गुरुवार, 30 जनवरी 2014

भ्रष्‍टाचार का अड्डा बनते टोल


आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

भ्रष्टाचार का अड्डा बनते टोल प्लाजा
डॉ. महेश परिमल
हाल ही में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में उत्तेजित भीड़ ने टोल प्लाजा पर आग लगा दी। इसका मुख्य कारण था सरकारी एजेंसियों द्वारा गैरकानूनी रूप से की जानी वाली वसूली। सोचो आखिर इस गैरकानूनी काम में कितनों का सहयोग होगा, जो इस तरह से खुले आम वसूली की जा रही हो और पुलिस तो क्या कोई कार्रवाई करने को तैयार न हो। आज देश का किसी भी हाइवे पर चलें जाएं, उस रास्ते पर कमर तोड़ देने वाले टैक्स वाहन मालिकों की हालत ही खराब करके रख देता है। टैक्स की राशि भी तय नहीं होती, काउंटर पर बैठा व्यक्ति जितनी राशि बोल दे, उतना वाहन मालिक को देना ही होता है। आश्चर्य इस बात का है कि जब वाहन मालिक वाहन खरीदते समय ही सारे टैक्स जिसमें रोड टैक्स भी शामिल है, दे देता हे, तो फिर यह अलग से वसूली क्यों? यदि इस दिशा में गहराई से विचार किया जाए, तो स्पष्ट होगा कि अधिकांश टोल प्लाजाओं में गैरकानूनी रूप से वसूली की जा रही है।
आज से 25 वर्ष पहले देश के किसी भी हाइवे या किसी भी रोड पर किसी भी प्रकार का टोल टैक्स वसूल नहीं किा जाता था। इसके बाद भी नए रास्ते और पुल बनते रहते थे। यही नहीं रास्तों की मरम्मत भी हो जाती थी। आम नागरिकों द्वारा सरकार को हर तरह के टैक्स का भुगतान करने से ही सरकार उस धनराशि का उपयोग रेल्वे, रास्ताओं की मरम्मत आदि के लिए करती है। इसी टैक्स से सरकार विकास की पूरी संरचना तैयार करती आई है। इसके बाद भी पहले सरकार इस तरह के टैक्स वसूल नहीं करती थी। जब से टोल टैक्स वाला काम निजी कंपनियों को दिया गया है, तब से इसमें भ्रष्टाचार फैल गया है। अब तो बिना टोल टैक्स के देश के एक कोने से दूसरे कोने में जाने की सोच भी नहीं सकते। टोल टैक्स वसूली ठेका निजी कंपनियों को मिलने से इसमें धांधली बढ़ गई है। इसमें होता यह है कि टोल टैक्स की पूरी वसूली के बाद भी टैक्स वसूला जाता है। इसमें किसी प्रकार की नैतिकता निजी कंपनियों को आड़े नहीं आती। एक उदाहरण से ही इसे समझा जा सकता है- अहमदाबाद से मेहसाणा के बीच मार्ग की मरम्मत पर 342 करोड़ रुपए खर्च हुए। यहां पर टोल टैक्स की वसूली शुरू हुई। पिछले वर्ष मार्च महीने तक 391 करोड़ रुपए वसूले जा चुके थे, इसके बाद भी अभी तक वसूली जारी है। वडोदरा से हालोल के बीच हाइवे बनाया गया, जिसकी लागत 170 करोड़ रुपए आई। यहां भी पिछले साल मार्च तक 279 करोड़ रुपए वसूले जा चुके थे। वटामण-तारापुर मार्ग बनाने में  100 करोड़ रुपए खर्च आया, इसके एवज में मार्च तक 116 करोड़ रुए वसूले जा चुके हैं। इन तीन रास्तों पर टोल टैक्स लेने का कोई अधिकार सरकार को नहीं है। ऐसे सभी राज्यों में हो रहा है। जब पूरी राशि वसूली जा चुकी है, उसके बाद भी वसूली करना कहां का अधिकार है। सभी राज्यों के बजट में सड़कों की मरम्मत के लिए अलग से राशि का प्रावधान होता है, उसके बाद भी इस नाम से अलग से टैक्स वसूली क्यों? इस तरह से सरकार स्वयं ही भ्रष्टाचार को पनपने में मदद कर रही है।
निजी कंपनियों द्वारा एक बार टोल टैक्स लेना शुरू किया जाता है, तो फिर वह बंद ही नहीं होता। होना तो यह चाहिए कि मरम्मत की राशि वसूले जाने के बाद बंद कर दिया जाना चाहिए या फिर जैसे-जैसे राशि कम होती जाती है, वैसे-वैसे टैक्स की राशि भी कम की जानी चाहिए। पर ऐसा हो नहीं पाता। सरकारी संरक्षण में टोल टैक्स की राशि लगातार बढ़ती ही रहती है। मुम्बई-पुणो एक्सप्रेस वे शुरू हुआ था, तब कार वालों से 30 रुपए टैक्स लिया जाता था, जो आज बढ़कर 120 रुपए हो गया है। इस हाइ वे को बनाने में 900 करोड़ रुपए खर्च आया था। अभी तक इस हाइ वे पर 2 हजार करोड़ की टैक्स वसूली हो चुकी है। मुम्बई से नासिक जाने के लिए पहले केवल 70 रुपए ही लिया जाता था, आज यह बढ़कर 220 रुपए से ऊपर पहुंच गया है। मुम्बई से अहमदाबाद जाने के लिए करीब 500 रुपए टोल टैक्स वसूला जाता है। दूसरी ओर टोल नाके पर जो टैक्स वसूला जाता है, उसे रजिस्टर में दिखाया कम जाता है। इसलिए टोल की आवक बहुत ही कम हो जाती है। महराष्ट्र की एक समाज सेवी संस्था ने मुम्बई-पुणो हाइवे से गुजरने वाले वाहनों को एक सप्ताह तक गिनना शुरू किया। इसमें उन्होंने पाया कि इस हाइवे पर 13.20 लाख वाहन गुजरे। पर टोल नाके पर जो आवक दर्ज की गई, वह केवल 25 प्रतिशत ही थी। एजेंसियों को टोल टैक्स लेने का ठेका दिया गया है, तब से इसमें दो नम्बर की कमाई बढ़ गई है। निश्चित रूप से इसमें राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होगा, तभी यह इतना पनप रहा है।
महाराष्ट्र कांग्रेस, एनसीपी, शिवसेना और भाजपा के नेताओं का शायद टोल टैक्स की कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा मिलता होगा, तभी आज तक इस दिशा में कभी कोई सख्ती कार्रवाई नहीं की गई। जब राज ठाकरे ने नवनिर्माण का गठन किया, तब उसे इस कमाई का हिस्सा नहीं मिला, तो आंदोलन की चेतावनी दी। कुछ दिन बाद आंदोलन को स्थगित कर दिया गया। सभी समझ गए कि आखिर आंदोलन क्यों स्थगित किया गया? कुछ रसूखदार नेताओं ने अपने मत क्षेत्र में टोल टैक्स खत्म करवा दिया। इसमें शरद पवार ने बारामती में और लातुर में स्व. विलासराव देशमुख और नांदेड़ में अशोक चव्हाण शामिल थे। इन्होंने अपने क्षेत्र में लगने वाले टोल टैक्स को खत्म करवा लिया। लेकिन कोल्हापुर में कोई कद्दावर नेता नहीं होने के कारण नागरिकों को टैक्स का भुगतान करना पड़ता था। हाल ही में शिवसेना ने यहां वसूले जाने वाले टोल टैक्स का विरोध करते हुए आंदोलन छेड़ दिया है। देश के अन्य भागों में भी इसी तरह का आंदोलन छेड़ा जाना चाहिए, ताकि खुलेआम होने वाली वसूली पर अंकुश लगाया जा सके। केंद्र सरकार को भी इस दिशा में ध्यान देकर जिन टोल टैक्स नाकों पर वसूली पूरी हो गई है, वहां वसूली बंद कर देने का फरमान जारी करना चाहिए। इस लोकसभा चुनाव के पहले यदि इस दिशा में सख्त कार्रवाई होती है, तो जनता को लुभाने की दिशा में यह एक अच्छा कदम साबित हो सकता है।
  डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

फिर तो बच जाएंगे कई खूंखार


आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख 

फिर तो बच जाएंगे कई खूंखार
        डॉ. महेश परिमल
सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा प्राप्त 15 कैदियों की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कारण दिए हैं, वह देश की न्याय व्यवस्था पर ऊंगली उठाता है। कोर्ट ने यह कहा है कि फांसी की सजा में अधिक समय नहीं लगाया जाना चाहिए। यह सच है कि फांसी देने में वक्त नहीं लगाया जाना चाहिए, पर आखिर इतना अधिक समय क्यों लगता है? इस पर भी विचार होना चाहिए। फांसी जैसी गंभीर सजा के लिए भी हमारे यहां कोई टाइम लाइन नहीं है। तारीख पर तारीख के बाद भी बरसों तक मामला लटका रहता है। आखिर मामला लटका क्यों रहता है? इस पर सरकार भले ही जवाब न दे पाए, पर सच तो यह है कि इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ राजनीति का है। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले को भी राजनैतिक दृष्टि से देखा जा रहा है।
दयायाचिका रद्द होने के 14 दिनों बाद फांसी दे देनी चाहिए। सजा देने में देर नहीं होनी चाहिए। इस तर्क के साथ देश की बड़ी अदालत ने फांसी की सजा पाए 15 कैदियों की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। ये 15 कैदी और उसके परिजन सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले से राहत की सांस ले रहे होंगे। इसके सहारे वे कैदी भी बच जाएंगे, जिन्हें फांसी की सजा मुकर्रर हुई है। पर सच्ची बात यही है कि फांसी की सजा में देर नहीं होनी चाहिए। इसके लिए तयशुदा कानून है या नहीं? यदि है, तो उस पर अमल क्यों नहीं हो रहा है? जिन 15 लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला गया है, इसके आधार पर देविंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी की सजा भी उम्रकैद में तब्दील हो सकती है। खालिस्तान की मांग को लेकर देविंदर ने कार को बम से उड़ा दिया था। इस बम विस्फोट में 11 लोगों की मौत हो गई थी। यदि भुल्लर को फांसी दी जाती है, तो पंजाब में हिंसा फैलेगी, वैसी ही हिंसा जो अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद कश्मीर में हुई थी। यही कारण है कि भुल्लर की फांसी की सजा को मुल्तवी रखा गया था। सुप्रीमकोर्ट के फैसले को राजनीति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। लेकिन लोगों में यही धारणा है कि चुनाव आ रहे हैं, इसलिए भुल्लर की फांसी को उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया है। इस फैसले से आगामी चुनाव में पंजाब में कांग्रेस को निश्चित रूप से फायद होगा। इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी देने में तमिलनाड़ु की राजनीति आड़े आ रही थी।
राजीव गांधी के हत्यारे मुरुगन, संथानम और पेरारिवलन को फांसी की तारीख मुकर्रर हो भी गई थी। वह तारीख थी 9 सितम्बर 2011। यह दिन उनकी जिंदगी का आखिरी दिन था, क्योंकि राष्ट्रपति ने इनकी दया याचिका भी रद्द कर दी थी। फोंसी के दस दिन पहले ही तमिलनाड़ु विधनसभा में ऐसा विधेयक लाया गया, जिसमें तीनों की दया याचिका पर पुनर्विचार करने का प्रावधान था। इस विधेयक के कारण तीनों की सजा को आठ सप्ताह के लिए मुल्तवी कर दी गई। इसके बाद यह मामला आज भी लटका हुआ है। राजीव गांधी की हत्या के 23 वर्ष पहले 21 मई 1991 को पेरुम्बदूर में एक चुनावी सभा में की गई थी। उस समय मानव बम बनी धन्नू ने राजीव गांधी को हार पहनाने के बहाने उन तक पहुंची, धमाका हुआ और राजीव गांधी समेत अनेक लोग मारे गए। इस घटना क्रम को अंजाम दिया लिट्टे ने। आज 23 वर्ष बाद भी इस मामले में न्याय प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई है। बल्कि जेल में एक लव स्टोरी सामने आ गई। राजीव गांधी की हत्या के आरोपी मुरुगन और नलिनी ने जेल में रहने के दौरान ही शादी कर ली। इसके बाद नलिनी ने एक बच्ची को जन्म दिया। बच्ची के जन्म के बाद नलिनी ने फांसी की सजा माफ कर उसे उम्रकैद में तब्दील कर दी गई। नलिनी की सजा माफ करने के लिए सोनिया गांधी ने खुद सिफारिश की थी। इतना ही नहीं, किसी को पता न चले, इसलिए प्रियंका गांधी ने जेल में नलिनी से मुलाकात की।
राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की सजा देने के फैसले को सुप्रीमकोर्ट ने भी मंजूर किया। इसके बाद राष्ट्रपति के पास इनकी दया याचिका पहुंची। इस याचिका  राष्ट्रपति भवन में पूरे 11 वर्ष तक दबाए रखा गया। यदि इस पर विचार हो जाता, तो उसके 14 दिन बाद फांसी की सजा दे दी जाती। यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर राष्ट्रपति भवन में दया याचिका को कितने समय तक लम्बित रखा जा सकता है? अभी भी वहां न जाने कितनी दया याचिकाएं पड़ी हैं, जिन्हें राष्ट्रपति के फैसले का इंतजार है। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी देने में भी राजनीति ही आड़े आ रही है। अब इन्हें भी फांसी की सजा से मुक्ति मिल जाएगी। इसके पीछे यही राजनीति है कि इससे कांग्रेस को तमिलनाड़ु में फायदा होगा। वहां कांग्रेस करुणानिधि की डीएमके के साथ अब तक चुनाव लड़ती आ रही है। श्रीलंका के मामले पर डीएमके ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था। अब वहां  मुख्यमंत्री जयललिता की पार्टी एआईडीएमके, करुणानिधि की डीएमके और कांग्रेस के बीच टक्कर होगी। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दी जाती है, तो तमिल नाराज हो जाएंगे, इससे कांग्रेस की हार होगी। यही कारण है कि हमारे देश में फांसी की सजा पर भी राजनीति होती है और मामले लटक जाते हैं। आज भी 400 लोग अभी भी सजा का इंतजार कर रहे हैं। 2001 से 2012 तक 1560 लोगों को फांसी दी जा चुकी है। इनमें से 395 उत्तर प्रदेश के हैं, 144 बिहार और 106 लोग तमिलनाड़ु से हैं।
हमारे देश में आखिरी बार 9 फरवरी 2013 को संसद पर हमला करने के आरोप में अफजल गुरु को दी गई थी। इसके पहले 21 नवम्बर 2012 को मुम्बई पर हमला करने वाले एकमात्र जीवित आरोपी अजमल कसाब को फांसी दी गई थी। अगस्त 2004 में कोलकाता में धनंजय चटर्जी को फांसी की सजा दी गई थी, उस पर एक युवती से बलात्कार के बाद हत्या का आरोप था। पिछले आठ वर्षो में कई अदालतों ने फांसी की सजा सुनाई है, इन सबका क्या होगा? क्या इन्हें फांसी होगी? यह सवाल आज भी सबके सामने खड़ा है। अदालत ने अपने निर्णय में यह भी कहा है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ गुनाहगार को फांसी देना उचित नहीं। हकीकत यह है कि फांसी की सजा सुनने के बाद ही व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है। यदि उसमें विलम्ब हुआ, तो वह बुरी तरह से अवसाद से घिर जाता है। उसे हमेशा फांसी का फंदा ही दिखाई देता है। जिन 15 लोगों की फांसी की सजा उम्रकैद में तब्दील हुई है, उन्होंने मौत के साये में अपने दिन गुजारे हैं। तारीख तय होने के बाद अंतिम क्षणों में फांसी की सजा के कुछ समय पहले सजा न होने देने के मामले केवल हमारे देश में ही देखने में आते हैं। आखिर एक गुनाहगार को कब तक ऐसे ही बिना निर्णय के जेल की सलाखों के पीछे रखा जाएगा? गुनाहगारों को यदि इसी तरह न्याय प्रक्रिया की लापरवाही या राजनीति के कारण बचाया जाता रहा, तो अपराध कम तो होंगे ही नहीं। इसमें और भी इजाफा होगा। अपराधी से अपराधी की तरह ही निपटना चाहिए, इसमें यदि राजनीति का समावेश हो जाता है, तो इससे देश का कानू ही शर्मिदा होता है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 22 जनवरी 2014

खत्‍म हुआ हाइप्रोफाइल ड्रामा

डॉ. महेश परिमल
दिल्‍ली में मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा किया गया हाइप्रोफाइल ड्रामा खत्‍म हो गया। दो पुलिसकर्मियों को अवकाश पर भेजने के बाद मुख्‍यमंत्री मान गए। वे यह अच्‍छी तरह से समझ गए थे कि उनके इस आंदोलन को जनसमर्थन नहीं मिल रहा है, इसलिए उन्‍हें अपना नाटक तो खत्‍म करना ही था। कुल मिलाकर  इस ड्रामे में अरविंद, अहंकार और आप का हाइप्रोफाइल रूप ही दिखाई दिया। ‘आप’ इस समय एक ऐसे वाहन पर सवार है, जिसमें ब्रेक है ही नहीं। बहाव के विरुद्ध चलने का नारा देने वाले अरविंद केजरीवाल इस समय अपनी सरकार सड़क से ही चला रहे हैं। उनका यह ड्रामा टीवी पर लोग देख ही रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस खामोश बैठी है। वह भी अरविंद केजरीवाल के खिलाफ सड़क पर उतरकर नारेबाजी कर रही है। ऐसे में यह कैसे विश्वास किया जाए कि सब कुछ ठीक चल रहा है। अब अरविंद केजरीवाल ने नया शिगूफा छोड़ा है कि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को सोने नहीं दूंगा। क्या यह अच्छी स्थिति है? दिल्ली वाले अब यही सोच रहे होंगे कि जिसे सब कुछ समझा, वह किसी काम का नहीं रहा। कांग्रेस की स्थिति ऐसी है कि न तो वह समर्थन वापस ले सकती है और न ही केजरीवाल सरकार का साथ दे सकती है। लेकिन कहा तो यही जा सकता है कि केजरीवाल शासन का काउंटडाउन शुरू हो गया है, क्योंकि संघर्ष को उन्होंने स्वयं ही आमंत्रित किया है। दिल्ली में एक ही सड़क पर केजरीवाल जिंदाबाद और केजरीवाल मुर्दाबाद के नारे एक साथ सुनाई भी पड़ रहे हैं।
कांग्रेस की लाचारी प्रजा के सामने दिखाई दे रही है। ‘आप’ लगातार कांग्रेस के खिलाफ जहर उगल रही है, कांग्रेस कु़छ नहीं कर पा रही है। दूसरी तरफ लगता है कि ‘आप’ कांग्रेस को यह बताना चाहती है कि हमें समर्थन देकर आपने कितनी बड़ी गलती की है, यह हम बताना चाहते हैं। हम ऐसे हालात पैदा करेंगे, जिससे आपको समर्थन देने की भूल समझ में आएगी। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल यह मांग कर रहे हैं कि पुलिस तंत्र पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण होना चाहिए। यह एक हद तक सही मांग हो सकती है। पर जिस तरीके से वह इस मांग को मनवाने की कोशिश कर रहे हैं, वह तरीका गलत है। क्या उन तीन पुलिस अधिकारियों को सस्पेंड करने या उनका तबादला करने की मांग को लेकर सड़क पर उतरने के  पहले उन्होंने दिल्लीवासियों से पूछा था? आज दिल्ली में अराजकता की स्थिति है। ऐसे में मुख्यमंत्री स्वयं कह रहे हैं कि हां मैं अराजक हूं। उन्होंने खुले आम धारा 144 का उल्लंघन किया है। उनके सामने तीन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई आवश्यक है या 26 जनवरी की तैयारी। वे आज केंद्र सरकार के खिलाफ खुलकर सड़क पर आ गए हैं। इससे आम आदमी को कितनी परेशानी हो रही है, इसे समझने की कोशिश की है कभी उन्होंने? केजरीवाल के तमाम आक्षेपों के सामने कांग्रेस ने अपना मुंह सील लिया है। केवल एक ही नेता ने यह कहने की हिम्मत जुटाई कि केजरीवाल सरकार का काउंट डाउन शुरू हो गया है।
भारतीय राजनीति में जिस तरह से आम आदमी पार्टी आगे बढ़ रही है, उसे देखकर लगता है कि इसके नेता एक बिना ब्रेक की गाड़ी पर सवार हैं। दिल्ली में आप पार्टी भारतीय राजनीति का समीकरण बदल देगी, ऐसा समझा जाता था। पर यह नई नवेली पार्टी अपने ही चक्रव्यूह में फंस गई है। इस पार्टी के नेताओं का अहंकार और दंभ से भरा चेहरा अब दिल्लीवासियों ने देख लिया है। यह चेहरा कितना कुरूप होगा, यह तो समय ही बताएगा, पर अभी से ही यह चेहरा इतना वीभत्स है कि लोग को अपनी सोच पर ही हैरानी हो रही है। दिल्ली की प्रजा विभाजित हो गई है, एक तरफ वह पुलिस के अत्याचार से पीड़ित है, तो दूसरी तरफ पुलिस तंत्र को नियंत्रण में रखना भी चाहती है। अपने बड़बोलेपन के कारण आज केजरीवाल भले ही आम आदमी के हितों की बात कर रहे हों, पर सच तो यह है कि जिस मीडिया ने उन्हें ऊपर चढ़ाया, वही उसे उतारने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेगा। जिस तरह से अनुपम खेर का ‘आप’ से मोहभंग होने में बीस दिन भी नहीं लगे, उसी तरह दिल्लीवासियों का मोहभंग होने में भी ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। वे अपना आंदोलन दस दिनों तक चलाए रखने की बात कर रहे हैं, पर इस दौरान 26 जनवरी की तैयारी भी होनी है, तो उस स्थिति में क्या मुख्यमंत्री एक राष्ट्रीय समारोह में बाधक नहीं बनेंगे। अपनी आक्रामकता का तरीका उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन शायद वे आम आदमी की पीड़ा को समझ नहीं पा रहे हैं। आखिर वे अपनी किस नीति के तहत ऐसा कर रहे हैं, यह शायद किसी को नहीं पता। कांग्रेस लाचार है, वह उसकी लाचारगी का पूरा फायदा उठा रहे हैं। यदि यही हाल रहा तो अरविंद केजरीवाल एक ऐसे शख्स बन जाएंगे, जो आम आदमी की लड़ाई लड़ते-लड़ते इतने खास हो गए कि न वे आम रहे न ही खास।
केजरीवाल से यह पूछा जाना चाहिए कि पूरी दिल्ली को जाम करके, ट्रैफिक को अव्यवस्थित करके वे जनता में क्या संदेश देना चाहते हैं? देश के हर नागरिक को अपनी मांगों को रखने और आवाज उठाने के लिए लोकतंत्र में अधिकार है और अहिंसक धरना-प्रदर्शन उसका एक कारगर तरीका रहा है। क्या उन्हें यह पता नहीं कि इसके पहले उन्होंने जो भी आंदोलन या धरना प्रदर्शन किया, उसके लिए दिल्ली में निर्धारित स्थान पर ही किया। जब ऐसे कामों के लिए बाकायदा स्थान हैं, तो फिर वे ऐसे स्थान पर क्यों धरना दे रहे हैं, जहां से आम आदमी की दिक्कतें कम होने के बजाए बढ़ें। उनको ध्यान रखना चाहिए कि इससे अराजकता फैल सकती है। ऐसा होता है वे यह समझ लें कि जिस जनता ने उन्हें सर आंखों चढ़ाया है, वही उसे अपनी नजरों से गिराने में देर नहीं करेगी।
भारत में लोकतंत्र है और इस तंत्र के अपने कुछ कायदे-कानून हैं। उन्हें समझना होगा कि शासन उस तरह से नहीं चलता जैसे वह और उनके साथी चलाना चाह रहे हैं। माना कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथी तंत्र बदलने के लिए बेचैन हैं, लेकिन यह एक ऐसा काम नहीं जो रातों-रात हो सके। तथ्य यह भी है कि व्यवस्था बदलने का एक मात्र तरीका आंदोलन करना भी नहीं है। मुश्किल यह है कि केजरीवाल जिस तरह कांग्रेस को सबक सिखाने की बातें कर रहे हैं, उन्हें देखते हुए इसके आसार कम ही हैं कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में कोई समझ-बूझ कायम हो सकेगी। स्थितियां और बिगड़ें, इसके पहले दोनों पक्षों में कोई सार्थक संवाद समय की मांग है, ताकि समस्याओं का हल निकले।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 20 जनवरी 2014

‘आप’ तो ऐसे न थे



 आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख 


शनिवार, 18 जनवरी 2014

‘आप’ तो ऐसे न थे

डॉ. महेश परिमल
कहा गया है कि जो जितनी तेजी से ऊपर चढ़ता है, वह उससे भी तेजी से फिसलता भी है। ‘आप’  के साथ ऐसा ही हो रहा है। इस पार्टी ने जितनी तेजी से लोकप्रियता पाई, उससे दोगुनी तेजी से अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है। लोगों ने काफी उम्मीदें लगा रखी थी, इस नए-नवेले दल से। पर उनकी उम्मीदें टूटने लगी हैं। ‘आप’  में इन दिनों जो कुछ हो रहा है, उससे यही लगता है कि आगामी 6 महीनों में यह पार्टी टूटकर बुरी तरह से बिखर जाएगी। रोज-रोज नए-नए नाटक इस पार्टी में होने लगे हैं। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर तानाशाही का आरोप लगाया जा रहा है, वह भी उन्हीं के एक विधायक द्वारा। यह सोचने की बात है। दूसरी ओर इस पार्टी का एक और मुखौटा उतरने लगा है, जिसमें यह कहा गया था कि आगामी लोकसभा चुनावों में जो प्रत्याशी होंगे, उसके लिए पहले जनता से पूछा जाएगा। जनाधार वाले नेताओं को ही ‘आप’ का टिकट दिया जाएगा। लेकिन कुमार विश्वास अमेठी से चुनाव प्रचार शुरू कर दिया है, संजय सिंह, गोपाल राय जैसे नेता जिस तरह से विशिष्ट संसदीय क्षेत्रों में सक्रिय हो गए हैं, उससे यही लगता है कि यह पार्टी जो कहती है, वैसा कर नहीं पा रही है। लगातार एक के बाद एक झूठ सामने आ रहा है। दल की अंदरूनी लड़ाई अब सड़कों पर आ गई है। इससे ‘आप’ से जुड़ी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने कहा है कि पिछले 20 दिनों में उन्होंने जिस तरह से ‘आप’ को देखा, उससे उनका मोहभंग हो गया है। यह शुरुआत है। अभी कई और मोहभंग होने बाकी हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने बंगले के बारे में झूठ बोला। फिर वे अपने ही लोगों को इस बात के लिए राजी नहीं कर पाए कि वे जो कुछ भी बोलें, संभलकर बोलें। एक तरफ उनके वरिष्ठ नेता प्रशांत भूषण कश्मीर पर कुछ भी बोलते रहते हैं। बाद में यह कहकर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि ये उनके निजी विचार हैं। पार्टी से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यदि इस तरह से हर कोई अपना विचार मीडिया के सामने प्रकट करे, तो फिर वह कैसे उनका निजी विचार हो जाएगा? दिल्ली विधानसभा की लक्ष्मीनगर सीट से निर्वाचित विनोद कुमार बिन्नी ने जिस तरह से मुख्यमंत्री पर तानाशाह होने का आरोप लगाया है, इसके लिए जो तर्क दिए गए हैं, वह दमदार है। इस पर बिन्नी पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाया गया है। यदि बिन्नी भाजपा की भाषा बोल रहे हैं, तो फिर यह भी तय करना होगा कि मुख्यमंत्री किसकी भाषा बोल रहे हैं। राजनीतिक अनुभवहीनता और बड़बोलेपन के कारण अरविंद केजरीवाल अपने ही बयानों से लगातार विवादास्पद होते जा रहे हैं। अब उनके निशाने पर दिल्ली पुलिस है। उनकी दृष्टि में हर कोई नकारा है, तो फिर सही कौन है, इसे वे भी नहीं जानते। यही हाल रहा, तो लोकसभा चुनाव का रास्ता ‘आप’ के लिए बारुदी सुरंग से भरा होगा। जब तक यह पार्टी वैचारित दृष्टि से पुख्ता नहीं होगी, तब तक ऐसे हालात सामने आते ही रहेंगे।
इस समय ‘आप’ विस्तार की दिशा में आगे बढ़ रही है। देशभर में सदस्यता अभियान चलाया जा रहा है। पूरे देश में आम आदमी पार्टी की ही चर्चा है। लोग इसमें शामिल होने के लिए लालायित हैं। गुजरात में मल्लिका साराभाई का इस पार्टी से जुड़ना भी एक घटना है। नर्मदा बचाओ अभियान से अपनी साफ छवि बनाने वाली मेघा पाटकर भी इससे जुड़ने को बेताब है। बिहार में लालू मंत्रिमंडल से भ्रष्टाचार के आरोप में हटाए गए हंसराज नाइन ने भी इस दल से जुड़ने की घोषणा की है। इस तरह से ये सभी एक उद्देश्य के साथ इस दल से जुड़ रहे हैं। इन लोगों में राजनीति में व्याप्त कुरीतियों को हटाने का जज्बा है। नए राजनीतिक समीकरण गढ़ने का माद्दा है। सभी ने एक नया इतिहास बनाने की दिशा में कदम बढ़ाया है, तो केवल ‘आप’ के ही भरोसा। पर अब यह भरोसा टूटता जा रहा है। आम आदमी पार्टी के मुख्यालय में तोड़फोड़ हो, केजरीवाल सरकार के कानून मंत्री ने भ्रष्टाचार किया है या नहीं, बिन्नी-टीना शर्मा जैसे लोग खुलेआम पार्टी पर आरोप लगाते रहे, प्रशांत भूषण के बयानों को सीधे अरविंद केजरीवाल से जोड़ दिया जाए, केजरीवाल के पूर्वज मुस्लिम होने की अफवाह सामने आने लगे, इन सब बातों से यही लगता है कि केजरीवाल में दम तो है, पर वे जो करना चाहते हैं, कर नहीं पा रहे हैं। उन्हें अपनों का ही सहयोग नहीं मिल पा रहा है। उन पर चारों तरफ से हमले हो रहे हैं। इसके बाद भी उनके प्रति लोगों में सहानुभूति नहीं है।
आज यह कहा जा रहा है कि केजरीवाल राजनीति में नए हैं। पर वे पिछले सात साल से राजनीति को देख तो रहे ही हैं, परख रहे हैं। ‘आप’  का गठन करते वक्त उन्होंने यह विश्वास दिलाया था कि उनकी पार्टी का ढांचा लोकतांत्रिक और पारदर्शी होगा। पार्टी सादगी का प्रतिरूप होगी। पर ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। उनके सारे वादे हवा में ही रह गए। अब तो यही कहा जा रहा है कि वे नई राजनीतिक व्यवस्था देने के पहले अपना ही घर देख लें। पहले खुद के घर को व्यवस्थित कर लें, फिर नई राजनैतिक व्यवस्था देने की बात करें। ‘आप’  से लोगों को बड़ी उम्मीदें हैं, उसे इतनी जल्दी टूटने नहीं देना चाहिए। यदि ऐसा होता है, तो भविष्य में कोई भी सकारात्मक राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन खड़ा नहीं हो पाएगा। जनता के किस विश्वास से ‘आप’  को इतना सबल बनाया कि वह सत्ता पर काबिज हो सके। आज यदि ‘आप’  सत्ता पर काबिज हो गई है, तो अपनी अंदरुनी लड़ाई को ही नहीं थाम पा रही है। इससे अवसरवादी राजनीति को बल मिलता है। इसलिए यदि ‘आप’ से उम्मीदें हैं, तो उसे पूरी करना उसकी जवाबदारी है, अन्यथा लोग तो यही कहेंगे कि ‘आप’ तो ऐसे न थे।
 डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

समय के साथ हुआ चुनाव प्रचार भी हाइटेक

डॉ. महेश परिमल
पहले चुनाव आते ही शहर की गलियों में लिखा हुआ मिल जाता था कि आपके क्षेत्र से अमुक व्यक्ति अमुक पार्टी से प्रत्याशी हैं, आप उन्हें वोट दें। उसी के बाजू में उससे भी बड़े अक्षरों में प्रतिद्वंद्वी पार्टी के प्रत्याशी के बारे में लिखा हुआ था। यह प्रचार य़द्ध गलियों से शुरू होकर आम सभाओं के आयोजन से होते हुए कानफाड़ शोर पर खत्म होता था। मतदान के एक दिन पहले लोग राहत की सांस लेते थे। लेकिन इस बार पूरी फजां ही बदली हुई थी। न तो गलियां रंगी गई,  न आम सभा और न ही कानफाड़ शोर से लोगों को जूझना पड़ा। समय अपनी गति पर चलता रहा। इस बीच चुनाव में नए-नए हथकंडे अपनाए जाने लगे। लोगों को घर-बैठे ही जानकारी मिल जाती थी कि किस क्षेत्र से किस दल का प्रत्याशी अपना भाग्य आजमा रहा है। अब तो लोग प्रत्याशी का पूरा जीवन वृत्त घर बैठे निकाल लेते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अब चुनाव भी हाइटेक होने लगे हैं। यह सब इसलिए हो रहा है कि अब समय बदल रहा है। इसलिए चुनाव प्रचार के तरीके भी बदल रहे हैं। वैसे भी लोग परंपरागत दलों से बोर हो गए थे। इन सारे दलों की एक्सपायरी डेट निकल चुकी है। फिर भी जमे हुए हैं, इसलिए जनता ने बदलाव को ध्यान में रखकर इस बार दिल्ली में एक महान परिवर्तन किया है। उसे अब नहीं चाहिए ऐशो आराम में पलने वाले नेता। उसे तो चाहिए अपने ही बीच को कोई आदमी, जो हमारी समस्याओं को समझे और उसे दूर करे। बस जनता यही तो चाहती है, जो अब तक अंगद के पांव की तरह जमे दल नहीं कर पा रहे हैं, उसे नए-नए आए लोग दूर करने में लगे हैं। फिर भी लोग उन्हें काम करने नहीं दे रहे हैं। अब यही कहा जा सकता है कि नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है।
राजनीति में बदलाव के दावे के साथ दिल्ली जैसी प्रतिष्ठित राज्य की सत्ता पर ‘आप’ काबिज हो गई। यह पार्टी आखिर कब तक राजनीति में बदलाव कर पाएगी, यह तो समय बताएगा। परन्तु अभी तो यह स्वीकारना ही होगा कि यह पार्टी शिक्षित और गेरअनुभवी लोगों की पार्टी है। इसके कार्यकर्ता पार्टी के प्रति इतने अधिक समर्पित हैं कि इन्होंने दिल्ली में अन्य दलों के पेशेवर राजनीतिज्ञों पर भी भारी पड़े। सोशल मीडिया, मोबाइल एप्लीकेशन, चेट साइट्स  का इस चुनाव में व्यापक इस्तेमाल किया गया। इसका उपयोग असरकारक सिद्ध हुआ। इसके बाद अब लोकसभा चुनाव में ‘आप’ अपने इसी अनुभव का भरपूर उपयोग करेगी। इसके उपयोग से कम से कम समय में प्रजा को अपनी सही स्थिति बता दी जाती है। यही नहीं, इसके द्वारा प्रजा के विचारों को भी जानने का मौका मिल जाता है। ‘आप’ को सत्ता में पहुंचाने में सबसे बड़ी मददगार उनकी सादगी ही रही है। पर इसी सादगी का भूत धीरे-धीरे उतर रहा है। ऐसा माना जा रहा है। आए दिनों ‘आप’ में जो कुछ भी हो रहा है, उससे यही साबित होता है कि इसे भी अन्य पार्टियों का रंग चढ़ जाएगा। फिर भी इस पर अन्य दलों की अपेक्षा अधिक विश्वास किया जा सकता है। आज अरविंद केजरीवाल के पास अपना एक साधारण चेहरा है। इके अलावा स्ट्रेटेजी मेकिंग थिंक टैंक भी है। इसी थिंक टैंक द्वारा बताए गए रास्ते पर चलकर ‘आप’ अपना तंत्र स्थापित कर रही है।
अरविंद केजरीवाल मूल रूप से नए-नए आइडिया वाले व्यक्ति हैं। उनके पास कई आइडिए हैं। जनलोकपाल आंदोलन से ही केजरीवाल अपने मुद्दों को जनता के सामने ले जाने में कम्युनिकेशन के माहिर खिलाड़ी साबित हुए हैं। केजरीवाल को इस तरह के मुद्दे बताने वाले उनके अभिन्न सहयोगी योगेंद्र यादव हैं। जो इन मुद्दों का पूरी तरह से अध्ययन कर उनका डाटा तैयार करते हैं। नब्बे के दशक में भारत में पहली बार चुनाव शास्त्र के लिए सेफोलॉजी शब्द का इस्तेमाल हुआ। इस शब्द के प्रणोता हैं योगेंद्र यादव। जानकारी और उसके विश्लेषण में माहिर यादव के डेटा लोगों पर सीधी असर करते हैं। इन मुद्दाओं पर विविध राजनैतिक दल क्या सोचते हैं, इस पर उनके क्या विचार हैं, इसकी पूरी जानकारी जुटाते हैं, इस पर क्या-क्या कानूनी पेचीदगियां आ सकती हैं, उसके बारे में प्रशांत भूषण अपनी तैयारी करते हैं। इसके बाद सब मिलकर सामूहिक रूप से रणनीति तय करते हैं। इसके बाद एक तयशुदा लोकमत को जगाने के लिए आम आदमी पार्टी का प्रचार तंत्र काम पर लग जाता है। आधुनिक संसाधनों के माध्यम से प्रचार तंत्र का काम संभालते हैं अंकित लाल। आईटी इंजीनियर अंकित 27 साल के हैं। पिछले चार वर्षो से केजरीवाल के साथ काम करते हुए अब वे राजनीति में इतने पारंगत हो चुके हैं कि राजनीति के किसी भी दिग्गज के साथ राष्ट्रीय समस्या पर विचार-विमर्श कर सकते हैं। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में प्रचारतंत्र की सफलता के बाद आगामी लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार की जवाबदारी अंकित लाल को ही सौंपी गई है। दिल्ली स्थित आम आदमी पार्टी की आफिस में एक छोटा सा कमरा है, जो अंकित का कंट्रोल रूम है। इस कथित कंट्रोल रूम में चारों तरफ तारों का संजाल बिखरा पड़ा है। एक बेंच पर 15 लेपटॉप, 6-7 टेबलेट और इतने ही मोबाइल का जमावड़ा है। हर कोना केबल के वायरों से सराबोर है। यूएसबी पोर्ट जहां-तहां बिखरे पड़े हैं। 22 से 25 वर्ष के युवा इन यंत्रों में दिन-रात काम करते रहते हैं। या कहें सारी स्थितियों से अपडेट होते रहते हैं। यदि आम आदमी पार्टी को पूरे देश में पहचान मिली है,तो इसी कंट्रोल रूम में काम करने वाले युवाओं की बदौलत। केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के कोने-कोने  पर इसी माध्यम से पार्टी का हाइटेक प्रचार किया जा रहा है। आज आम आदमी सुदूर गांवों तक अपनी पहुंच बनाने का श्रेय इन्हीं युवाओं को दिया जा सकता है। आज यही युवा अब बड़े कैनवास के साथ लोकसभा चुनाव की तैयारी में है, ताकि गांव-गांव के मतदाताओं को अपनी सादगी से रिझाया जा सके।
लोकसभा चुनाव सुदूर गांव तक लड़े जाते हैं, यह सच है, पर इंटरनेट का व्यापक इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। इस समय करीब 7 करोड़ भारतीय इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसमें हर माह पौने दो प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो रही है। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले भारतीयों में से 77 प्रतिशत मेट्रो, मेगा सिटी और बी क्लास टाउन हैं। 14 प्रतिशत लोग सी क्लास विलिजेस और 9 प्रतिशत उपयोगकर्ता सुदूर गांवा के लोग हैं। इंटरनेट का उपयोग करने वालों में से से 25 प्रतिशत फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के साथ और 21 प्रतिशत वाट्सअप, बीबीएम जैसी चेट एप्लीकेशन्स के साथ जुड़े हैं। चेट एप्लीकेशन्स इतनी तेजी से पसर रहा है कि आगामी कुछ ही महीनों में यह फेसबुक दूसरे नम्बर पर आ जाएगा। चुनाव प्रचार का सीधा सा अर्थ यही है कि लोगों से संवाद। आम आदमी पार्टी इस मामले में अन्य दलों की अपेक्षा अधिक आक्रामक है। भाजपा ने भी इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं। नरेंद्र मोदी के प्रचार के लिए एक साथ कई शहरों में आम सभाओं को संबोधित करने की दिशा में काम हुआ है। कांग्रेस इस दिशा में बिलकुल ही फिसड्डी है। इसलिए उसका परिणाम भुगत रही है। वह आज तक जमीन से जुड़ नहीं पाई है। लोकसभा की कुल 542 सीटें हैं। इनमें से महानगर, शहर और अर्ध शहरी क्षेत्रों में 250-260 ही सीटें हैं। मुम्बई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता इन चार महानगरों की सीटें केवल 23 हैं। इसके अलावा अहमदाबाद, हैदराबाद, बेंगलोर, चंडीगढ़, पुणो, भुवनेश्वर, पटना, जयपुर जैसे शहरों की सीटों की संख्या 41 है। सूरत, राजकोट, नासिक, नागपुर, इंदौर, अमृतसर जैसे शहरों के बाहरी क्षेत्रों की सीटों की संख्या 58 है। यदि पूरे शहरी क्षेत्रों को इसमें समा लिया जाए, तो सीटों की संख्या 100 का आंकड़ा पार करती है।
शहरी मतदाता का रुझान विकास की तरफ ही होता है। शहरी मतदाता जाति-पांति के कारकों से दूर रहते हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया की व्यापकता के कारण अब मतदान के प्रति लोगों का रुझान बढ़ता दिखाई दे रहा है। अभी तक का सिनेरियो यह था कि शहरी मध्यम वर्ग, शिक्षित युवाओं और महिलाओं का अधिकांश भाग का झुकाव भाजपा की ओर था। पर आम आदमी पार्टी के उदय उसकी कार्यशैली से लोगों का रुझान इस पार्टी की ओर बढ़ा है। अभी एक सर्वेक्षण में भी कहा गया है कि इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हारेगी। ‘आप’ सभी दलों पर हावी रहेगी। वह अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाएगी। अब तक यह माना जा रहा था कि उत्तर प्रदेश, ओडिशा,बिहार जैसे राज्य ही प्रधानमंत्री तय करते हैं। अब यह स्थिति भी बदल रही है। दिल्ली जैसे महत्वपूर्ण राज्य पर काबिज होकर ‘आप’ ने यह बता दिया है कि लोग अब उसे नजरअंदाज नहीं कर पाएंगे। इसलिए वह भी कमर कसकर लोकसभा चुनाव में अपने तेवर दिखाएगी।
कांग्रेस 17 जनवरी की बैठक में  राहुल गांधी को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर सकती है। भाजपा ने पहले ही अपना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घोषित कर ही दिया है। देश का प्रधानमंत्री कौन होगा, इस पर कांग्रेस में ही थोड़ा सा विवाद है। कई लोग पहले से नाम घोषित नहीं करने के पक्ष में हैं। कई लोग चाहते हैं कि यदि प्रधानमंत्री घोषित कर दिया जाए, तो वोैट मांगने में दिक्कत नहीं आती। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में मोबाइल, इंटरनेट, एप्लीकेशंस जैसे हाइटेक संसाधनों का भरपूर उपयोग किया था। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह ने थ्री डी के माध्यम से जनसभाओं को संबोधित किया था। इन दोनों राज्यों में मतदाता गुजरात की अपेक्षा कम शिक्षित होने के बाद भी भाजपा का प्रचार यहां शहरी मतदाताओं पर असरकारक साबित हुआ। इस देखते हुए भाजपा लोकसभा चुनाव में भी शहरी युवा मतदाताओं को रिझाने के लिए प्रचार की इन तरकीबों का इस्तेमाल करेगी, यह तय है। अभी तक चुनावी वादे और नारे शहरों की गलियों में लिखे जाते थे। चौक में सभाएं होती थीं। लाल, पीले, गुलाबी कागजों पर नेताओं के भाषण छपे होते थे, जिन्हें बच्चे वितरित करते। पोस्टरों पर हाथ जोड़े नेता अपनी मुस्कराहट के साथ दिखते थे। दिन भर विभिन्न वाहनों पर लाउडस्पीकर से अपने-अपने प्रत्याशियों का प्रचार किया जाता था। लेकिन अब समय बदल गया है। वक्त का तकाजा है कि इसमें भी बदलाव लाया जाए। इसलिए चुनाव प्रचार का तरीका भी हाइटेक होने लगा है। ऐसा समझा जा सकता है कि राजनैतिक दलों की नीयत भी बदल जाएगी। वे भी अब आम आदमी की समस्याओं को समझेंगे और उसके निराकरण की कोशिश करेंगे। ऐसा नहीं कर पाए, तो कई दिग्गत एक बार में ही चुनावी मैदान से उखड़ जाएंगे, यह तय है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 15 जनवरी 2014

शुरुआत ऐसी है, तो अंत कैसा होगा


आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख
वर्ष की शुरुआत ऐसी है, तो अंत कैसा होगा
डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले खबर थी कि सन् 2014 का कैलेण्डर 1947 की तरह है। 1947 तो संघर्ष का वर्ष था, पर 2014 सत्ता प्राप्त करने का वर्ष माना जा रहा है। टीवी पर हमारे प्रधानमंत्री ने महंगाई पर अंकुश रखने में अपनी विफलता दर्शाई। उसी दिन ही महंगाई को बेकाबू करने वाले कारक यानी पेट्रोल-डीजल की कीमत में बढ़ोत्तरी की गई। आश्चर्य इस बात का है कि इस पर दिल्ली में काबिज आम आदमी की पार्टी के किसी भी नेता ने एक शब्द भी नहीं कहा। क्या महंगाई आम आदमी का मुद्दा नहीं है? इस वर्ष का पहला सप्ताह महंगाई की भेंट चढ़ गया। वर्ष की शुरुआत ही ऐसी है, तो समझ लो अंत कैसा होगा?
इस वर्ष के पहले सप्ताह में जिस तरह से उपयोगी चीजों के दाम बढ़ाने वाले कारकों पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस आदि की मूल्य वृद्धि हुई है, उसी से लगता है कि यह वर्ष महंगाई बढ़ाने वाला सिद्ध होगा। दूसरी ओर आम आदमी ने जिस तरह से कांग्रेस का साथ स्वीकारा है, तो प्रधानमंत्री ने पत्र वार्ता में जो कुछ कहा, उससे दोनों ही दलों में विवाद के संकेत मिले हैं। एक बात और यह भी देखने में आई कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से सरकारी बंगला वापस करने में जल्दबाजी दिखाई, उससे प्रेिरत होकर कांग्रेस-भाजपा ने भी अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं। छत्तीसगढ़ में इसे चरितार्थ करते हुए अब वीआईपी को बंदूक की सलामी न दिए जाने का निर्णय लिया गया है। सादगी की यह तो शुरुआत है। अभी बहुत सी महंगी सादगी के दर्शन होने वाले हैं। यह वर्ष लोकसभा चुनाव का है। सभी दल 272 सीट प्राप्त करना चाहते हैं। कांग्रेस-भाजपा यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बिना क्षेत्रीय दलों की सहायता से सरकार बनना मुश्किल है, इसलिए क्षेत्रीय दलों को रिझाने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं। वैसे आम आदमी पार्टी ने भी कहा है कि वह भी लोकसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े करेगी। इससे भाजपा-कांग्रेस में खलबली मची है। भाजपा अब इस चिंता में है कि नरेंद्र मोदी का प्रभाव कम कैसे पड़ गया। अरविंद केजरीवाल ने किस तरह से मीडिया में अपनी पैठ बना ली। उधर कांग्रेस को इस बात की चिंता है कि दिल्ली सरकार को दिया गया समर्थन 6 माह तक वापस नहीं लिया जा सकता और इधर इन 6 महीनों में ही चुनाव हो जाएंगे और परिणाम भी निकल आएंगे।
पिछले दो दशकों से भारत की राजनीति मिली-जुली सरकार आधारित हो गई है। इस वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा को अच्छी तरह से मालूम है कि उनके अपने दम पर 272 सीटें नहीं आ सकती। क्षेत्रीय दलों को मिलाकर रखना ही पहली प्राथमिकता है। आम आदमी पार्टी भी एक सशक्त क्षेत्रीय पार्टी होने का माद्दा रखती है। देश का उद्योग जगत के लिए 2014 कई चुनौतियां लेकर आया है। उद्योग क्षेत्र के उत्पादन के आंकड़े कमजोर हैं। यदि उत्पादन बढ़ता है, तो बेरोजगारी कम हो सकती है। प्रधानमंत्री ने पत्र वार्ता में यह स्वीकार किया है कि हम बेरोजगारी की समस्या को हल करने में नाकामयाब रहे। यदि सरकार की नीतियां स्पष्ट न हो, तो आर्थिक क्षेत्र भी कमजोर साबित होता है। सरकारी नीतियों की कमजोरी के कारण ही करोड़ों के प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं। हाल ही में चार लाख करोड़ के प्रोजेक्ट को मंजूरी मिली है। इसमें सबसे बड़ी एफडीआई वाली 53 हजार करोड़ की पॉस्को परियोजना का भी समावेश होता है। यह वर्ष हमें नई सरकार देगा। पर जो भी सरकार आएगी, उसके सामने अनेक चुनौतियां होंगी। उसे प्रजा को दिए गए वादों को पूरा करना होगा। प्रजा की अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा। इस वर्ष को प्रजा की जागृति का वर्ष कहा जाए, तो गलत न होगा। क्योंकि पिछले वर्ष आम आदमी पार्टी की सफलता इसी जागृति की ओर संकेत करती है। आजादी का साल यानी 1947 की तमाम तारीखें संघर्षो से भरी पड़ी हैं। यह वर्ष सत्ता प्राप्त करने का वर्ष है। वैसे भी इस समय रसोई गैस-पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े, तो आम आदमी पार्टी ने इस पर कुछ नहीं कहा, यह भी सोचने वाली बात है। क्या इन चीजों से आम आदमी का कोई सरोकार नहीं? आखिर क्यों खामोश है, यह आम आदमी पार्टी?
मध्यम वर्ग ने यह स्वीकार कर लिया है कि राजनैतिक पार्टियों को जो कुछ करना है, करे, पर आवश्यक जिंसों के भाव नहीं बढ़ने चाहिए। यह सभी को मालूम है कि आवश्यक जिंसों सब्जी, दूध आदि की आपूर्ति वाहनों से होती है। यदि वाहनों के ईंधन की मूल्य वृद्धि होगी, तो निश्चित रूप से आवश्यक जिंसों पर असर डालेगी। सरकार आइल कंपनियों पर इतनी अधिक मेहरबान है कि उसका बोझ आप उपभोक्ताओं पर डालने में जरा भी संकोच नहीं कर रही है। तेल कंपनियों को करोड़ों-अरबों की सबसिडी देने वाली सरकार आम उपभोक्ताओं की परेशानी को शायद समझना ही नहीं चाहती। सरकार चुनाव के पहले महंगाई को बढ़ने देगी, ऐसा लगता है, क्योंकि चुनाव के पहले दाम बढ़ाने से उसका असर वोट बैंक पर पड़ेगा, इस समय यदि मूल्य वृद्धि कर दी जाती है, तो तब तक जनता शायद इसे भूल जाए। अभी तो सारे दलों की रूपरेखा आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर बन रही है। सारे दल ईमानदार प्रत्याशी की खोज में हैं। इस देश में वोट लेने के पहले सभी अपने को ईमानदार बताते हैं, पर वोट लेने के बाद यही ईमानदारी न जाने कहां फुर्र हो जाती है। इधर महंगाई बढ़ रही है, मध्यम वर्ग का बजट बिगाड़ रही है। एक तरह से उस पर ही सारी सबसिडियों का बोझ डाल रही है। आश्चर्य इस बात का है कि जिस मुद्दे पर हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी सबसे बड़ी विफलता बताई, उसी मुद्दे पर सरकार अपना खेल कर गई। महंगाई पर अंकुश न रखने की स्वीकारोक्ति प्रधानमंत्री ने सुबह 11 बजे पत्र वार्ता में की, शाम को पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ गए। उनकी स्वीकारोक्ति भी किसी दहाड़ से कम साबित नहीं हुई।
यह वर्ष हम सभी के लिए चुनौती भरा है। लोकसभा चुनाव में सही प्रत्याशी को चुनना सबसे बड़ी चुनौती है। अब तक जिसे भी चुना, वह महंगाई बढ़ाने में सहायक ही सिद्ध हुआ। विधानसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस को मात मिली हो, पर लोकसभा चुनाव में कांग्रेस किस तरह से अपना पक्ष रखती है, यह भी देखना है। भाजपा भले ही उत्साहित हो, पर सच तो यह है कि आम आदमी पार्टी की सफलता ने सभी को चौंका दिया है। सभी यह सोचने के लिए विवश हो गए हैं कि क्या आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव में एक सशक्त दल के रूप में उभरेगी?
     डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 13 जनवरी 2014

तुरूप का पत्‍ता हे प्रियंका गांधी



आज जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख


कांग्रेस के लिए तुरूप का पत्ता है प्रियंका!
डॉ. महेश परिमल
भाजपा को अब संभल जाना चाहिए। चार राज्यों की जीत ने उसे भले ही थोड़ा बेपरवाह बना दिया हो। पर सच यह है कि अब उसके सामने न केवल ‘आप’, बल्कि प्रियंका गांधी भी है।  ‘आप’ को कम न आंकने की समझाइश संघ ने भी भाजपा को दी है। सर्वेक्षण बताते हैं कि मोदी का जादू अब उतर रहा है। क्योंकि अरविंद केजरीवाल अपने वादे और अपनी सादगी को लेकर काफी चर्चित हैं। लोग उनसे ईमानदाराना राजनीति की अपेक्षा कर रहे हैं। सच भी है अब परंपरागत पार्टियों से लोगों का मोहभंग होने लगा है। घिसे-पिटे नेताओं के बेतुके बयान सुन-सुनकर भी लोग अब बुरी तरह से बोर होने लगे हैं। ऐसे में कांग्रेस यदि प्रियंका को सामने लाती है, तो वह भाजपा के लिए भारी मुसीबत खड़ी कर सकती हैं। प्रियंका राहुल से अधिक लोकप्रिय है।  उत्तरा प्रदेश विधानसभा चुनाव में लोगों ने उन्हें प्रचार करते देखा था। लोगों को उसमें इंदिरा गांधी की छवि दिखाई देती है। उनकी मुस्कराहट, बाडी लैग्वेज, हेयर स्टाइल सभी कुछ इंदिरा जी जैसा है। यही छवि भाजपा के लिए भारी पड़ सकती है। राहुल के बाद अब कांग्रेस के पास प्रियंका के रूप में यही तुरूप का पत्ता बचा है। इसे भुनाने का सही समय भी आ गया है।
प्रियंका ने जैसे ही राहुल गांधी के लिए कांग्रेस नेताओं की बैठक में भाग लिया, वैसे ही मीडिया मानो जाग गया। चारो तरफ से प्रियंका की ही चर्चा होने लगी। प्रियंका की सक्रियता को लोग नरेंद्र मोदी के प्रभाव को रोकने से जोड़ने लगे हैं। कोंग्रेस की मुख्य चिंता उत्तर प्रदेश है। वहां वह 20 से अधिक प्राप्त करना चाहती है। ताकि सपा-बसपा को सबक सिखाया जा सके। दूसरी ओर कांग्रेस को एक ऐसे चेहरे की आवश्यकता है, जो नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सके। अभी तक कांग्रेस के पास ऐसा कोई जादुई चेहरा नहीं है, जो ऐसा कर सके। इसलिए सबकी नजरें प्रियंका पर जाकर टिक गई हैं। वैसे गांधी परिवार में यदि राहुल और प्रियंका की तुलना की जाए, तो प्रियंका को राहुल से अधिक अंक मिलते हैं। प्रियंका प्रतिभावान है, इसमें कोई शक नहीं। पर आज जो कांग्रेस की हालत है, उसे ठीक करने के लिए गांधी परिवार से हटकर कुछ ऐसा करना ही पड़ेगा, जिससे पूरी कांग्रेस बेदाग छवि के साथ लोगों के सामने आए। इसके लिए प्रियंका को काफी परिश्रम करना पड़ेगा। कांग्रेस में अभी भी ऐसे लोग हैं, जो सत्ता प्राप्त करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। आज केवल राहुल ही नहीं, बल्कि स्वयं सोनिया और अब प्रियंका भी ऐसे चापलूसों से घिरे हुए हैं, जो परले दर्जे के स्वार्थी हैं। इन पार्टी की मजबूती से ज्यादा स्वयं की मजबूती की चिंता है। इसलिए येन केन प्रकारेण इस तरह के बयान आते रहते हैं कि गांधी परिवार के अलावा कोई भी कांग्रेस को जीवित नहीं रख सकता। देश का उद्धार गांधी परिवार से ही होना है। इस तरह की धारणा कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है।
चार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली पराजय से पार्टी पूरी तरह से सजग हो गई है। भाजपा ने नरेंद्र मोदी को आगे बढ़ाकर उसे पूरे देश में ही चर्चित कर दिया है। वे देश के कोने-कोने में जाकर गरज रहे हैं। उनकी लोकप्रियता का अंदाज इसी से लग जाता है कि राहुल गांधी की सभा में जितने लोग लाए जाते हैं, उससे कई गुना लोग नरेंद्र मोदेी की आम सभा में दिखाई देते हैं। कांग्रेस अब राहुल गांधी को आगे करने में घबरा रही है। वह चिदम्बरम, ए.के. एंटोनी, नंदन निलकेणी जैसों के नाम को आगे बढ़ा रही है। वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कह दिया है कि वे अब किसी भी तरह से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होना चाहते। इससे उपरोक्त नामों को बल मिला है। इसमें अब प्रियंका का नाम जुड़ जाने से देश की राजनीति में एक उबाल सा आ गया है। भले ही प्रियंका में लोग इंदिरा गांधी की छवि देख रहे हो, पर इंदिरा गांधी जैसा दिखना और इंदिरा गांधी जैसा होना दोनों ही अलग बात है। यह बात अलग है कि जो प्रियंका को जानते हैं, उनका मानना है कि वे इंदिरा जी जैसी ही सख्त और दृढ़ हैं। वे अपने लुक के लिए विशेष रूप से सजग हैं। भारतीयों को तो वे स्ट्रांग और इम्प्रेसिव दिखाई देती हैं। उनके सामने राहुल नेचरल हैं। राहुल अपने दिखावे को लेकर प्रियंका जितना सजग नहीं हैं। राहुल शायद अपने काम से अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। गुनाहगार राजनेताओं को बचाने और आदर्श घोटाले में मंत्रियों को बचाने के मामले को लेकर उन्होंने अपनी दृढ़ता का परिचय दिया ही है। दिल्ली में आप को बिना किसी शर्त के समर्थन देने में राहुल की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। ऐसा माना जा रहा है।
आज जमाना मार्केटिंग का है। कांग्रेस ने राहुल की छबि को सुधारने के लिए जापान की एक कंपनी को 500 करोड़ का ठेका दिया है। कांग्रेस के कई हितकारी कामों को मीडिया में उतना स्थान नहीं मिला, जितना घोटालों को। इसलिए कांग्रेस ने जो हितकारी काम किए हैं, उसे सिलसिलेवार बताना जनता तक पहुंचाना आवश्यक है। अनाज योजना और सबसिडी की राशि डायरेक्ट उपभोक्ता के बैंक खाते में जमा करने की योजना महत्वपूर्ण है, लेकिन यह योजना प्रचार-प्रसार के अभाव में चर्चित नहीं हो पाई। अब राहुल, प्रियंका और जापानी कंपनी पर ही यह दारोमदार है कि वह मैदान में आकर कांग्रेस की इन उपलब्धियों को जनता के सामने लाए। 17 जनवरी को दिल्ली में अ.भा. कांग्रेस कमेटी की बैठक है, इस पर सभी की नजरें हैं। इसी बैठक में प्रधानमंत्री पद के लिए नाम की घोषणा की संभावना है। वैसे कुछ नेता मानते हैं कि चुनाव के पहले प्रधानमंत्री का नाम घोषित करना उचित नहीं है। प्रियंका को राजनीति का उतना अनुभव नहीं है, जितना राहुल को है। राहुल पार्टी में सक्रिय हैं, पर प्रियंका नहीं है। यदि बैठक में प्रियंका का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए सामने आता है, तो यह भाजपा के लिए बहुत ही मुश्किल होगा। अब देखना यह है कि कांग्रेस प्रियंका नाम का यह तुरूप का पत्ता कब चलती है।
  डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 8 जनवरी 2014

कांग्रेस के लिए महंगा साबित होगा पुनर्विचार

आदर्श घोटाला रिपोर्ट:
डॉ. महेश परिमल
आदर्श घोटाला एक ऐसा घोटाला है, जिसमें परत-दर-परत नई-नई परतें खुलती जा रही हैं। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जब इसकी रिपोर्ट को पुनर्विचार के लिए पुन: महराष्ट्र सरकार के पास भेजी, उससे तो यही लगता था कि अब निश्चित रूप से इस पर पुनर्विचार होगा। लेकिन जो रिपोर्ट आई है, उससे नहीं लगता कि रिपोर्ट पर नए सिरे से विचार हुआ है। शायद राहुल गांधी इसी तरह की रिपोर्ट चाहते थे। जो उन्हें मिल गई। सच बात तो यह है कि रिपोर्ट में मंत्रियों को पूरी तरह से साफ-शफ्फाक बताया गया है। सारे मंत्रियों को एक सिरे से बचा लिया गया है। दोषी वही हैं, जो मंत्री नहीं हैं। इसे आंशिक रिपोर्ट कहा जाए, तो गलत न होगा। इस रिपोर्ट ने कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। ये ऐसे सवाल हैं, जो न केवल महाराष्ट्र सरकार बल्कि कांग्रेस को भी कठघरे में खड़ा करते हैं। महाराष्ट्र सरकार ने जो रिपोर्ट भेजी थी, उस पर सबसे पहली और बड़ी आपत्ति राहुल गांधी को ही थी, इसीलिए उन्होंने रिपोर्ट को वापस भेज दी थी। अब उन्हें ही यह बताना होगा कि क्या वे ऐसी ही रिपोर्ट की आशा कर रहे थे। क्या उनके सामने ऐसी ही रिपोर्ट की छवि थी, जिसमें सभी नेताओं एवं मंत्रियों को बचा लिया जाए, बाकी सभी को दोषी माना जाए।
मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान से यह उम्मीद तो कतई न थी। देश में ऐसी कई रिपोर्ट हैं, जिस पर पुनर्विचार करना है, वे अभी भी धूल खा रही हैं। इस रिपोर्ट पर इतनी जल्दी विचार हो भी गया और मंत्रियों को बचा भी लिया गया। इसी तत्परता से अन्य रिपोटरें पर भी पुनर्विचार हो जाता, तो कितना अच्छा होता। इस रिपोर्ट से यह तो स्पष्ट हो गया है किहमेशा की तरह ही इस बार भी नौकरशाह ही दोषी पाए गए हैं। एक तरफ कांग्रेस भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए तरह-तरह के जतन कर रही है, दूसरी तरफ भ्रष्टाचार का पोषण करने वाली आधी-अधूरी रिपोर्ट को स्वीकार कर रही है। शायद इसी मकसद से राहुल गांधी ने रिपोर्ट को खारिज कर दी थी, क्योंकि उसमें नेताओं-मंत्रियों को भी दोषी बताया गया था। अभी जो रिपोर्ट आई है, उसमें मंत्रियों को पूरी तरह से संरक्षण मिल रहा है। एक अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह बताया गया है कि इस घोटाले में जिसने भी थोड़ी सी भी सहायता की, उसे फ्लैट मिला है। फिर वह चाहे सेना का अधिकारी हो, या फिर किसी मंत्री-नेता का संबंधी। इस रिपोर्ट के पुनर्विचार के नाम पर ऐसे फैसले को जायज बताने की कोशिश की गई है, जिसमें नेता और मंत्री पूरी तरह से संलिप्त हो। यह कैसी रिपोर्ट है, जिसमें नौकरशाहों पर कार्रवाई हो, और मंत्री-नेता साफ बच जाएं। इस रिपोर्ट ने यह साबित कर दिया कि भ्रष्टाचार में गले तक डूबे नेताओं-मंत्रियों पर किसी भी तरह की कार्रवाई करना कितना मुश्किल है। जब आदर्श घोटाला चर्चा में था, तब सोनिया गांधी ने ही कहा था कि इस मसले को सुलझा लिया जाएगा। शायद उनका संकेत इसी तरफ था कि इसे इस तरह से सुलझा लिया जाएगा। किसी समस्या को सुलझाने का यह कौन सा तरीका है, जिसमें सभी दोषी हों, पर कुछ को बचा लिया जाए और कुछ को दोषी ठहरा दिया जाए।
देश में अब तक हुए तमाम घोटालों में यही सामने आया है कि जो भी राजनैतिक घोटाला होता है, उसमें नेता और मंत्री तो किसी भी तरह से दोषी नहीं पाए जाते, हमेशा नौकरशाह ही निशाने पर होता है। भ्रष्टाचार को शह देकर कांग्रेस कभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम नहीं उठा सकती। क्या सोनिया गांधी अब भी यह शिकायत करेंगी कि मीडिया को विपक्षी दलों के भ्रष्टाचार पर भी नजर डालनी चाहिए। ऐसी शिकायत तो वही कर सकता है जो भ्रष्टाचार के मामले में पूरी तरह से पाक-शफ्फाक होकर फैसले करता हो। इस दौरान वह इसकी भी परवाह नहीं करता, जो इसमें कौन अपना है और कौन पराया। यहां तो यह नजर आ रहा है कि दूसरे के भ्रष्टाचार में सभी नेता ही दोषी, और अपने भ्रष्टाचार में नेताओं को छोड़कर सभी दोषी। यह भी कोई बात हुई। वैसे भी कांग्रेस पर यह आरोप लगता रहा है कि वह भ्रष्टाचार की पोषक है। भ्रष्टाचार के मामलों में आधी-अधूरी और एक पक्षीय कार्रवाई करके कांग्रेस आखिर क्या हासिल करना चाहती है? इससे उसे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। नेताओं द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के प्रति राजनीतिक दलों का रवैया अभी भी दिखावटी है। पृथ्वीराज चौहान ऐसा कैसे कह सकते हैं कि आदर्श घोटाले में जो भी गलत हुआ, उसे नौकरशाहों ने किया। जो सही हुआ, वह नेताओं-मंत्रियों ने किया। यह हास्यास्पद है। जस्टिस पाटिल की रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि आदर्श घोटाले में नेताओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। उसे कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। एक तरह से जस्टिस पाटिल की रिपोर्ट को ही खारिज कर दिया गया है। इसे लोकतंत्र तो कतई नहीं कहा जा सकता।
महाराष्ट्र सरकार के पुनर्विचार के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चौहान का मामला वहीं के वहीं है। सीबीआई उनके खिलाफ कार्रवाई करना चाहती है, पर राज्यपाल इसकी अनुमति नहीं दे रहे हैं। हमेशा यही कहा जाता है कि राज्यपाल के फैसले में सरकार और पार्टी की कोई भूमिका नहीं होती। पर देखा यही जा रहा है कि राज्यपाल वही फैसले लेते हैं, जो पार्टी चाहती है। इस मामले में भी यही बात सामने आई है। पुनर्विचार रिपोर्ट के माध्यम से कांग्रेस  स्वयं को निरापद नहीं रख पाई है। यह रिपोर्ट उसके लिए महंगी साबित होगी। उस स्थिति में जब आज पूरा देश भ्रष्टाचार की ही चर्चा है। इसमें कांग्रेस को सबसे आगे माना जा रहा है।
    डॉ. महेश परिमल

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