सोमवार, 28 अप्रैल 2014

गिर के शेरों पर संकट


लोकमत के 27 अप्रैल 2014 के अंक में प्रकाशित मेरा आलेख

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

बयानों से बाहर आती कटुता


दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

कांग्रेस के लिए किरकिरी बनी किताबें



आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख


लाचार प्रधानमंत्री पर दो किताबें
डॉ. महेश परिमल
पीएम के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब ‘द ऐक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ़ मनमोहन सिंह’  से उपजे सवालों का जवाब कांग्रेस अभी खोज ही नहीं पाई है कि पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की किताब ‘क्रूसेडर्स ऑर कॉन्सपिरेटर्स-कोलगेट ऐंड अदर ट्रूथ ’ सामने आ गई है। इस किताब में यूपीए 2 के दौरान प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं। इन दोनों किताबों के बाद कांग्रेस का आरोप है कि इसके पीछे नरेंद्र मोदी हैं। पारख ने अपनी किताब में लिखा है कि 17 अगस्त 2005 को मैं प्रधानमंत्री से मिलने गया। मंि उन्हें बताना चाहता था कि किस तरह से सांसद अधिकारियों का अपमान कर रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी वेदना सामने रखते हुए कहा कि मैं भी इसी समस्या से जूझ रहा हूं। लेकिन ये राष्ट्रहित में सही नहीं होगा कि ऐसे हर मुद्दे पर मैं त्यागपत्र देने की बात करूं। किताब के मुताबिक पार्लियामेंट स्टैंडिंग कमेटी की एक मीटिंग में बीजेपी सांसद धमेर्ंद्र प्रधान ने पारख का अपमान किया जिसके बाद उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था। इसी के बाद वो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने गए थे। यही नहीं पारख ने मनमोहन सिंह और उनके मंत्रियों के बीच के संबंधों के बारे में भी किताब में खुलासा किया है। पारख ने लिखा है कि मैं नहीं जानता कि अपने ही मंत्रियों की तरफ से लगातार अपमान मिलने या फिर फैसलों के बदले जाने के बाद अगर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देते तो देश को उनसे बेहतर प्रधानमंत्री मिल पाता या नहीं। यह सभी जानते हैं कि यूपीए में सत्ता का एकमात्र केंद्र सोनिया गांधी ही थीं। संजय बारू यह मानते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह ने एक तरह से सोनिया गांधी के आगे घुटने टेक दिए थे।
राजनीति के हमेशा दो केंद्र होते हैं। एक केंद्र  परदे के सामने होता है, जो प्रचार माध्यमों से हमें देश की उपलब्धियों की जानकारी देता रहता है। दूसरा केंद्र परदे के पीछे होता है, जिसमें होने वाली घटनाओं की जानकारी हमें कभी नहीं मिल पाती। किस घटना के पीछे आखिर क्या रहस्य था, यह तभी पता चलता है, जब इस पूरी टीम के किसी सदस्य की आत्मा जाग जाती है, अथवा विरोधी उसे अपने वश में कर लेते हैं। इसके बाद उसके द्वारा दी गई जानकारी हमेशा चौंकाने वाली होती है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के निजी सचिव एम.ओ. मथाई ने अपने संस्मरणों में जो कुछ लिखा, उसमें कई चौंकाने वाली जानकारी मिली। अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारु ने अत्यंत विवादास्पद किताब लिखी है। इसमें प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के बीच सत्ता के समीकरणों और अंदर की बातें सामने लाने की कोशिश की गई है। अस किताब से यह साफ पता चलता है कि यूपीए में एक ही पॉवर सेंटर था और वह थी सोनिया गांधी। जिस तरह से कुरुक्षेत्र के युद्ध में नेत्रहीन घृतराष्ट्र ने संजय की दृष्टि से युद्ध का आंखो देखा हाल सुना था, ठीक उसी तरह संयज बारू ने प्रधानमंत्री कार्यालय में चल रही सत्ता का अंतद्र्वंद्व की छोटी से छोटी जानकारी दी है। बारु के अनुसार प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा जो भी नीति विषयक निर्णय लिए जाते थे, वे सभी सोनिया गांधी से पूछकर ही लिए जाते थे। प्रधानमंत्री कार्यालय में मुख्य सचिव के रूप में अपनी भूमिका निभाने वाले पुलक चटर्जी सोनिया गांधी के वफादार थे। वे सोनिया गांधी के साथ रोज मीटिंग करते और सरकार के सभी महत्वपूर्ण निर्णयों पर सोनिया गांधी से चर्चा करते। उसके बाद उनसे आदेश लेते। सोनिया के आदेश ही प्रधानमंत्री कार्यालय से उनके आदेश के रूप में बाहर आते। इस मामले में कहा तो यहां तक जा रहा है कि प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह के पास जो अत्यंत गोपनीय दस्तावेज और फाइलें आतीं थीं, उसे भी पुलक चटर्जी सोनिया गांधी को दिखाकर उनके सुझाव लेते थे। इस तरह से प्रधानमंत्री ने अपनी शपथ को भंग किया है, जो उन्होंने पद संभालने के पहले ली थी। संजय बारु की किताब बाहर आने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने उसे निराधार बताया है और कहा है कि यह एक कल्पना मात्र है। बारु का कहना है कि पिछले दस वर्षो से चल रहे इस सिस्टम के तहत कोई भी आदेश प्रधानमंत्री का नहीं है, बल्कि वह उनकी आड़ में सोनिया गांधी का ही है।
बारु अपनी किताब में लिखते हैं कि सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 209 सीटें प्राप्त की। इस कारण डॉ. मनमोहन सिंह को यह लगा कि अब उनकी ताकत बढ़ गई है, पर सोनिया गांधी ने उन्हें उनकी औकात दिखा दी। सन् 2009 में जब मंत्रिमंडल का गठन हुआ, तब प्रधानमंत्री ए. राजा को शामिल नहीं करना चाहते थे। पर श्रीमती गांधी के दबाव में उन्हें ए. राजा को मंत्रिमंडल में लेना पड़ा। इसके अलावा डॉ. सिंह पी. चिदम्बरम के स्थान पर अपने आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, पर श्रीमती गांधी के आदेश से प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री बनाया गया। इसके बाद मनमोहन सिंह पर अंकुश रखने के लिए प्रणब मुखर्जी को देश का राष्ट्रपति बना दिया गया। अपने निर्णयों की फजीहत देखकर प्रधानमंत्री को अपमान का कड़वा घूंट पीना पड़ा। यूपीए शासन में एक ऐसा सिस्टम बन गया था कि सरकार की जो भी उपलब्धि हो, उसका श्रेय श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी के जाए, और जितनी भी विफलताएं हो, वे सब प्रधानमंत्री के खाते में जाएं।
15 अगस्त सन् 2007 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने महात्मा गांधी नेशनल रुरल एम्पायमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा)की घोषणा की, इससे राहुल गांधी को लगा कि इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री को चला जाएगा, तो उसने तुरंत ही प्रधानमंत्री से मुलाकात की। उसने प्रधानमंत्री को स्रूचित किया कि मनरेगा का विस्तार देश के 500 जिलों में किया जाना चाहिए। यह जानकारी भी वे लाल किले से कर चुके थे। इससे राहुल गांधी के सलाहकारों द्वारा एक परिपत्र जारी किया गया, जिसमें मनरेगा का पूरा श्रेय राहुल गांधी को देने की जानकारी थी। यह परिपत्र लेकर सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल संजय बारु के पास पहुंचे और कहने लगे कि आप ये परिपत्र प्रधानमंत्री कार्यालय के नाम से जारी करो। संजय बारु ने ऐसा करने से इंकार कर दिया, इसलिए दूसरे ही दिन यह परिपत्र कांग्रेस पार्टी द्वारा जारी कर दिया गया। यह परिपत्र एक आवश्यक खबर के रूप में अखबारों में प्रकाशित भी हो गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के मामले में अपने हाथ साफ रखते थे। पर अपने साथियों के भ्रष्टाचार को अनदेखा करते। संजय बारु अपनी किताब में लिखते हैं कि मनमोहन सिंह को अखबारों में यदि सोनिया से अधिक प्रचार मिलता, तो वे बैचेन हो जाते, पर सोनिया की लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ेता, तो उन्हें राहत मिलती। मनमोहन सिंह बार-बार अपमान का घूंट पीकर प्रधानमंत्री की कुर्सी से चिपके रहे, इससे देश रसातल में चला गया। प्रधानमंत्री के पहले कार्यकाल में ही हालत इतनी खराब थी, तो उन्हें उसी समय अपने पद से इस्तीफा दे देना था, इससे 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला न होता और न ही दूसरे घोटाले। इससे कांग्रेस की फजीहत न होती और देश रसातल में जाने से बच जाता। पर कुर्सी का मोह के कारण उन्हें अपनी आंखों से बहुत कुछ गलत होते देखना पड़ा। इसे हम उनकी लाचारगी ही कह सकते हैं। पर देश को इतना लाचार और बेबस प्रधानमंत्री की आवश्यकता नहीं है।
आज जब संजय बारु और पीसी पारेख ने अपनी किताब के माध्यम से प्रधानमंत्री की लाचारगी और बेबसी को सामने लाया गया है, कांग्रेसी यह कह रहे हैं कि किताबें में जो कुछ लिखा गया है, वह झूठ है। तब फिर सच क्या है, यह भी उन्हें बताना चाहिए। वैसे देखा जाए, तो यह किताबें न भी आतीं, तो भी यह पता चल ही जाता कि केंद्र सरकार की सत्ता की चाबी सोनिया गांधी के पास थी। क्योंकि जो कुछ हो रहा था, वह प्रधानमंत्री का मौन ही बता रहा था। सरकार की विफलताओं का सारा श्रेय प्रधानमंत्री को मिला और उपलब्धियों का पूरा श्रेय राहुल और सोनिया गांधी के खाते में गया। यह पूरा काम एक व्यवस्था के तहत हुआ। देश का बच्च बच्च जानता है कि प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह की भूमिका एक रबर स्टंप की तरह ही थी। इसलिए पिछले एक महीने से प्रधानमंत्री का कोई बयान भी सामने नहीं आया। क्या ऐसा हो सकता है कि देश में भावी सरकार के लिए मतदान हो रहे हों और देश का प्रधानमंत्री एकदम खामोश रहे?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

वादे करने में शूरवीर, अमल में शून्य

डॉ. महेश परिमल
देश में 16 वीं लोकसभा चुनाव के लिए तीसरे चरण का मतदान हो चुका है। दिल्ली की 7 सीटों का भी इसमें समावेश होता है। किंतु  चारों तरफ केवल चुनावी घोषणा पत्रों की ही चर्चा है। सभी दल अपने घोषणा पत्रों में ढेर सारे वादे करते हैं, पर उस पर अमल में लाने की फुरसत किसी को भी नहीं होती। वचन देने में हमारे नेता सबसे आगे हैं, किंतु उसे पूरा करने में सबसे पीछे। वचन देने में कोई दल किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। पर अमल की जब भी बात आती है, तो सारे दल एक-दूसरे का मुंह ही ताकते रहते हैं। सभी दलों ने अपने घोषणा पत्र में आर्थिक तंत्र, विदेश नीति, स्वास्थ्य, महिला उद्धार, शिक्षा गवर्नेंस जैसे मुद्दों को शामिल किया है। चर्चा यह भी है कि क्या सारे दल अपने घोषणा पत्र के अनुसार व्यवहार करेंगे? क्या यह लोगों को भरमाने का एक उपक्रम मात्र है? इस समय मतदाताओं की इन दलों से अपेक्षा बढ़ीं हैं, इसलिए राजनीतिक दलों के वचनों की संख्या भी बढ़ गई है। किंतु इतने सारे वचनों को पूरा करने में क्या ये दल सक्षम हैं? इन पर किसी का ध्यान नहीं जाता। आजकल घोषणा पत्र महज एक औपचारिकता रह गई है। पहली बार ऐसा हुआ है कि मतदान शुरू होने के दिन किसी दल ने अपना घोषणा पत्र जारी किया हो। घोषणा पत्र में किए गए वादों से जनता त्रस्त हो चुकी है। अब सभी समझने लगे हैं कि चुनावी घोषणा पत्र भी केवल चुनावी वादों की तरह ही हैं। विभिन्न दल मतदान के पहले ये वादे करते हैं कि वे पूरे देश में आमूल-चूल परिवर्तन ला देंगे। इस तरह के वादे कर वे हथेली पर चांद उगाने की कोशिश करते हैं। अब जनता इस तरह के वादों से परेशान हो गई है। उनका मानना है कि वादों की सूची बड़ी न होकर छोटी करो, पर उन्हें पूरा करने में जी-जान लगा दो।
घोषणा पत्र जारी करना आसान है, पर उस पर अमल लाने के बजाए नागरिकों के सामने अपनी डींगें बताई जाती हैं। आíथक तंत्र की बात की जाए, तो पिछले दशकों में सबसे कम आíथक विकास दर 4.5 प्रतिशत है। मेन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में सराहनीय प्रयासों की कमी देखी गई है। बजट घाटा निराशाजनक है। कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में कह रही है कि 2015-16 में हम बजट घाटा कम करेंगे। उत्पादन क्षेत्र को मजबूत कर विभिन्न राहतें देंगे। अटकी हुई परियोजनाओं को शुरू करेंगे। इस पर भाजपा कहती है कि सीनियर सिटीजन को कर राहत दी जाएगी। उन्हें अधिक ब्याजदर दी जाएगी। इसी तरह अन्य दल भी आथिर्क तंत्र को मजबूत बनाने का दावा कर रहे हैं। विदेश नीति की बात की जाए, तो परमाणु ऊर्जा समझौता और देवयानी खोब्रागड़े के मामले में अमेरिका से संबंध थोड़े बिगड़े थे। पाकिस्तान के साथ भी संबंध अच्छे नहीं है। एफडीआई के मामले में भी विदेश नीति के खिलाफ सवाल खड़े हुए थे। कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में कहती है कि पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने के प्रयास किए जाएंगे। इसी तरह श्रीलंका के तमिलों के पुनर्वास के लिए प्रयास करेंगे। भाजपा ने पड़ोसी देशों के साथ संबंध सुधारने की दिशा में मजबूत कदम उठाने पर बल दिया है। वामपंथी दलों ने भी कहा है कि पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने का पूरा प्रयास किया जाएगा। कई राजनीतिक दलों ने विदेशी नीति को छेड़ा नहीं है। अधिकांश ने पड़ोसी देशों से संबंध सुधारने की बात की है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत की स्थिति अच्छी नहीं है। विश्व में पोषणयुक्त आहार से पीड़ित एक तिहाई लोग भारत में हैं। स्वास्थ्य को लेकर जीडीपी की 12 प्रतिशत राशि खर्च होती है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कहा है कि अब जीडीपी की तीन प्रतिशत राशि स्वास्थ्य पर खर्च होंगे। 2020 तक स्वास्थ्य के क्षेत्र में 60 लाख रोजगार के नए आयाम खोले जाएंगे। भाजपा के अनुसार वह नेशनल हेल्थ इंश्योरेंसमिशन लाएगी। इससे नई स्वास्थ्य नीतियां आएंगी। वामपंथी दल सीपीआई(एम)स्वास्थ्य पर 5 प्रतिशत खर्च करना चाहती है। स्वस्थ प्रशासन देने में मनमोहन सरकार पूरी तरह से निष्फल साबित हुई है। 2 जी स्पेक्ट्रम के आवंटन, कोल ब्लॉक और कॉमनवेल्थ गेम आदि में बड़े घपले सामने आए हैं। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में लिखा है कि तय समयसीमा में सरकारी कार्यालयों में काम हो, इसके लिए ग्रीवान्सिस बिल-2011 लाया जाएगा। भाजपा ने लिखा है कि लोकपाल का असरकारक रूप से उपयोग किया जाएगा। नेशनल ई गवर्नस प्लान भी तैयार किया जाएगा। सीपीआई(एम) कहती है कि वह लोकपाल एक्ट और व्हीसल ब्लोअर एक्ट की समीक्षा करेगी।
सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा शिक्षा का है। हाल में सरकार जीडीपी की 3 प्रतिशत राशि शिक्षा पर खर्च कर रही है। पढ़ाई बीच में छोड़ने वालों का प्रतिशत बहुत ही अधिक है। कांग्रेस इस मुद्दे पर कहती है कि पढ़ाई बीच में छोड़ने वालों की संख्या कम करने की कोशिश करेगी। भाजपा कहती है कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत पढ़ाई का भारमुक्त बनाया जाएगा। इसके अलावा युवाओं को ऐसी शिक्षा दी जाएगी, जिससे पढ़ाई के साथ-साथ उनकी आवक भी हो। सीपीआई (एम) कहती हैकि वह जीडीपी की 5 प्रतिशत राशि शिक्षा पर व्यय करेगी। डीएमके भी शिक्षा पर 7 प्रतिशत राशि खर्च करना चाहती है। इस तरह से तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी तरफ से वादे किए हैं। पर इन्हें बाद में अपने ये वादे याद ही रहते। इसका पूरा दोष वे सहयोगी दलों पर डाल देते हैं। अब प्रजा समझ गई है कि हमारे नेता वादे करने में शूरवीर हैं, पर उसे अमल में लाने के नाम पर बिलकुल शून्य। वादे पूरे करना उन्हें आता ही नहीं है। इसलिए अब इनके वादों पर न जाकर उनके काम को देखा जाए। यदि कोई दल अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए बड़े दलों से जा मिलता है, तो ऐसे क्षेत्रीय दलों के प्रत्याशियों को पहली नजर में ही नकार दिया जाना चाहिए। अजित सिंह जैसे लोग सत्तारूढ़ दल के ही साथ रहे हैं। इनकी अपनी कोई पहचान नहीं है। इसलिए ऐसे दलों पर कभी भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। वास्तव में क्षेत्रीय दल ही मुख्य दल को गलत रास्ते पर ले जाने के लिए तैयार रहते हैं। कई बार मुख्य दलों की परेशानी सामने आई हैं। इसे हमारे प्रधानमंत्री ने टीवी पर सबके सामने स्वीकार भी किया है। इसलिए जनता को सचेत होकर ऐसे दलों को वोट देना चाहिए, जो अपने वादे पूरा करना जानते हों।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

मोदी गरज रहे, शेर मर रहे

 

दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख


शेर मर रहे हैं, मोदी गरज रहे हैं
डॉ. महेश परिमल
आमतौर पर देश में साधारण लोगों को अपने पूर्वजों के मोक्ष को लेकर श्राद्ध-यज्ञ कर पाना संभव नहीं हो पाता। वहीं गुजरात में प्रदेश के गौरव समान शेरों की आपदाओं से सुरक्षा व एवं मृतक शेरों व अन्य वन्य प्राणियों के मोक्ष के लिए पिछले दिनों श्राद्ध व कल्याणकारी महायज्ञ आयोजित किया गया। राज्य के जीवदया संगठन प्रकृति नेचर क्लब के दिनेश गिरि गोस्वामी एवं जिज्ञेश गोहिल की अगुवाई में प्रदेश के प्रांची तीर्थ सूत्रापाड़ा में आयोजित शेरों के मोक्ष श्राद्ध व कल्याणकारी महायज्ञ में प्रांची तीर्थ के आचार्य कौशिक पंडया ने मोक्ष यज्ञ का संचालन किया। शेरों की मोक्ष व आपदाओं से सुरक्षा की कामना लेकर आयोजित किए गए अनोखे यज्ञ में नेचर क्लब, प्रांची तीर्थधाम क्षेत्र के सभी गांवों के निवासियों के अलावा राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले दर्जनों प्रकृति प्रेमियों ने शिरकत करके यज्ञ में आहुतियां दीं। इस सन्दर्भ में प्रकृति नेचर क्लब के गोहिल ने कहा कि शेर गुजरात प्रदेश के गौरव हैं। पिछले दो साल में विभिन्न कारणों से लगभग एक सौ शेरों की मौत हो गई। वर्ष 2013-14 में भी राज्य में 41 शेरों की मौत हुई थी। इससे प्रकृति प्रेमियों ने मिलकर इस बार शेरों व अन्य प्राणियों के मोक्ष के लिए श्राद्ध व कल्याणकारी महायज्ञ आयोजित किया गया।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी देश भर में चुनावी सभाओं को संबोधित कर रहे हैं। गुजरात के शेरों को लेकर वे बड़ी-बड़ी घोषणाएं करते हैं। सिंहों के नाम पर वे अपनी मूंछों पर ताव देते हैं, पर उनके ही गुजरात में सिंहों की स्थिति क्या है, शायद वे इससे अनजान हैं। कुछ दिनों पहले ही जब वे उत्तर प्रदेश में अपने राज्य के सिंहों की स्थिति का बखान कर रहे थे, तब उसी गीर अभयारण्य में दो ¨सहों की मौत वाहनों से कुचलकर हो गई। गुजरात में शेरों की सुरक्षा को लेकर चाहे जितनी भी घोषणाएं की जाए, तो सच तो यह है कि वहां शेरों की स्थिति गली के कुत्तों से भी बदतर है। आज शेरों पर खोखले दावे करने की अपेक्षा उन्हें बचाने की विशेष आवश्यकता है।
झूठ को यदि बार-बार प्रचारित किया जाए, तो भी वह सच का स्थान नहीं ले सकता। इसलिए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी देश भर में आम सभाओं को संबोधित करते हुए कितना भी गरज लें कि उनके राज्य में शेरों की बेहतर देखभाल की जाती है। उनका राज्य शेरों को सुरक्षित रखने में सक्षम है। पर हालात इससे अलग ही हैं। आज भी गीर अभयारण्य में शेर सलामत नहंीं हैं। वहां शेरों की मौत लगातार हो रही है। सरकार के सारे प्रयास नाकाफी सिद्ध हुए हैं।
दो महीने पहले ही गुजरात में ही जंगल क्षेत्र से गुजरने वाली मालगाड़ी से दो सिंहनियों की मौत हो गई थी। दिकखने में ये केवल दो मौतें थी, पर वास्तव में कुल पांच मौतें हुई थी। क्योंकि एक सिंहनी के पेैट में तीन शावक अपनी जिंदगी जी रहे थे। मां के साथ वे भी चल बसे। सिंहों की मौत होती रहे और इधर दावे किए जाते रहें कि गुजरात शेरों की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखता है। इन दोनों बयानों में विरोधाभास साफ नजर आता है। शेरों को देश की सम्पत्ति मानकर उसकी सुरक्षा भी उसी शिद्दत से की जानी चाहिए, तभी दावे सच के साथ होते हैं। आज उसी गुजरात के गीर अभयारण्य के आसपास इतने अधिक उद्योग स्थापित हो गए हैं कि शेरों को वहां सांस लेने में मुश्किल हो रही है। वे अब सीमाओं के काफी करीब आ गए हैं। इसी सीमा पर एक रेल्वे ट्रेक है। जिसे पापावाव पोर्ट के लिए तैयार किया गया है। पर यह रेल्वे ट्रेक शेरों के लिए काल साबित हो रहा है। शेरों की मौत पर किसी को आश्चर्य नहीं होता। कोई शोकमग्न नहीं होता। शेर मर रहे हैं, मोदी गरज रहे हैं। सरकार पर्यटकों को लुभाने के लिए शेरों के दर्शन करवाती है, पर यह दर्शन शेरों के लिए ही कितना दुखदायी है, इसे समझने के लिए कोई तैयार नहीं है।
जंगल में शेरों को शांति चाहिए, उनकी शांति में किसी प्रकार का खलल न हो, इसलिए वहां अभयारण्य बनाए जाते हैं। पर अब पर्यटन के नाम पर विदेशी लोगों को बुलाने के लिए उन्हें सासण लाया जा रहा है। पब्लिसिटी बटोरने के लिए हजारों लोगों को वहां बुलाया जा रहा है, इससे शेरों के जीवन पर असर पड़ रहा है। लायन शो के नाम पर जंगल के विभिन्न क्षेत्रों में पर्यटक बुलाए जा रहे हैं, आखिर शेर कब तक इंसानों का दखल सहते रहेंगे? सांसण में इस समय दो दर्जन होटलें चल रही हैं। इन होटलों में हर तरह की सुविधाएं हैं। शेरों के लिए बने इस शांत क्षेत्र का निजीकरण तेजी से बढ़ता जा रहा है। इस समय यहां के शेर सबसे अधिक असुरक्षित हैं। वन विभाग के फोटोग्राफी और पब्लिसिटी मैनेजमेंट के उस्ताद यहां के शेरों का इस्तेमाल एक उत्पाद की तरह कर रहे हैं। शेरों के दर्शन के लिए जब वीआईपी आते हैं, तब इसका भी ध्यान नहीं रखा जाता कि यह समय शेरों के विश्राम का है। वीआईपी के समय के अनुसार शेरों को सामने लाया जाता है। इसके बाद भी यदि यह कहा जाए कि हम शेरों की देखभाल बहुत अच्छे से कर रहे हैं, तो यह दावा खोखला ही साबित होता है। अभयारण्य के आसपास खेत हैं, इसलिए किसान अपने खेतों की रक्षा करने के लिए बिजली के नंगे तार रख देते हैं, ताकि जानवरों से बचाव हो सके। पर यही नंगे तार शेरों के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं। जंगल के आसपास खुले कुएं भी हैं, जिस पर रेलिंग नहीं होने के कारण शेरों की मौत हो रही है। बिना रेलिंग के ये कुएं भी शेरों के लिए मौत के कुएं साबित हो रहे हैं। यह गुजरात का सौभाग्य है कि उसके पास एसियाटिक शेर हैं। पर यदि उनकी देखभाल उचित तरीके से नहीं हो पाई, तो यह उनके लिए खतरा ही है। रेल्वे ट्रेक को बंद करना, बिजली के नंगे तारों को हटाना और मौत के कुओं को बंद करना आज की प्राथमिकत आवश्यकता है। इस दिशा में ध्यान देकर शेरों को बचाए रखने में विशेष भूमिका निभाई जा सकती है।
गीर  नेशनल पार्क(राष्ट्रीय उद्यान) 258 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। गीर  अभयारण्य 1412 वर्ग किलोमीटर का है। 411 सिंहों के लिए इतनी जगह बहुत ही कम है। इतनी जगह में केवल 300 सिंह ही रह सकते हैं। इसीलिए शेष सिंह इंसानी बस्ती की ओर रुख करने लगे हैं। सिंहों और इंसानों के बीच संघर्ष के पीछे भी यही कारण है। डार्विन का विकासवाद कहता है, जो जिस स्थान पर अपनी गुजर कर लेता है, वह उस स्थान को अपना ही समझने लगता है। इस दृष्टि से ¨सहों को जंगल से बाहर का वातावरण अच्छा लगने लगा और वे वहीं बसने लगे। यहां आकर वे अपना साम्राज्य स्थापित करने लगे। गीर  के सिंहों से उनका अब कोई वास्ता ही नहीं है। नया स्थान उनके अनुकूल होने के कारण अब उनकी बस्ती भी बढ़ने लगी है। सिंहों की बस्ती बढ़ने से गुजरात सरकार गर्व महसूस कर रही है  और सुप्रीमकोर्ट से तारीख पर तारीख मांग रही है। सरकार यदि वास्तव में सिंहों को बचाना चाहती है, तो उसे स्थान की समस्या को प्राथमिकता के साथ हल करना होगा। जो सिंह जंगल से बाहर हैं, उन क्षेत्रों को भी जंगल की सीमा में ले आए। जहां केवल ¨सह ही रहे, मानव बस्ती को वहां से हटा दिया जाए। यदि अभी इस दिशा में ध्यान नहीं दिया गया, तो संभव है सिंह इंसानी बस्ती में सीधे घुसकर लोगों का शिकार करना शुरू कर दे। अभी इसलिए आवश्यक हे क्योंकि बढ़ते औद्योगिकरण के कारण यह क्षेत्र कहीं उद्योग की चपेट में न आ जाए। सरकार को सुप्रीम कोर्ट का आदेश मान लेना चाहिए। यदि वह कह रही है कि गिर के ¨सहों को मध्यप्रदेश भेज दिया जाए, तो शेरों को मध्यप्रदेश भेज दिया जाना चाहिए। मध्यप्रदेश जाकर शेरों की वंशवृद्धि ही होगी। इसके लिए श्रेय गुजरात को ही दिया जाएगा। सिंह या शेर या कह लें, बाघ केवल गुजरात की सम्पत्ति नहीं है। उस पर पूरे देश का अधिकार है। भूतकाल में भी गुजरात से सिंह दूसरे राज्यों में भेजे गए हैं। अन्य क्षेत्रों में सिंह नहीं बस पाए, लेकिन गुजरात के गीर में सिंह बस गए और उनकी बस्ती बढ़ने लगी। अब यदि ये दूसरे राज्यों में जाकर अपने लायक माहौल तैयार करें और बस जाएं, तो इसका बुरा क्या है? एक सच्चे पर्यावरणविद की दृष्टि से देखें तो गीर में सिंहों और इंसानों के बीच संघर्ष बढ़े, इसके पहले उन्हें दूसरे राज्यों में भेज देना चाहिए। यदि हम सचमुच ¨सहों को बचाना चाहते हैं, तो सिंह कहां रहकर बच सकते हैं, इससे बड़ा सवाल यह है कि सिंह बचे रहें। इसके लिए उन्हें दूसरे राज्यों में भेजा जाना आवश्यक है। सभी ¨सह तो गीर से बाहर नहीं जा रहे हैं, केवल पांच-सात सिंह मध्यप्रदेश या किसी और राज्य में भेज दिए जाएं, तो इसमें पर्यावरण का ही लाभ होगा। यदि मध्यप्रदेश से एलर्जी है, तो गुजरात में ही ऐसे स्थानों को विकसित किया जाए, जहां ¨सह रह सकते हों। मूल बात सिंहों के बस्ती के विस्तार की है, यदि वह दूसरे राज्यों में भेजकर हो सकती है, तो भेजा जाना कतई बुरा नहीं है। सिंहों को बचाए रखने का इससे बड़ा दूसरा कोई उपाय नहीं है। गुजरात सरकार को इस दिशा में सोचना होगा। तभी पर्यावरण की रक्षा हो पाएगी।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

मेरे नाम का गुब्बारा !

एक बार पचास लोगों का ग्रुप किसी सेमीनार में हिस्सा ले रहा था।

सेमीनार शुरू हुए अभी कुछ ही मिनट बीते थे कि स्पीकर अचानक ही रुका और सभी पार्टिसिपेंट्स को गुब्बारे देते हुए बोला , ” आप सभी को गुब्बारे पर इस मार्कर से अपना नाम लिखना है। ”

सभी ने ऐसा ही किया।

अब गुब्बारों को एक दुसरे कमरे में रख दिया गया।

स्पीकर ने अब सभी को एक साथ कमरे में जाकर पांच मिनट के अंदर अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने के लिए कहा।

सारे पार्टिसिपेंट्स तेजी से रूम में घुसे और पागलों की तरह अपना नाम वाला गुब्बारा ढूंढने लगे। पर इस अफरा-तफरी में किसी को भी अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिल पा रहा था…

पांच मिनट बाद सभी को बाहर बुला लिया गया।

स्पीकर बोला , ” अरे! क्या हुआ , आप सभी खाली हाथ क्यों हैं ? क्या किसी को अपने नाम वाला गुब्बारा नहीं मिला ?”

” नहीं ! हमने बहुत ढूंढा पर हमेशा किसी और के नाम का ही गुब्बारा हाथ आया…”, एक पार्टिसिपेंट कुछ मायूस होते हुए बोला।

“कोई बात नहीं , आप लोग एक बार फिर कमरे में जाइये , पर इस बार जिसे जो भी गुब्बारा मिले उसे अपने हाथ में ले और उस व्यक्ति का नाम पुकारे जिसका नाम उसपर लिखा हुआ है। “, स्पीकर ने निर्दश दिया।

एक बार फिर सभी पार्टिसिपेंट्स कमरे में गए, पर इस बार सब शांत थे , और कमरे में किसी तरह की अफरा-तफरी नहीं मची हुई थी। सभी ने एक दुसरे को उनके नाम के गुब्बारे दिए और तीन मिनट में ही बाहर निकले आये।

स्पीकर ने गम्भीर होते हुए कहा , ” बिलकुल यही चीज हमारे जीवन में भी हो रही है। हर कोई  अपने लिए ही जी रहा है , उसे इससे कोई मतलब नहीं कि वह किस तरह औरों की मदद कर सकता है , वह तो  बस  पागलों की तरह अपनी ही खुशियां ढूंढ रहा है  , पर बहुत ढूंढने के बाद भी उसे कुछ नहीं मिलता , दोस्तों हमारी ख़ुशी दूसरों की ख़ुशी में छिपी हुई है। जब तुम औरों को उनकी खुशियां देना सीख जाओगे तो अपने आप ही तुम्हे तुम्हारी खुशियां मिल जाएँगी।और यही मानव-जीवन का उद्देश्य है।”

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

विंडोज एक्सपी का उपयोग हो सकता है खतरनाक!

डॉ. महेश परिमल
आज से से विंडोज एक्सपी का इस्तेमाल खतरनाक होने वाला है, क्योंकि माइक्रोसाफ्ट कंपनी अपने इस सिस्टम को सपोर्ट करना बंद कर रही है। इससे नए ओएस सिस्टम विंडोज 7 या 8 का इस्तेमाल करना होगा, जिससे हेकर्स के लिए खुला मैदान मिल जाएगा। यही नहीं और भी कई परेशानियां आ सकती हैं। जो लोग अपने कंप्यूटर के आपरेटिंग सिस्टम विंडोज-एक्सपी का उपयोग कर रहे हैं, उनके लिए निकट भविष्य में इसका इस्तेमाल एक सरदर्द बन सकता है। कंप्यूटर के क्षेत्र में जिसे जाइंट की उपमा दी गई है, उसी माइक्रोसाफ्ट के वाशिंगटन स्थित हेडक्वार्टर रेडमंड ने विंडोज एक्सपी को सपोर्ट न करने की घोषणा की है। इससे अधिकांश उपभोक्ताओं को नया ओएस सिस्टम अपने कंप्यूटर में लगाना होगा। माइक्रोसाफ्ट कंपनी का कहना है कि जो एक्सपी का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें अपने कंप्यूटरों में विंडोज-7 या विंडोज -8 अपग्रेड कर लेना चाहिए। अपग्रेड करने में अभी कुछ दिनों का वक्त है। जो लोग अपने घरों में अपने कंप्यूटरों में आपरेटिंग सिस्टम के रूप में विंडोज एक्सपी का उपयोग कर रहे हैं, उन्हें भी सिस्टम अपग्रेड के लिए विचार करना होगा। कंप्यूटर के विशेषज्ञों का कहना है कि माइक्रोसाफ्ट अपने आपरेटिंग सिस्टम का सपोर्ट नहीं करेंगे, इसका आशय यह है कि सिस्टम का कोई अपग्रेडेशन या साफ्टवेयर का सपोर्ट माइक्रोसाफ्ट की तरफ से नहीं मिलेगा।
सार्वजनिक क्षेत्रों की अधिकांश संस्थाएं जैसे बैंक और कापरेरेट कंपनियां विंडोज एक्सपी का इस्तेमाल करती हैं। उन्होंने अभी अपग्रेड का निर्णय नहीं लिया है। अपग्रेड में अधिक समय नहीं लगता। इसमें कंप्यूटर की हार्ड डिस्क बदलने की आवश्यकता नहीं है, केवल आपरेटिंग सिस्टम बदलने की आवश्यकता होगी। उल्लेखनीय है कि 2001 में विंडोज एक्सपी के आने के बाद विंडोज वीस्टा 2006 आया। साफ्टवेयर के क्षेत्र में सामान्य रूप से कंपनियां पांच साल तक सपोर्ट करती हैं, फिर जब उसका नया वर्जन बाजार में जाता है। विंडोज एक्सपी को माइक्रोसाफ्ट पिछले 12 वर्षो से सपोर्ट कर रही है। अब विंडोज एक्सपी को अपग्रेड करने की आवश्यकता पड़ी, तो 40 लाख कंप्यूटरों को अपग्रेड करना होगा। जो अपग्रेड करवा रहे हैं, वे विंडोज-8 नहीं, पर विंडोज-7 में अपग्रेड करवा रहे हैं। इस संबंध में विशेषज्ञों का कहना है कि विंडोज-8 भले ही लेटेस्ट वर्जन हो, पर इसमें कंप्यूटर हेंग होने की शिकायत अधिक मिल रही है।
अब जब स्मार्ट फोन और टेबलेट का इस्तेमाल अधिक हो रहा है, तब विंडोज के बदले गूगल एंड्राइड और एपल आईओएस अधिक इस्तेमाल में लाया जा रहा है। आपरेटिंग सिस्टम का इस्तेमाल करने के बदले विशेषज्ञ अपने अलग ही विचार रखते हैं। उनका मानना है कि माइक्रोसाफ्ट ने कुछ सोच-समझकर ही यह निर्णय लिया होगा। ऐसा माना जा रहा है कि विंडोज-7 या-8 या अन्य किसी आपरेटिंग सिस्टम की तरफ नहीं दिलचस्पी नहीं दिखाई, तो उनके कंप्यूटर का मेंटेनेंस खर्च बढ़ जाएगा। क्योंकि माइक्रोसाफ्ट के सपोर्ट के बिना वायरस का हमला लगातार जारी रहेगा। जब विंडोज एक्सपी को माइक्रोसाफ्ट सपोर्ट करना बंद करेगा, यानी हेकर्स आपरेटिंग सिस्टम में दोष खोजना शुरू कर देंगे। जब आपरेटिंग सिस्टम पर कोई नियंत्रण नहीं होगा, तो हेकर्स के लिए खुला मैदान मिल जाएगा। वे आसानी से किसी के भी कंप्यूटर पर अपना कब्जा जमा सकते हैं। कंप्यूटर उपभोक्ता की इंटरनेट सुरक्षा व्यवस्था खतरनाक हो जाएगी। सामान्य रूप से साफ्टवेयर अपडेट वर्जन का इस्तेमाल और वह कंप्यूटर उपभोक्ताओं के लिए कितना उपयोगी है, इस पर नजर रखने के लिए कंप्यूटर इंजीनियरों की पूरी टीम होती है, जब यह टीम काम करना बंद कर देगी, तो हेकर्स के लिए मानो पौ-बारह हो जाएंगे।
घरों में इस्तेमाल में लाया जाने वाले कंप्यूटरों में विंडोज-7 या-8 के पायरेटेड वर्जन होते हैं, इसलिए कंप्यूटर इंजीनियर उसकी नियमित जांच करते हुए उसके सपोटर को मुफ्त में लोड कर देते हैं। परंतु बड़ी कंपनियां इसके लिए मोटी राशि का भुगतान करती हैं। उल्लेखनीय है कि माइक्रोसाफ्ट अपनी आपरेटिंग सिस्टम विंडोज एक्सपी को सपोर्ट करना 8 अपेैल से बंद कर देगी, तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपका कंप्यूटर ठप्प हो जाएगा, वह नाकाम हो जाएगा। पर यह आलेख पढ़कर आप इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने इंजीनियर से कहकर विंउोज एक्सपी को अपडेट करवा लें। संभव है माइक्रोसाफ्ट ने यह घोषणा अपने अन्य उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए की होगी, ताकि लोग विंडोज एक्सपी 7-8 के बजाए उनके दूसरे आपरेटिंग सिस्टम को अपने कंप्यूटर में लगवाएं। कुछ भी हो, पर इतना तो तय है कि अब कंप्यूटर उपभोक्ता 8 अप्रैल के बाद कुछ समय के लिए परेशान हो सकते हैं। संभव है तब तक इसका विकल्प भी खोज लिया जाए। इंजीनियर तो खामोश बैठेंगे नहीं, वे ही कुछ नया जुगाड़ करेंगे। तब तक हमें अपने कंप्यूटर पर निश्चिंत होकर काम करते रहना होगा।
  डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

चुनाव प्रचार में उड़ेंगे हजारों करोड़





आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख
http://epaper.jagran.com/epaper/02-apr-2014-262-National-Page-1.html

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

अप्रैल फूल का इतिहास



                                                       http://epaper.haribhoomi.com/epapermain.aspx


आज एक अप्रैल पर दैनिक जागरण और हरिभूमि में प्रकाशित मेरा आलेख
अप्रैेल फूल का इतिहास
 डॉ. महेश परिमल
अप्रैल फूल याने मूर्ख दिवस, मार्च के अंतिम सप्ताह से समझदार लोग कुछ लोगों को मूर्ख बनाने की जुगत में लग जाते हैं। कुछ लोग तो इस दिन केवल इसलिए घर से बाहर नहीं निकलते कि कहीं कोई उन्हें अप्रैल फूल न बना दे। वैसे इस दिन सभी की कोषिष होती है कि किसी से बेवफूफ न बनें, पर कुछ लोग बन ही जाते हैं। कुछ लोग इस दिषा में अधिक जागरूक होते हैं। वे तो यह सोचने में ही वक्त निकाल देते हैं कि आखिर इस दिन की षुरुआत कैसे हुई होगी? जो बेवकूफ न बनें हों, वे सोचते रहें, पर हम आपको बता देते हैं कि इस दिन की षुरुआत कैसे हुई:-
सदियों पहले रोमन कैलेण्डर के अनुसार पहली अप्रैल याने वसंत ऋतु का पहला दिन। ईस्वी पूर्व 154 में पहली अप्रैल नए वर्ष का पहला दिन था। जब रोम की सत्ता ईसाइयों के हाथ में आई, तब उन्होंने वसंत की धार्मिक विधि के बदले ईस्टर का आयोजन षुरू किया। पुराने जमाने के लोग फिर भी अप्रैल में ही नया साल मनाते थे, जो नए जमाने के लोगों को अच्छा नहीं लगा, तब नए जमाने के लोगों ने अप्रैल में नया साल मनाने वालों का मजाक उड़ाना षुरू किया। इस तरह से नए लोग उन्हें मूर्ख समझने लगे और उन्हें इस दिन नए-नए ढंग से मूर्ख भी बनाने लगे। इस तरह से अप्रैल फूल डे की षुरुआत हुई।
एक दंतकथा के अनुसार सोलहवीं सदी में फ्रांस में नया साल पहली अप्रैल को षुरु होता था, परंतु ईस्वी सन् 1562 में पोप ग्रेगरी ने नया कैलेण्डर बनाया, जिसके अनुसार नया साल पहली जनवरी से षुरु हुआ। फिर भी कई लोगों ने पहली जनवरी को नए वर्ष के रूप में स्वीकार नहीं किया। वे लोग पुरानी परंपरा के अनुसार ही पहली अप्रैल को नया साल मनाते थे। इससे आधुनिक लोग परंपरावादियों को अप्रैल फूल कहकर चिढ़ाते औैर उन्हें मूर्खता के संदेष भेजते। यह परम्परा आज भी चली आ रही है। आज भी मित्रों में यह होड़ लगी रहती है कि कौन अधिक से अधिक लोगों को सबसे पहले मूर्ख बनाए। अब तो लोग यह भी मानने लगे हैं कि एक अप्रैल मूर्खों का दिन है और बाकी दिन समझदारों के।
वैसे हँसी-मजाक स्वास्थ्य के लिए अच्छे होते हैं, पर यह दिल्लगी कभी किसी पर आफत के रूप में भी सामने आ सकती है। इसलिए लोग मूर्ख बनने से डरते भी हैं। इस डर को फोबिया कहा जाता है। आइए जानें कि यह फोबिया कितनी तरह का होता है। षोध के अनुसार यह फोबिया कई प्रकार का होता है, लेकिन हम यहाँ मुख्य 6 फोबिया के बारे में चर्चा करेंगे।

1. केटेगिलो फोबिया :-यह फोबिया ऐसे लोगों को होता है, जो खुद का मजाक बनने से डरते हैं।
2. नियो फोबिया :-खुद के साथ कुछ नया होने का डर नियो फोबिया कहलाता है। मूर्ख बनने के डर से कई लोग डरते ही रहते हैं।
3. रयूथो फोबिया :-इस प्रकार के फोबिया में लोग इस बात पर डरते हैं कि कहीं उन्हें सबके सामने हँसी का पात्र न बना दिया जाए।
4. स्कोपो फोबिया :- कितने लोग इस बात से डरते हैं कि पहली अप्रैल के दिन वे अन्य लोगों के सामने आष्चर्य का केंद्र न बन जाएँ।
5. मायथो फोबिया :- जिन्हें हमेषा इस बात का डर लगा रहता है कि वे कहीं किसी से कुछ गलत न बोल जाएँ।
6. ट्रोमैटो फोबिया :-इस प्रकार के फोबिया में लोगों को अपनी संवेदनाओं का मजाक बन जाने का डर होता है।
कई बार हम कुछ लोगों से इस तरह से मजाक कर लेते हैं, जिससे उनके दिल को चोट पहुँचती है, इसका सामने वाले पर खराब असर होता है। इस तरह के फोबिया से ग्रस्त लोग गलत कदम उठा लेते हैं।
पूरी दुनिया में एक अप्रैल के दिन सभी एक-दूसरे को फूल यानि मूर्ख बनाते हैं। क्या आप जानते हैं कि कई बार ऐसे भी मजाक हुए हैं, जिनसे 8-10 नहीं, बल्कि हजारों लोग एक साथ मूर्ख बनें हैं। आइए देखें, वे सब कैसे मूर्ख बने :-
बीबीसी ने बनाया अप्रैल फूल :-सन् 1957 में टीवी पर बीबीसी ने अपने एक कार्यक्रम ''पैनोरमा'' में खबर दिखाई कि स्विट्जरलैण्ड में एक खास तरह के पेड़ पर स्पेगेटी ऊग रहे हैं। स्पेगेटी एक प्रकार का लोकप्रिय इतालवी भोजन (पास्ता) होता है, जिसे लम्बा और पतला बनाया जाता है। इस खबर के साथ ही बीबीसी ने एक वीडियो भी दिखाया, जिसमें एक महिला को सावधानी से स्पेगेटी पेड़ से तोड़कर उसे सूखाते हुए दिखाया। इसे देखने के बाद कई दर्षक इतने उत्साहित हो गए कि वे खुद के स्पेगेटी पेड़ खरीदने के लिए बीबीसी आफिस में फोन कर पूछताछ करने लगे। बीबीसी द्वारा किया गया यह मजाक पहला मौका था, जब टीवी द्वारा लोगों को अप्रैल फूल बनाया गया।
एक बार फिर :- इसके बाद 1965 में एक बार फिर बीबीसी ने अपने दर्षकों को अप्रैल फूल बनाया। उन्होंने यह घोषणा की कि बीबीसी ने एक नई तकनीक तैयार की है, जिससे ट्रांसमिषन के दौरान वह अपने दर्षकों तक कई प्रकार की सुगंध भेज रहे हैं। इस खबर के बाद भी कई दर्षकों ने बीबीसी कार्यालय में फोन करके यह बताया कि उनके कार्यक्रमों के साथ सुगंध भी आई थी।
डी-हाइड्रेटेड वॉटर :- सन् 1970 में इंग्लैण्ड में यू. के. टेलिविजन ने एक कार्यक्रम में डी-हाइड्रेटेड वॉटर की टेबलेट्स के बारे में खबर दी, जिसके अनुसार डी-हाइड्रेटेड वॉटर की गोलियों को तेज धूप में रखने पर सूरज की पराबैगनी किरणों से यह गोलियाँ टूट जाती हैं, फिर वातावरण में मौजूद ऑक्सीजन के साथ उसकी प्रतिक्रिया होती है, जिससे कई गैलन पानी बनाया जा सकता है। इस तरह यू. के. टीवी ने भी हजारों लोगों को अप्रैल फूल बनाया।
तो कैसा लगा आपको यह अप्रैल फूल बनाने का तरीका। कहीं आप तो कभी इस तरह से अप्रैल फूल नहीं बने?
डॉ. महेश परिमल

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