शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

डॉ. अंबेडकर का आखिरी दिन

डॉ. महेश परिमल
6 दिसम्बर 1956, हां यही वह दिन है, जिस दिन हमारे संविधान के निर्माता हमें बिलखता छोड़ गए थे। क्या कभी उन्हें पूरी तरह से समझने की कोशिश हुई? यह प्रश्न हम सबके सामने सदैव कौंधता रहेगा। उनका अंतिम दिन कैसा था, इसे जानने के लिए उनके नौकर सत्तू से जाना जा सकता था। उसके अनुसार उन्होंने उससे ‘चल कबीरा तेरा भवसागर डेरा’ भजन सुना था। कैसा था उनका अंतिम दिन, आइए जानते हैं।
सन 1951 में नेहरु मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर 1952 में बाबा साहब अंबेडकर राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। इसके बाद वे 26 अलीपुर रोड, दिल्ली में निवास करने लगे। यहीं उन्होंने अंतिम सांस ली। सन 1950 में करीब 30 करोड़ हिंदुओं में 5 करोड़ अछूत हिंदू भारत में रहते थे। उनके कल्याण के लिए 14 अप्रैल 1891 से लेकर 6 दिसम्बर 1956 के बीच 65 वर्ष की उम्र तक संघर्ष करने वाले इस महामानव का अंतिम दिन यादगार हैं। 14 अक्टूबर 56 को करीब तीन लाख दलितों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद डॉ. अंबेडकर एक महीने और 22 दिन तक ही जीवित रहे। इन 52 दिनों में उन्होंने कई स्थानों क दौरा किया। इस दौरान उन्होंने दलित हिंदुओं को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। तीन दिसम्बर 56 को उन्होंने अपनी किताब ‘बुद्ध और मार्क्‍स’ का अंतिम अध्याय पूरा कर टाइप के लिए दिया। राज्यसभा के सदस्य के नाते 4 दिसम्बर 56 को अपनी अंतिम उपस्थिति दर्शाई। उसी दिन शाम को उन्होंने महाराष्ट्र के विपक्षी नेताओं आचार्य अत्रे और एस.एम. जोशी को पत्र लिखकर रिपब्लिकन पार्टी में आने का अनुरोध किया।
मृत्यु के एक दिन पहले5 दिसम्बर 1956 को उनके निजी सेवक रत्तू ने देखा कि साहब पौने 9 बजे तक सोकर ही नहीं उठे हैं। इस दिन अंबेडकर की पत्नी सविता अंबेडकर अपने मेहमान डॉ. मावलकर के साथ बाजार खरीददारी के लिए गई। शाम को डॉ. अंबेडकर ने पत्नी सविता के कमरे की बेल बजाई, तब उन्हें पता चला कि सविता अभी तक बाजार से नहीं लौट पाई हैं। ब्लड प्रेशर और डायबिटिस के मरीज अंबेडकर घबरा गए। सविता जी देर शाम बाजार से आई, तब बाबा साहब ने उन पर काफी नाराजगी जताई। उन्हें शांत करने के लिए सविता जी ने सेवक रत्तू से अनुरोध किया। रात को रत्तू ने बाबा साहब के पैर की मालिश करनी शुरू की। तब उन्होंने सर पर तेल से मालिश के लिए कहा। इस दौरान बाबा साहब ने अपना प्रिय भजन बुद्धं शरणम गच्छामि गुनगुनाना शुरू किया। फिर इसी भजन को अपने रेडियोग्राम पर भी बजवाया। भजन के साथ-साथ वे भी इसे गुनगुनाने लगे। भोजन तैयार होने पर रसोइए सुदामा ने बाबा साहब से भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। रसोई में जाते-जाते अलमारी से पुस्तकें उठाई, प्रेम से देखा। सेवक रत्तू से कहकर कई प्रिय पुस्तकें बिस्तर के पास की टेबल पर रखने के लिए कहा। कुछ भोजन ग्रहण किया। भोजन करते-करते सेवक रत्तू से अपने माथे की मसाज जारी रखने के लिए कहा। लकड़ी के सहारे खड़े होकर कबीर का भजन चल कबीरा तेरा भवसागर डेरा गुनगुनाते हुए अपने बेडरुम में जाकर पुस्तकों को सहेजकर रखा। रात 11.15 बजे रत्तू घर के लिए साइकिल से रवाना हुआ। बाबा साहब की आज्ञा से सुदामा ने रत्तू को वापस बुलाया। रत्तू के आते ही बाबा साहब ने अलमारी से ‘बुद्ध और उनका धर्म’ किताब के लिए लिखी गई प्रस्तावना और आचार्य अत्रे और एसएम जोशी को लिखे पत्रों की टाइप कापी टेबल पर रखने के लिए कहा। पत्रों को अगले दिन पोस्ट करना था, इसलिए उन पर अंतिम निगाह डाल लेना चाहते थे। रोज की तरह सुदामा ने उनके बिस्तर के पा कॉफी का थर्मस और मिठाई रख दी।
6 दिसम्बर को सुबह 6.30 बजे अंबेडकर की पत्नी सविता ने पति को निद्राधीन देखा। रोज की तरह सविता ने बगीचा का चक्कर लगाया। उसके बाद उन्होंने पति को जगाने की कोशिश की। तब उन्हें पता चला कि बाबा साहब तो अनंत यात्रा पर जा चुके हैं। अपनी कार भेजकर उन्होंने रत्तू को बुलवाया। अब उनके चीत्कार की बारी थी। सोफे पर बैठते हुए वह जार-जार रोने लगीं। रत्तू के आने पर दोनों ने मिलकर बाबा साहब के दिल की धड़कन को फिर से शुरू करने का प्रयास किया। हाथ-पैर ऊपर नीचे किए। मुंह में एक चम्मच ब्रांडी भी डाली। तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। देश की 79 प्रतिशत नागरिकों के तारणहार अनंतयात्रा पर जा चुका था। अंतिम समय तक वे इतने अधिक थक चुके थे कि उनकी दैनिक निद्रा ही चिरनिद्रा में बदल गई।
बाबू जगजीवन राम ने विमान की व्यवस्था की। रात साढ़े नौ बजे सविता अंबेडकर, रसोइए सुदामा और सेवक रत्तू ने बाबा साहब के पार्थिव शरीर को लेकर मुृम्बई आ गए। रात तीन बजे हजारों लोग सांताक्रूज हवाई अड़डे पर जमा हो गए। ये सभी उनके अंतिम दर्शन करना चाहते थे। 7 दिसम्बर को दोपहर उनकी अंतिम यात्रा निकली।  करीब दस लाख लोग इस यात्रा में शामिल हुए। बौद्ध विधि अनुसार शाम साढ़ सात बजे उनके पुत्र यशवंत अंबेडकर ने दादर हिंदू श्मशान गृह में उन्हें मुखाग्नि दी। तब लाखों लोग फफक-फफककर रो पड़े।
डॉ. महेश परिमल

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