शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई...चले गए मन्ना दा

डॉ. महेश परिमल
मन्ना दा नहीं रहे। यह हृदयविदारक समाचार था, उन संगीत प्रेमियों के लिए, जिनके कानों में मन्ना दा के गीतों ने पहली बार सुर के प्रति प्रेम और विश्वास जगाया। मन्ना दा, जिनके गीतों को बचपन से सुना, गुना और गाया। कठिन से कठिन और सहज से सहज गीत उनके ही कंठ से फूटे हैं। गीत कैसे भी हों, मन्ना दा के लिए कभी कठिन नहीं रहे। शास्त्रीय संगीत से लेकर रोमांटिक गीत तक का सफर बहुत लम्बा है। मन्ना दा की सबसे बड़ी यही विशेषता है कि वे इतने सहज होते थे कि पूछो ही मत। स्वयं को कभी बहुत महान गायक न मानने वाले मन्ना दा अपने आप में मस्त रहने वाले महान गायक थे। उनके जाने का मतलब है, संगीत के एक युग का दौर का खत्म होना। कम नहीं होती साढ़े 93 साल की उम्र। अभी एक मई को ही उन्होंने अपना 93 वां जन्म दिन मनाया। वे तो चले गए हैं, पर उनके गीत हम सबसे कभी जुदा नहीं होंगे। फिल्मों के लिए गाये जाने वाले गीतों की अपेक्षा उनके गैर फिल्मी गीत भी बहुत ही लोकप्रिय हुए। फिर चाहे वे गीत मयूरपंखी के हों, या फिर ताजमहल पर। आवाज में एक सोज, गंभीरता और महमूद जैसे कलाकारों के लिए अपनी आवाज में हास्य का पुट लाना मन्ना दा के ही बस की बात थी।
मन्ना दा कभी विवादास्पद नहीं रहे। न तो उन्होंने कभी ऐसा बयान दिया, न ही कभी किसी की आलोचना की, न कभी गुटबाजी की और न ही कभी कुछ ऐसा किया, जिस पर ऊंगली उठाई जाए।
मन्ना दा के बारे में बहुत से संस्मरण मिल जाएंगे, पर उन्होंने स्वयं के बारे में जो कहा, उनसे से एक यह है कि जब वे कॉलेज में पढ़ रहे थे, तब सभी संगीत की सभी स्पर्धाओं में भाग लेते थे, हर स्पर्धा में उन्हें पहला स्थान प्राप्त होता था। इससे अन्य प्रतिभावान छात्र-छात्राओं को अवसर नहीं मिल पाता था, आखिर में एक ऐसा निर्णय लिया गया, जिससे वे बाद में कभी किसी स्पर्धा में हिस्सा न ले सकें। एक बार एक स्पर्धा में हिस्स लेने के बाद जब वे अव्वल आए, तो उन्हें एक सितार देकर यह कहा गया कि अब आप किसी स्पर्धा में भाग नहीं लेंगे। कॉलेज प्रबंधन के इस निर्णय को उन्होंने बड़ी सहजता से स्वीकार किया और फिर कभी किसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया। इतने सहज थे मन्ना दा। जब उन्हें एक दक्षिण भारतीय युवती सुलोचना से शादी करनी थी, तब वे बड़े पसोपेश में थे। घर में कैसे बताएं। घर के सभी बड़े परंपरावादी। अगर बुरा मान गए तो, इसलिए उन्होंने सुलोचना को सीधे अपने चाचा के सामने खड़ा कर दिया और कहा कि यह सुलोचना है, दक्षिण भारतीय, लेकिन रवींद्र संगीत जानती हैं, गाती भी हैं, मैं इससे शादी करना चाहता हूं। बस फिर क्या था, उन्हें शादी की अनुमति मिल गई।
एक बार शंकर साहब ने उन्हें  भीमसेन जोशी के साथ गाने के लिए कहा। गाने के साथ शर्त यह थी कि उन्हें जोशी जी को हराना भी था। उस समय संगीत की दुनिया में भीमसेन जोशी का बहुत नाम था। मन्ना दा स्वयं को बहुत ही छोटा गायक मानते थे। इसलिए अपना डर छिपाने के लिए उन्होंने पत्नी से कहा कि चलो कुछ दिन के लिए कहीं घूम आते हैं। पत्नी हैरान, आखिर इन्हें हो क्या गया? ऐसे तो कभी जाते नहीं हैं। आज अचानक ये क्या कह रहे हैं। तब पत्नी ने पूछा कि सच-सच बताओ, आखिर हुआ क्या है? तब मन्ना दा ने अपनी परेशानी बताई। पत्नी ने उनकी परेशानी को समझा और चलने के लिए राजी हो गई। वे करीब एक सप्ताह तक पूना में रहे। ताकि शंकर साहब किसी और से गवा लें। लेकिन नौशाद साहब भी कम न थे, उन्होंने सोच लिया सो सोच लिया। मन्ना दा जब पूना से लौटे, तो नौशाद साहब फिर हाजिर। आखिर उन्हें शंकर साहब का कहना मानना पड़ा। ये थी उनकी सहजता।
मन्ना दा के बचपन के दिनों का एक दिलचस्प वाकया है। उस्ताद बादल खान और मन्ना दा के चाचा एक बार साथ-साथ रियाज कर रहे थे। तभी बादल खान ने मन्ना दा की आवाज सुनी और उनके चाचा से पूछा यह कौन गा रहा है। जब मन्ना दा को बुलाया गया तो उन्होंने अपने उस्ताद से कहा,0 बस ऐसे ही गा लेता हूं। लेकिन बादल खान ने मन्ना दा की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद वह अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे। मन्ना दा 40 के दशक में अपने चाचा के साथ संगीत के क्षेत्र में अपने सपनों को साकार करने के लिए मुंबई आ गए। 1943 में फिल्म तमन्ना. में बतौर प्लेबैक सिंगर उन्हें सुरैया के साथ गाने का मौका मिला। हालांकि इससे पहले वह फिल्म रामराज्य में कोरस के रुप में गा चुके थे। दिलचस्प बात है कि यही एक एकमात्र फिल्म थी, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देखा था।
मन्ना दा के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास ने एक बार कहा था कि मन्ना दा हर वह गीत गा सकते हैं, जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाये हों, लेकिन इनमें से कोई भी मन्ना दा के हर गीत को नहीं गा सकता है। इसी तरह आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने एक बार कहा था, आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं, लेकिन अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं कहूंगा कि मैं मन्ना दा के गीतों को ही सुनता हूं। मन्ना दा केवल शब्दो को ही नहीं गाते थे, अपने गायन से वह शब्द के पीछे छिपे भाव को भी खूबसूरती से सामने लाते थे। शायद यही कारण है कि प्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमर कृति मधुशाला को स्वर देने के लिये मन्ना दा का चयन किया। साल 1961 मे संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में फिल्म काबुलीवाला की सफलता के बाद मन्ना दा शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। फिल्म काबुलीवाला में मन्ना दा की आवाज में प्रेम धवन रचित यह गीत, ए मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन आज भी श्रोताओं की आंखों को नम कर देता है। प्राण के लिए उन्होंने फिल्म उपकार में कस्मे वादे प्यार वफा और जंजीर में यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी जैसे गीत गाए। उसी दौर में उन्होंने फिल्म पड़ोसन मे हास्य अभिनेता महमूद के लिए एक चतुर नार बड़ी होशियार गीत गाया तो उन्हें महमूद की आवाज समझा जाने लगा।
उन्होने ऐ मेरे प्यारे वतन, ओ मेरी जोहरा जबीं, ये रात भीगी-भीगी, ना तो कारवां की तलाश है और ए भाई जरा देख के चलो जैसे गीत गाकर अपने आलोचको का मुंह बंद कर दिया।
प्रसिद्ध गीतकार प्रेम धवन ने मन्ना दा के बारे में कहा था मन्ना दा हर रेंज में गीत गाने में सक्षम हैं। जब वह ऊंचा सुर लगाते हैं, तो ऐसा लगता है कि सारा आसमान उनके साथ गा रहा है। जब वह नीचा सुर लगाते हैं तो लगता है उसमे पाताल जितनी गहराई है। और अगर वह मध्यम सुर लगाते हैं तो लगता है उनके साथ सारी धरती झूम रही है। मन्ना दा को फिल्मों मे उल्लेखनीय योगदान के लिए 1971 में पदमश्री पुरस्कार और 2005 में पदमभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह 1969 में फिल्म मेरे हुजूर के लिए सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक, 1971 मे बंगला फिल्म निशि पदमा के लिये सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक और 1970 में प्रदर्शित फिल्म मेरा नाम जोकर के लिए फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक पुरस्कार से सम्मानित किए गए। मन्ना दा के संगीत के सुरीले सफर में एक नया अध्याय जुड़ गया जब फिल्मों में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए साल 2009 में उन्हें फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 
सभी संगीत प्रेमियों की ओर से उन्‍हें भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

फेलिन से जीते, मंदिरों से हारे

डॉ. महेश परिमल
हाल में देश में हुई दो त्रासद घटनाओं से प्रबंधन की बात सामने आई है। एक तरफ समुद्री तटों पर फेलिन आया, लेकिन कुशल प्रबंधन के कारण अधिक क्षति नहीं कर पाया, तो दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के दतिया के रतनगढ़ मंदिर के पास हुई भगदड़ 120 मौतें दे गई। एक तरफ कुशल प्रबंधन और दूसरी तरफ प्रबंधन के नाम पर शून्य। एक तरफ प्रकृति हार मान गई, तो दूसरी तरफ मानवसर्जित त्रासदी कई मौतें दे गई। इससे हमें प्रबंधन का सबक तो लिया ही जाना चाहिए। आखिर क्या कारण है कि लोग मंदिरों में इतनी बड़ी संख्या में आते हैं, पर कुशल प्रबंधन न होने के कारण भगदड़ का शिकार होते हैं। हमारे देश में ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है कि मंदिरों में होने वाली भगदड़ में लोगों ने अपनी जानें गंवाई हैं। सैंकड़ों मौतें देने वाली भगदड़ से सरकार ने अभी तक कोई सबक नहीं सीखा, इसलिए आवश्यक है कि मंदिरों के लिए भी विशेष टास्क फोर्स तैयार किया जाए, ताकि इस तरह से होने वाली जन हानि से बचा जा सके। कलेक्टर, एसपी को सस्पेंड करने से कुछ नहीं होने वाला। मूल कारण की ओर जाना होगा। होना तो यह चाहिए कि सरकार पर दोष मढ़ने के पहले मंदिरों के संचालकों पर कार्रवाई होनी चाहिए। इतने श्रद्धालुओं का आगमन होगा, यह जानने के बाद भी उनका कोई कुशल प्रबंधन दिखाई नहीं दिया। कई देशों से हज यात्री लाखों की संख्या में हज के लिए जाते हैं, पर वहां की व्यवस्था देखने लायक होती है। इससे भी हमें सबक लेना चाहिए। मंदिरों में होने वाली भगदड़ मानवसर्जित भूल है। लोगों की धार्मिक संवेदनाओं के साथ धोखा न हो, पर मंदिरों को भीड़ प्रबंधन का पाठ तो पढ़ाया ही जाना चाहिए।
फेलिन ने 220 किलामीटर की रफ्तार से अपनी आमद दी, पर वह मानव संहार करने में विफल रहा। क्योंकि मानवों को बचाने की प्रणाली सतर्क थी। अचल सम्पत्ति को तो हटाया नहीं जा सकता था, पर तूफान की चपेट में आने वाले लोगों को तेजी से हटाने में सरकार ने स्फूर्ति दिखाई। मानव संहार के लिए तैयार होकर आने वाला तूफान भले ही अरबों का नुकसान कर गया हो, पर अधिक मौतें देने में विफल रहा। केवल 23 मौतें ही दे गया। यह मौतें भी पेड़ों के गिरने से हुई। यदि सरकार ने समय रहते लोगों को दूसरे सुरक्षित स्थान पर ले जाने का प्रयास नहीं किया गया होता, तो इससे अधिक जनहानि हुई होती। इस बार हमारा मौसम विभाग सही भविष्यवाणी करने और उसे समझने में कामयाब रहा। लोग हमेशा मौसम विभाग को उसकी भविष्यवाणी को लेकर मजाक उड़ाते रहे हैं, पर इस बार उसने यह बता दिया कि जिसे लोग हमेशा गलत मानते आए थे, वह अमेरिकी मौसम विभाग से भी चुस्त रहा। अमेरिकी मौसम विज्ञानियों ने इसे तो भीषण मानव संहारक बताया था। पर ऐसा नहीं हो पाया। हमारे वैज्ञानिकों ने फेलिन का व्यूहात्मक तरीके से सामना किया। दूसरी ओर मंदिरों में होने वाली धक्का-मुक्की के पीछे विभिन्न दर्शन जिम्मेदार हैं। गुजरात के सौराष्ट्र के धोराजी के एक मंदिर में छप्पनभोग के दर्शन के समय 9 महिलाएं कुचल गईं थी, इसी तरह यात्राधाम डाकोर की बात की जाए, तो वहां भीड़ प्रबंधन के प्रदर्शन हुआ था। वास्तव में मंदिरों में भीड़ इसलिए बढ़ जाती है कि मंदिरों में विभिन्न दर्शनों के लिए तैयारी की जाती है, उस दौरान मंदिर में भक्तों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है। इधर तैयारी होते रहती है,उधर भीड़ बढ़ती रहती हे। मंदिरों में भगवान का श्रंगार, राजभोग आदि के लिए मंदिर के दर्शन बंद कर दिए जाते हैं। दर्शन के लिए जब मंदिर के दरवाजे खुलते हैं, तब भक्ताों की भीड़ बढ़ जाती है। एक तो दर्शन के लिए की जा रही प्रतीक्षा, दूसरी बात है आतुरता, बस इसी कारण भीड़ बेकाबू हो जाती है।
अब दीवाली करीब है, इस दौरान धार्मिक यात्राओं और मेलों का आयोजन होगा। छप्पनभाग, मुकुट के दर्शन और श्रंगार के दर्शन, मंगला आरती के लिए भक्तों की धक्का-मुक्की हो सकती है, इसलिए अभी से इस दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए। होना तो यह चाहिए कि जिन मंदिरों में संचालकों की लापरवाही से भीड़ पर काबू नहीं पाया जा सकता है और कुछ अनहोनी होती है, तो संचालकों और ट्रस्टियों को सीखचों के पीछे धकेल देना चाहिए। यह तर्क इसलिए दिया जा रहा है कि जब आर्थिक मैनेजमेंट में विफल हो जाता है, तब को-ऑपरेटिव्ह बैंकों के डायरेक्टरों को जेल भेजा जाता है, तो फिर मंदिरों में भीड़ मैनेजमेंट में विफल होने वाले संचालकों और ट्रस्टियों को जेल क्यों नहीं भेजा जा सकता। ठंडे कमरों में बैठकर मंदिर के संचालक-ट्रस्टी भक्तों से मिली दक्षिणा या दान की राशि देखकर खुश होते हैं, पर अपने ही मंदिर में भीड़ का प्रबंधन न होने के कारण लोगों की जान जा रही है, इस पर वे शायद ही कभी ध्यान देते हैं। दूसरी ओर हमारी पुलिस के पास भीड़ से निपटने के लिए कोई खास मैनेजमेंट नहीं है। इसलिए वह यहां भी अपना डंडा राज चलाना चाहती है, रतनगढ़ में यही हुआ? पुलिस द्वारा लाठीचार्ज के बाद ही हालात बेकाबू हुए।
जिस तरह से फेलिन के लिए विशेष टास्क फोर्स तैयार की गई थी, ठीक उसी तरह मंदिरों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए विशेष टास्क फोर्स का गठन किया जाना चाहिए। फेलिन के लिए जिस विशेष टास्क फोर्स का गठन किया गया था, उसके नीचे पुलिस तंत्र था। इसी तरह मंदिरों के लिए तैयार किए जाने वाले विशेष टास्क फोर्स में महिलाओं की भी भर्ती की जानी चाहिए। क्योंकि मंदिरों में महिलाओं में ही अधिक धक्का-मुक्की होती है। हर मंदिर में उत्सव तो तय होते हैं, उनका दिन भी तय होता है, इन दिनों के लिए तैयार किए जाने वाले विशेष टास्क फोर्स से काम लिया जाए, तो हालात कभी बेकाबू न हों। मंदिरों में होने वाली भीड़ और धक्का-मुक्की से कई लोग दूर रहते हैं। डाकोर जैसे प्रसिद्ध मंदिर में वृद्ध लोग नहीं जा पाते। मंदिरों की भीड़ में हमेशा निर्दोष जनता कुचली जाती है। यदि संचालक मंदिरों का मैनेजमेंट नहीं कर पाते हैं, तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। मंदिरों में होने वाली भगदड़ से होने वाली मौतों को लोग ‘भगवान की इच्छा’ बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। इस धारणा को झुठलाने का समय आ गया है। फेलिन के खिलाफ मानव समुदाय ने जिस तरह से जाग्रत होकर उसका मुकाबला किया, उसी तरह धार्मिक स्थलों के लिए भी इस तरह की व्यवस्था की आवश्यकता है। हज यात्रा से भी हमें सबक लेना चाहिए, वहां भी लाखों लोग पहुंचते हैं, पर मजाल है किसी को किसी तरह की आंच भी आ जाए। बहुत ही कम ऐसा हुआ है।
इन भगदड़ों में यही बात नजर आई कि जब कहीं हजारों-लाखों लोग जमा होते हैं, तो वहाँ पर मोब साइकोलॉजी काम करती है। विवेक काम नहीं करता। अनुशासन किसी काम का नहीं रह जाता। इंसान अपने होश-हवाश खो बैठता है। दूसरों की चिंता बिलकुल ही नहीं करता। भीड़ निर्भय हो जाती है। प्रतापगढ़ में कृपालु महाराज के आश्रम में गरीब जिस तरह से भगदड़ के शिकार हुए, उसके पीछे का भाव लालच और भय था। हरिद्वार में जो कुछ हुआ, उसके पीछे स्वार्थ और आतुरता थी। दुनिया के धार्मिक स्थल परोपकार करने का आदेश देते हैं और दूसरों की चिंता करना सिखाते हैं। किंतु इंसान भीड़ का हिस्सा बनते ही सब कुछ भूल जाता है। धार्मिक स्थलों पर आकर यदि लोग अपने साथ-साथ दूसरों की भी चिंता करने लगे, तो ऐसी दुर्घटनाओं पर कुछ हद तक अंकुश लगाया जा सकता है। भीड़ को काबू करना मुश्किल है। पर कोई एक आवाज तो ऐसी होनी चाहिए, जिसे सुनकर लोग होश में आ जाएँ। भीड़ को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, पर उसे बेकाबू करने के लिए एक छोटी सी अफवाह ही काफी है।
    डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

हारे हुए घोड़ों पर दांव लगाने वाले प्रेम वत्स

डॉ. महेश परिमल
कुछ लोगों की आदत होती है कि हारे हुए घोड़ों पर दाँव लगाया जाए। इसे यदि दूसरे शब्दों में इस तरह से कहा जा सकता है कि जो कंपनियां घाटे में चल रही हों, उसे मुनाफा देने वाली कंपनी किस तरह से बनाया जाए। कुछ इस तरह की प्रवृत्ति के मालिक हैं प्रेम वत्स। इन्हें कनाडा का वॉरेन बफेट कहा जाता है। हमें गर्व होना चाहिए कि वत्स मूल रूप से भारतीय हैं,उनका जन्म हैदराबाद में हुआ था। वह भी आम भारतीयों की तरह एक सामान्य रूप से किसी अधिकारी के पद पर ही पहुंच पाते, यदि ट्रेन में सफर करते हुए एक सहयात्री की सलाह न मानी होती।  तब उनकी उम्र 21 वर्ष थी। चेन्नई की आईआईटी से केमिकल इंजीनियर की डिग्री प्राप्त करने के बाद वे हताश हो गए थे। जैसी नौकरी वे चाहते थे, वैसी मिल नहीं रही थी। एक बार जब वे ट्रेन में चेन्नई से हैदराबाद जा रहे थे, तब उनसे एक यात्री ने पूछा कि क्या आपने नेपोलियन की ‘थिंकएंड ग्रो रिच’ ढ़ी है, तब प्रेम ने जवाब दिया कि नहीं, उन्होंने इस किताब को नहीं पढ़ा है। तब यात्री ने उनसे इस किताब  को पढ़ने की सलाह दी। प्रेम वत्स कहते हैं कि इस एक किताब ने उनके जीवन मोड़ नया मोड़ ला दिया। किताब पढ़ने के बाद उन्हें सफलता का स्वाद चखना शुरू कर दिया। उन्हें खयाल आया कि उनकी दिलचस्पी बिजनेस एवं फाइनांस में है, पर वे बन गए हैं केमिकल इंजीनियर। तब उनके भाई कनाडा में थे। 1972 में वे भारत छोड़कर अपने भाई के पास कनाडा चले गए। कनाडा पहुंचकर उन्होंने जिस तरह से प्रगति की, उससे उन्हें वहां का वॉरने बफेट कहा जाने लगा। आखिर क्या है ऐसा प्रेम वत्स में, जो उन्हें भीड़ से अलग करता है।
ब्लेकबेरी जैसी डूबती कंपनी को खरीदने का निश्चय प्रेम वत्स ने किया है। यह पहली कंपनी नहीं है, जो डूब रही है और जिसे प्रेम वत्स ने खरीदा हो। इस तरह का पराक्रम वे पहले भी कर चुके हैं। ब्लेकबेरी उनके जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है, जिसे वे निश्चित रूप से स्वीकार तो कर ही चुके हैं, साथ ही वे इससे यह बताने कीे कोशिश करेंगे कि वे असंभव को संभव बनाने में विश्वास रखते हैं। कनाडा पहुंचकर उन्होंने वहां की वेस्टर्न ओंटेरियो यूनिवर्सिटी से एमबीए किया। 1974 में उन्होंने कांफेडरेशन लाइफ नामक एक बीमा कंपनी में नौकरी के लिए आवेदन किया। इस नौकरी के लिए प्रेम वत्स के अलावा तीन और लोगों को भी बुलाया गया था। उन तीनों के न आने के कारण वह नौकरी उन्हें मिल गई। दस वर्ष तक वे कांफेडरेशन लाइफ कंपनी में पोर्टफोलियो मेनेजमेंट का कीमती अनुभव प्राप्त कर 1985 में उन्होंने हेम्बलिन वत्स इनवेस्टमेंट कौंसिल ’ नामक कंपनी शुरू की। इसके बाद उन्होंने अपने विचारों को अमलीजामा पहनाने का काम शुरू किया। यानी हारे हुए घोड़ो पर बाजी लगाने का काम। 1985 में उन्होंने मार्केल फाइनेंशियल नाम एक बीमार कंपनी को खरीद लिया। इस कंपनी पर नए सिरे से निवेश कर उसे पुनर्जीवित कर दिखाया। 1987 में इस कंपनी में कुछ बदलाव कर उसे नए नाम से स्थापित किया। उसका नाम रखा फेरफेक्स। आज की तारीख में यह कंपनी 31 अरब डॉलर की है। प्रेम वत्स के पास फेरफेक्स के दस प्रतिशत शेयर हैं। इनके शेयरों की कीमत पिछले दो दशकों से वार्षिक 21 प्रतिशत की वृद्धि देखने में आई है। प्रेम वत्स को कनाडा का वॉरेन बफेट इसीलि कहते हैं कि वे जिस कंपनी के शेयरों के भाव फंडामेंटल से कम होते, उसे वे खरीद लेते, ऐसा वॉरेन बफेट भी किया करते थे। बफेट की तरह इन्होंने भ अपनी कंपनी की बुनियाद इंश्योरेंस कंपनी के रूप में तैयार की। अब तक उन्होंने कई बीमार कंपनियों को खरीदकर उसे मुनाफा कमाने वाली कंपनी बना दिया है। 2008 तक फेरफेक्स कनाडा की सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनी बना दिया था।
घाटे में चल रही ब्लेकबेरी कंपनी को खरीदकर उसे मुनाफा कमाने वाली कंपनी बनाना प्रेम वत्स के जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है। 2010 में ब्लेकबेरी के शेयरों के भाव 50 डॉलर थे, तब फेरफेक्स ने उनके शेयरों को खरीदने की शुरुआत की। आज फेरफेक्स के पास ब्लेकबेरी के दस प्रतिशत शेयर हैं। फेरफेक्स ने ब्लेकबेरी के शेयरों को 9 डॉलर के भाव से खरीदने का ऑफर दिया है। फेरफेक्स ने अब तक कंपनियों के पोर्टफोलियो में ही दिलचस्पी दिखाई है, लेकिन अब वह ब्लेकबेरी के संचालन की गहराई में उतरने की चाहत रखती है। आज ब्लेकबेरी भले ही घाटे में चल रही हो। किंतु उसका नाम है, उसकी ब्रांड वेल्यू जोरदार है। दुनिया में करीब 659 मोबाइल ऑपरेटर उसके लिए काम कर रहे हैं। उसकी सिक्योरिटी सिस्टम बेमिसाल है। उसके 7.6 करोड़ ग्राहक हैं। फाचरुन 500 कंपनियों के जो एक्जिक्यूटिव्स हैं, उसके 90 प्रतिशत ग्राहक ब्लेकबेरी का इस्तेमाल करते हैं। कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका की सरकार भी ब्लेकबेरी का ही इस्तेमाल करती है। उसके पास बेशुमार पेटेंट हें। इसमें नई ऑपरेटिंग सिस्टम का भी समावेश होता है। उसके पास 2.9 अरब डॉलर की राशि नकद है। इन सभी गणनाओं का गहराई से अध्ययन कर प्रेम वत्स ने इस कंपनी को खरीदने का निश्चय किया है।
इसके पहले प्रेम वत्स ने लाभ न कमाने वाली बीमा कंपनियों को ही खरीदते थे। अब उन्होंने मोबाइल कंपनियों के अलावा, गुड्स कंपनी, रेस्तरां चेन, वेडिंग गिफ्ट कंपनी और अखबार की कंपनियों को भी खरीदना शुरू कर दिया है हाल ही में उन्होंने भारत में फेरब्रिज केपिटल नामक कंपनी की स्थापना कर थॉमस फुड इंडिया का अधिकांश हिस्सा खरीद लिया है। अब उन्होंने मुश्किलभरे हालात में चल रही कंपनियों के शेयरों को भी खरीदना शुरू कर दिया है। ब्लेकबेरी जैसी डूबती कंपनी को 4.7 अरब डॉलर में खरीदने का साहस रखने वाले प्रेम वत्स को हारे हुए घोड़ों पर दांव लगाकर उसे जीताने का काफी शौक है। इस अच्छा खासा अनुभव भी रखते हैं वे। ब्लेकबेरी ने अभी एक पखवाड़े पहले ही यह घोषणा की थी कि उसे तीन महीने में एक अरब डॉलर का घाटा हुआ है। इससे उबरने के लिए उसे अपने 40 प्रतिशत कर्मचारियों की छंटनी करनी होगी। ्र40 प्रतिशत यानी साढ़े चार हजार कर्मचारी। एक नामी कंपनी के इतने सारे कर्मचारी एक साथ बेरोजगार हो जाएं, तो इसे एक विडम्बना ही कहा जाएगा। प्रेम वत्स ने जो चुनौती स्वीकारी है, ऐसा बहुत कम लोग कर पाते हैं। हमें गर्व होना चाहिए कि वे भारतीय हैं। जिन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा विदेश में मनवाया। जिस कंपनी का मोबाइल अमेरिकी राष्ट्रपति भी इस्तेमाल करते हो, जिस कंपनी का मोबाइल रखकर लोग स्वयं को भीड़ से अलग मानते हों, वही कंपनी आज दिवालियेपन के कगार पर है, उसे उबारने में लगे हैं भारतीय प्रेम वत्स। ऐसे लोगों की सहायता हालात भी करते हैं, ऐसा कहा जा सकता है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

कांग्रेस के हाथ से फिसलता आंध्र

दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख
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कांग्रेस के हाथ से फिसलता आंध्र
डॉ. महेश परिमल
सीमांध्र में अंधेरा छाया हुआ है। चारों तरफ अराजकता का माहौल है। हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। गृहमंत्री भले ही कहें कि आंध्र में राष्ट्रपति शासन की कोई योजना नहीं है। पर सच यह है कि आंध्र में बहुत ही जल्द राष्ट्रपति शासन लग सकता है। हालात को बेकाबू बनाने में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू और जगन रेड्डी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके उपवास ने स्थिति को बिगाड़ा। इसकी पूरी आशंका है कि आंदोलन अभी और जोर पकड़ेगा। कई नए विवादों से जूझने की अपेक्षा सही यही होगा कि राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए,यही एकमात्र विकल्प भी है। वजह साफ है कि यह आंदोलन हिंसक दिशा में जा रहा है। लोग अंधेरे से वैसे ही त्रस्त हैं, उस पर स्थानीय नेताओं के भाषण यही दर्शा रहे हैं कि इस स्थिति का लाभ उठाने के लिए हर कोई तत्पर है। हर दल वहां हीरो बनने में लगा है। उधर कांग्रेस अभी तक यही जताती रही है कि वह निर्णय लेने में दृढ़ है, इसलिए उसने तेलंगाना पर सही समय पर सही निर्णय लिया है। दूसरी ओर मुलायम का राग बदलते ही कांग्रेस उत्तर प्रदेश को विभाजित करने की योजना बना रही है। वह मायावती के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश को विभाजित करना चाहती है ताकि उसका राजनैतिक लाभ उठाया जा सके।
इस संबंध में चंद्रबाबू नायडू दो नावों पर सवार होकर अपना खेल खेल रहे हैं। एक तरफ वे भाजपा से नजदीकियां बढ़ा रहे हैं, तो दूसरी तरफ जगमोहन रेड्डी भी कांग्रेस की टीका करते हैं और नरेंद्र मोदी की प्रशंसा। इन दोनों की नजर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव पर है। कांग्रेस ने मामले को उलझा दिया है। यही आंध्र प्रदेश कभी कांग्रेस का गए़ था। आज वहां तेलुगु देशम, वायएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्रीय समिति और भाजपा ने अपना कब्जा जमा लिया है। शासन भले ही कांग्रेस का हो, मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं है। वहां केंद्र के कांग्रेसी नेताओं का दबदबा है, जो इस स्थिति में भी अपनी रोटी सेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं। यह प्रदेश अब आंदोलनों का प्रदेश बन गया है। यहां के लोग आक्रामक हैं, इसलिए उन्होंने कांग्रेस की नींद हराम कर रखी है। तेलंगाना का मामला कांग्रेस के लिए बूमरेंग साबित हुआ है। कांग्रेस के लिए यह स्थिति आ बैल मुझे मार, जैसी है। हम सारे निर्णय समय पर लेते हैं, इस तरह का संदेश देने वाली कांग्रेस भी तेलंगाना मामले पर सही समय पर सही निर्णय लिया गया है, यह बताना चाहती है। पर सभी जानते हैं कि कांग्रेस के निर्णय सदैव राजनीति से प्रेरित रहे हैं। आंध्र की समस्याओं के निराकरण में कांग्रेस फिसड्डी साबित हुई है। यह स्पष्ट हो गया है। तेलंगाना के मुद्दे पर राजनैतिक रोटियां सेंकी जा रही है। इसकी गर्मी वहां की प्रजा महसूस कर रही है। अब यह मामला ऐसा भी नहीं रहा, जिसका दो चार दिनों में ही निकाल लिया जाए। एक तरफ केंद्र सरकार दृढ़ है, तो दूसरी तरफ आंदोलनकारी भी स्वयं को मजबूत बता रहे हैं। दोनों में से कोई हारना ही नहीं चाहता।
आंध्र में कांग्रेस के नेताओं का अहम काम कर रहा है, दूसरी ओर आंदोलन करने वाले प्रादेशिक नेताओं की नीयत खराब है। वाय एस आर कांग्रेस के जगमोहन रेड्डी और तेलुगुदेशम के चंद्रबाबू नायडू ने आमरण उपवास रखकर केंद्र सरकार को उलझन में डाल दिया है। ये दोनों ही अपने आप में कट्टर दुश्मन हैं, पर तेलंगाना के मुद्दे पर एक हो गए हैं। ऐसा लग रहा है। पर कांग्रेस की हालत बहुत ही खराब है। यह तय है। पहले यह माना जा रहा था कि आगामी लोकसभा चुनाव के पहले तेलंगाना पर निर्णय लिया जाएगा। पर अब उत्तर प्रदेश के विभाजन की सुगबुगाहट है। कांग्रेस की नजर उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर है।वह मायावती के साथ मिलकर अधिक से अधिक सीटों पर कब्जा करना चाहती है। इससे कांग्रेस यह संदेश देना चाहती है कि सरकार सही समय पर सही निर्णय लेना जानती है। इस समय आंध्र की सारी बिजली इकाइयां ठप्प पड़ी हुई हैं। उत्पादन न के बराबर है। सीमावर्ती क्षेत्र अंधेरे में डूबे हैं। दक्षिण की इस ग्रिड पर उत्पादन प्रभावित होने से तमिलनाड़ु, केरल और कर्नाटक की बिजली आपूर्ति प्रभावित होगी।
आंध्र प्रदेश में लोकसभा की 42 सीटें हैं। तो उत्तर प्रदेश में 80। आंध्र को विभाजित करने के लिए विधेयक राज्य विधानसभा से कभी पारित नहीं हो पाया। पर उत्तर प्रदेश विधानसभा में सन् 2011 में मायावती के शासनकाल में सर्वसम्मति से पारित हो गया था। बाद में केंद्र को भी भेजा गया। इस समय कांग्रेस उत्तर प्रदेश को विभाजित करने की जुगत में दिखाई दे रही है। राजनैतिक समीक्षक मानते हैं कि ऐसा करके कांग्रेस मायावती को अपने करीब लाना चाहती है। जब से मुलायम सिंह ने तीसरा मोर्चा पर बयान देना शुरू कर दिया है, तब से कांग्रेस भी उत्तर प्रदेश के विभाजन की बात करने लगी है। कुछ भी हो पर सच तो यह है कि आंध्र का गुस्सा आसमान पर है। वहां के लोगों ने यह समझ लिया है कि हमें ठगा गया है। हमसे फरेब किया गया है। आंध्र समस्या का समाधान क्या होगा, यह सरकार का सोचने का काम है। पर हालात बता रहे हैं कि वहां राष्ट्रपति शासन ही अब एकमात्र विकल्प रह गया है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

बहुत कुछ कहती है अनुभवी चेहरे की झुर्रियॉं




दैनिक दबंग दुनिया में आज प्रकाशित मेरा आलेख

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