शनिवार, 31 अगस्त 2013

हमारे प्रधानमंत्री की लाचारी

डॉ. महेश परिमल
जब पानी सर से गुजर गया, तब हमारे प्रधानमंत्री को ध्यान आया  कि हां देश की आर्थिक हालत खराब हो गई है। समझ में नहीं आता कि हमारे प्रधानमंत्री को यह सब इतनी देर से कैसे समझ में आया? क्या उन तक सूचनाएं नहीं पहुंच पाती? क्या उन्हें कोई खबर नहीं करता? क्या वे अखबार नहीं पढ़ते, क्या वे टीवी नहीं देखते? जो बात देश का बच्च-बच्च जानता है, जिसे वह समझ भी रहा है, उसे हमारे प्रधानमंत्री अब जाकर समझ पाए हैं। क्या उनका सूचना तंत्र इतना कमजोर है? वे देश के प्रधानमंत्री ही नहीं, इसके पहले वे सच्चे अर्थशास्त्री भी हैं, रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रह चुके हैं, यही नहीं देश के वित्त मंत्री के पद को भी सुशोभित कर चुके हैं। इसके अलावा हमें उन पर गर्व करना चाहिए कि वे विश्व के सबसे अधिक पढ़े-लिखे प्रधानमंत्री हैं। लेकिन क्या यह सचमुच गर्व करने की बात है?
देश की अर्थ व्यवस्था सचमुच खराब है। इसके लिए उन्होने लाल किले की प्राचीर से यह आश्वासन भी दिया कि इसे मजबूत करने के लिए हम पुरजोर प्रयास करेंगे। उनके कहने की देर थी कि अर्थव्यवस्था पर मानों बिजली ही गर गई। डॉलर के मुकाबले हमारा रुपया कभी ऊंचा जाता है, कभी नीचे चला जाता है। यही हाल सोने का भी है। व्यापारी अब दोहरी चाल चल रहे हैं। आज सोने का जो भाव है, उस पर वे सोना नहीं खरीद रहे हैं। उस सोने को वे खरीदे गए भाव से ही खरीदने को तैयार हैं। सरकार के सारे प्रयास विफल साबित हो रहे हैं। निवेशकों का विश्वास टूट रहा है। सरकार दिशाहीन है। सरकार की इसी स्थिति पर उद्योगपति रतन टाटा का कहना सही है कि हमारे पास ठोस नीतियों का अभाव है। उसके लिए काम नहीं हो पा रहा है। पर यह कैसे संभव है कि अमेरिका की आर्थिक हालत खराब होती है, तो हमारी हालत भी खराब होती है। पर जब वह मजबूत होता है, तो भी हमारी हालत खराब होती है। ऐसा कैसे हो जाता है? आज एक साधारण मतदाता यही समझना चाहता है। क्या हमारे अभूतपूर्व वित्तमंत्री बताएंगे? पूरे अर्थि तंत्र पर आज अविश्वास के बादल छाए हुए हैं। अच्छे-अच्छे जानकार भी हैरत में हैं कि आखिर ऐसा कैसे हो रहा है। एक दौर ऐसा भी था कि मंदी के दौर में भी भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत थी। फिर अभी ऐसा क्या हो गया कि सब कुछ बिखर रहा है? यह सच है कि आज पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगा हुआ है। केवल रुपया ही नहीं, पूरे एशिया की मुद्राओं का यही हाल है। भारत की अर्थव्यवस्था इसी का एक अंग है। वह भला मंदी से किस तरह से अप्रभावित रह सकती है। पर इतना तो कोई भी सोच सकता है कि जब वास्तव में मंदी थी, तब हम मजबूत थे, पर आज हम मजबूत क्यों नहीं हो पा रहे हैं, जबकि हमारे पास एक कुशल अर्थशास्त्री हैं। अब तो हमारे वित्त मंत्री भी यही कह रहे हैं कि घबराने की आवश्यकता नहीं है, हम पूरी कोशिश कर रहे हैं। पर जब उनसे ही यह जवाब मांगा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था की इस हालत के लिए आखिर कौन-कौन सी परिस्थितियां जिम्मेदार हैं, यह बताया जाए।
जब से देश की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई, तभी से हमारे प्रधानमंत्री यही कहते आए हैं कि इसे सुधारने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है। अब वैसा ही राग वित्त मंत्री अलाप रहे हैं। वे भले ही यह दावा करें कि धबराने की आवश्यकता नहीं है, पर वास्तव में वे स्वयं ही घबरा रहे हैं। अच्छा होगा कि अब इसे गंभीरता से समझने की कोशिश की जाए। आश्वासनों से कुछ नही होने वाला। कुछ ठोस कदम अपरिहार्य हैं। इसके पहले जो कदम उठाए गए थे, उसका उल्टा ही असर हुआ है। जब सोना सस्ता था, तब यह कहा जा रहा था कि अभी न खरीदें, सोना और भी सस्ता हो सकता है। लोगों ने विश्वास कर लिया, आज वही सोना 22 हजार से बढ़कर 32 हजार रुपए प्रति दस ग्राम हो गया है। अभी भारतीय व्यापारियों में घबराहट नहीं फैली है। किंतु वे भय की ओर अग्रसर हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्वास भले ही टूट रहा हो, पर अब भारत में पूंजी निवेश करने के लिए विदेशी घबरा रहे हैं। यह सब राजनैतिक अस्थिरता के कारण हो रहा है,यह मानने के लिए शायद कोई तैयार नहीं है। सभी विश्व में छाई मंदी को दोष दे रहे हैं। हालात कोमा की तरह हो गए हैं। सरकार यही कह रही है कि यह वक्त वक्त की बात है। इसके लिए विश्व की अर्थव्यवस्था दोषी है। हम कतई नहीं। जब चिदम्बरम ने वित्त मंत्री का पद संभाला था, तब यह कहा जा रहा था कि अब रुपया मजबूत होगा। ऊर्जा का बिल घटाया जाएगा। औद्योगिक उत्पादन को नई ऊर्जा मिलेगी। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मुद्रास्फीति की दर बढ़ गई। प्याज के दाम कहां से कहां पहुंच गए। सरकार की बहानेबाजी से गरीब वर्ग परेशान हो गया है। आज सब्जियों के दाम आम आदमी की पहुंच से दूर हो गए हैं। 2005 में उसी लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री में घोषणा की थी कि दस वर्ष बाद गरीबी खत्म हो जाएगी। इस बार उन्होंने यह स्वीकार किया कि गरीबी खत्म नहीं हुई है, अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। पिछले पांच वर्ष की विफलता का साफ असर इस बार दिखाई दे रहा था।
यह कहा जा रहा है कि आज के हालात 1991 जैसे हैं। तब हमने विदेशी विनिमय के लए अपने सोने की राष्ट्रीय अनामत को लंदन भेज दिया था। यदि हम सावधान नहीं रहे, तो हालात 1963 जैसे हो सकते हैं। तब वित्त मंत्री मोरारजी देसाई थे। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विदेशी विनिमय को बचाने के लिए सोने के आयात पर रोक लगा दी थी। इसके बाद भी वे लोगों में सोने की भूख को कम नहीं कर पाए। 1960 में सोने की तस्करी की जाने लगी। तभी हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहीम, करीम लाला आदि का जन्म हुआ। भारत को इस आतंकवाद की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। आज देश का आत्मविश्वास घट रहा है, तो विदेशी इसका लाभ उठा रहे हैं। आतंरिक अस्थिरता के कारण समाज में भय का माहौल है। 1960 के बाद चीन और पाकिस्तान ने हमें सैन्य रूप से परखा। अब सीमा पर हलचल बढ़ गई है। पाकिस्तान हमारे जवानों को मार रहा है। चीन की हरकतें भी बढ़ गई हैं। ऐसे में भारत भले ही सैन्य दृष्टि से ताककवर बन गया हो, पर खतरा अभी भी मंडरा रहा है। आज सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनोती अब चुनाव न होकर अर्थव्यवस्था को मजबूत करना है। सभी कहते हैं कि किसी के पास जादुई छड़ी नहीं है, पर जादुई छड़ी का आशय वे योजनाएं हैं, जिससे अर्थव्यवस्था सुधर सकती है। कुछ तो ऐसा करना ही होगा, जिससे यह संदेश जाए कि हां कुछ तो हो रहा है। उसका असर भी दिखाई दे रहा है। व्यापारी भयमुक्त होकर व्यापार करें, लोग महंगाई से मुक्ति पाएं, यही कोशिश होनी चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

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