शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

कांग्रेस के लिए किरकिरी बनी किताबें



आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख


लाचार प्रधानमंत्री पर दो किताबें
डॉ. महेश परिमल
पीएम के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब ‘द ऐक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ़ मनमोहन सिंह’  से उपजे सवालों का जवाब कांग्रेस अभी खोज ही नहीं पाई है कि पूर्व कोयला सचिव पीसी पारेख की किताब ‘क्रूसेडर्स ऑर कॉन्सपिरेटर्स-कोलगेट ऐंड अदर ट्रूथ ’ सामने आ गई है। इस किताब में यूपीए 2 के दौरान प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह की भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं। इन दोनों किताबों के बाद कांग्रेस का आरोप है कि इसके पीछे नरेंद्र मोदी हैं। पारख ने अपनी किताब में लिखा है कि 17 अगस्त 2005 को मैं प्रधानमंत्री से मिलने गया। मंि उन्हें बताना चाहता था कि किस तरह से सांसद अधिकारियों का अपमान कर रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी वेदना सामने रखते हुए कहा कि मैं भी इसी समस्या से जूझ रहा हूं। लेकिन ये राष्ट्रहित में सही नहीं होगा कि ऐसे हर मुद्दे पर मैं त्यागपत्र देने की बात करूं। किताब के मुताबिक पार्लियामेंट स्टैंडिंग कमेटी की एक मीटिंग में बीजेपी सांसद धमेर्ंद्र प्रधान ने पारख का अपमान किया जिसके बाद उन्होंने त्यागपत्र दे दिया था। इसी के बाद वो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलने गए थे। यही नहीं पारख ने मनमोहन सिंह और उनके मंत्रियों के बीच के संबंधों के बारे में भी किताब में खुलासा किया है। पारख ने लिखा है कि मैं नहीं जानता कि अपने ही मंत्रियों की तरफ से लगातार अपमान मिलने या फिर फैसलों के बदले जाने के बाद अगर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देते तो देश को उनसे बेहतर प्रधानमंत्री मिल पाता या नहीं। यह सभी जानते हैं कि यूपीए में सत्ता का एकमात्र केंद्र सोनिया गांधी ही थीं। संजय बारू यह मानते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह ने एक तरह से सोनिया गांधी के आगे घुटने टेक दिए थे।
राजनीति के हमेशा दो केंद्र होते हैं। एक केंद्र  परदे के सामने होता है, जो प्रचार माध्यमों से हमें देश की उपलब्धियों की जानकारी देता रहता है। दूसरा केंद्र परदे के पीछे होता है, जिसमें होने वाली घटनाओं की जानकारी हमें कभी नहीं मिल पाती। किस घटना के पीछे आखिर क्या रहस्य था, यह तभी पता चलता है, जब इस पूरी टीम के किसी सदस्य की आत्मा जाग जाती है, अथवा विरोधी उसे अपने वश में कर लेते हैं। इसके बाद उसके द्वारा दी गई जानकारी हमेशा चौंकाने वाली होती है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के निजी सचिव एम.ओ. मथाई ने अपने संस्मरणों में जो कुछ लिखा, उसमें कई चौंकाने वाली जानकारी मिली। अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारु ने अत्यंत विवादास्पद किताब लिखी है। इसमें प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के बीच सत्ता के समीकरणों और अंदर की बातें सामने लाने की कोशिश की गई है। अस किताब से यह साफ पता चलता है कि यूपीए में एक ही पॉवर सेंटर था और वह थी सोनिया गांधी। जिस तरह से कुरुक्षेत्र के युद्ध में नेत्रहीन घृतराष्ट्र ने संजय की दृष्टि से युद्ध का आंखो देखा हाल सुना था, ठीक उसी तरह संयज बारू ने प्रधानमंत्री कार्यालय में चल रही सत्ता का अंतद्र्वंद्व की छोटी से छोटी जानकारी दी है। बारु के अनुसार प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा जो भी नीति विषयक निर्णय लिए जाते थे, वे सभी सोनिया गांधी से पूछकर ही लिए जाते थे। प्रधानमंत्री कार्यालय में मुख्य सचिव के रूप में अपनी भूमिका निभाने वाले पुलक चटर्जी सोनिया गांधी के वफादार थे। वे सोनिया गांधी के साथ रोज मीटिंग करते और सरकार के सभी महत्वपूर्ण निर्णयों पर सोनिया गांधी से चर्चा करते। उसके बाद उनसे आदेश लेते। सोनिया के आदेश ही प्रधानमंत्री कार्यालय से उनके आदेश के रूप में बाहर आते। इस मामले में कहा तो यहां तक जा रहा है कि प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह के पास जो अत्यंत गोपनीय दस्तावेज और फाइलें आतीं थीं, उसे भी पुलक चटर्जी सोनिया गांधी को दिखाकर उनके सुझाव लेते थे। इस तरह से प्रधानमंत्री ने अपनी शपथ को भंग किया है, जो उन्होंने पद संभालने के पहले ली थी। संजय बारु की किताब बाहर आने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने उसे निराधार बताया है और कहा है कि यह एक कल्पना मात्र है। बारु का कहना है कि पिछले दस वर्षो से चल रहे इस सिस्टम के तहत कोई भी आदेश प्रधानमंत्री का नहीं है, बल्कि वह उनकी आड़ में सोनिया गांधी का ही है।
बारु अपनी किताब में लिखते हैं कि सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 209 सीटें प्राप्त की। इस कारण डॉ. मनमोहन सिंह को यह लगा कि अब उनकी ताकत बढ़ गई है, पर सोनिया गांधी ने उन्हें उनकी औकात दिखा दी। सन् 2009 में जब मंत्रिमंडल का गठन हुआ, तब प्रधानमंत्री ए. राजा को शामिल नहीं करना चाहते थे। पर श्रीमती गांधी के दबाव में उन्हें ए. राजा को मंत्रिमंडल में लेना पड़ा। इसके अलावा डॉ. सिंह पी. चिदम्बरम के स्थान पर अपने आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, पर श्रीमती गांधी के आदेश से प्रणब मुखर्जी को वित्त मंत्री बनाया गया। इसके बाद मनमोहन सिंह पर अंकुश रखने के लिए प्रणब मुखर्जी को देश का राष्ट्रपति बना दिया गया। अपने निर्णयों की फजीहत देखकर प्रधानमंत्री को अपमान का कड़वा घूंट पीना पड़ा। यूपीए शासन में एक ऐसा सिस्टम बन गया था कि सरकार की जो भी उपलब्धि हो, उसका श्रेय श्रीमती सोनिया गांधी और राहुल गांधी के जाए, और जितनी भी विफलताएं हो, वे सब प्रधानमंत्री के खाते में जाएं।
15 अगस्त सन् 2007 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने महात्मा गांधी नेशनल रुरल एम्पायमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा)की घोषणा की, इससे राहुल गांधी को लगा कि इसका पूरा श्रेय प्रधानमंत्री को चला जाएगा, तो उसने तुरंत ही प्रधानमंत्री से मुलाकात की। उसने प्रधानमंत्री को स्रूचित किया कि मनरेगा का विस्तार देश के 500 जिलों में किया जाना चाहिए। यह जानकारी भी वे लाल किले से कर चुके थे। इससे राहुल गांधी के सलाहकारों द्वारा एक परिपत्र जारी किया गया, जिसमें मनरेगा का पूरा श्रेय राहुल गांधी को देने की जानकारी थी। यह परिपत्र लेकर सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल संजय बारु के पास पहुंचे और कहने लगे कि आप ये परिपत्र प्रधानमंत्री कार्यालय के नाम से जारी करो। संजय बारु ने ऐसा करने से इंकार कर दिया, इसलिए दूसरे ही दिन यह परिपत्र कांग्रेस पार्टी द्वारा जारी कर दिया गया। यह परिपत्र एक आवश्यक खबर के रूप में अखबारों में प्रकाशित भी हो गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के मामले में अपने हाथ साफ रखते थे। पर अपने साथियों के भ्रष्टाचार को अनदेखा करते। संजय बारु अपनी किताब में लिखते हैं कि मनमोहन सिंह को अखबारों में यदि सोनिया से अधिक प्रचार मिलता, तो वे बैचेन हो जाते, पर सोनिया की लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ेता, तो उन्हें राहत मिलती। मनमोहन सिंह बार-बार अपमान का घूंट पीकर प्रधानमंत्री की कुर्सी से चिपके रहे, इससे देश रसातल में चला गया। प्रधानमंत्री के पहले कार्यकाल में ही हालत इतनी खराब थी, तो उन्हें उसी समय अपने पद से इस्तीफा दे देना था, इससे 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला न होता और न ही दूसरे घोटाले। इससे कांग्रेस की फजीहत न होती और देश रसातल में जाने से बच जाता। पर कुर्सी का मोह के कारण उन्हें अपनी आंखों से बहुत कुछ गलत होते देखना पड़ा। इसे हम उनकी लाचारगी ही कह सकते हैं। पर देश को इतना लाचार और बेबस प्रधानमंत्री की आवश्यकता नहीं है।
आज जब संजय बारु और पीसी पारेख ने अपनी किताब के माध्यम से प्रधानमंत्री की लाचारगी और बेबसी को सामने लाया गया है, कांग्रेसी यह कह रहे हैं कि किताबें में जो कुछ लिखा गया है, वह झूठ है। तब फिर सच क्या है, यह भी उन्हें बताना चाहिए। वैसे देखा जाए, तो यह किताबें न भी आतीं, तो भी यह पता चल ही जाता कि केंद्र सरकार की सत्ता की चाबी सोनिया गांधी के पास थी। क्योंकि जो कुछ हो रहा था, वह प्रधानमंत्री का मौन ही बता रहा था। सरकार की विफलताओं का सारा श्रेय प्रधानमंत्री को मिला और उपलब्धियों का पूरा श्रेय राहुल और सोनिया गांधी के खाते में गया। यह पूरा काम एक व्यवस्था के तहत हुआ। देश का बच्च बच्च जानता है कि प्रधानमंत्री के रूप में डॉ. मनमोहन सिंह की भूमिका एक रबर स्टंप की तरह ही थी। इसलिए पिछले एक महीने से प्रधानमंत्री का कोई बयान भी सामने नहीं आया। क्या ऐसा हो सकता है कि देश में भावी सरकार के लिए मतदान हो रहे हों और देश का प्रधानमंत्री एकदम खामोश रहे?
डॉ. महेश परिमल

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