बासी खाना परोसा जाता है, तो इसकी शिकायत यदि कोई गरीब करे, तो उसकी कोई सुनने वाला ही नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार इस योजना मे एक बच्चे के लिए तीन से सवा तीन रुपए दिए जाते हैं, इतनी कम राशि में पौष्टिक खुराक तो एक सपना ही है। इसी सपने को लेकर अधिकारी अपने स्वार्थ के सपने देखने लगते हैं। गरीब बच्चों का सपना भले ही पूरा न होता हो, पर सच तो यह है कि शिक्षा मंत्री से लेकर शिक्षा अधिकारियों का सपना अवश्य पूरा हो जाता है। यह देश के लिए एक विडम्बना ही है कि बच्चों में पढ़ाई का लालच देने के लिए उन्हें दोपहर का भोजन स्कूल में दिए जाने की योजना सरकार ने बनाई है। यदि सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर बेहतर हो, तो फिर बच्चे अन्य स्कूलों की तरफ देखें ही क्यों? इस बात को सरकार को समझने में न जाने कितने साल लगेंगे। अभी तो यही सच है कि मध्याह्न भोजन योजना से बच्चों को कोई लाभ हुआ हो या न हो, पर इससे कई अधिकारी पल गए, कई तर गए और कई तरने वाले हैं।
डॉ. महेश परिमल

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