बुधवार, 18 जून 2014

शहरी प्रदूषण ही है अस्थमा का कारण

डॉ. महेश परिमल
अभी कुछ दिनों पहले ही हमारे बहुत करीब से अस्थमा दिवस गुजरा। उस दिन बहुत से आयोजन हुए, जिसमें अस्थमा होने के कारण और उससे बचाव पर चर्चा की गई। यह एक परंपरा है, जिसे हम केवल ‘दिवस’ मनाकर निभाते हैं। इस बीमारी के बारे में हम यह भूल जाते हैं कि अस्थमा को यदि किसी ने विकराल रूप में हमारे सामने खड़ा किया है, तो वह है स्वयं मानव। अस्थमा होने का मुख्य कारण प्रदूषण है। आज प्रदूषण को मानव ने कितना प्रदूषित किया है, यह किसी से छिपा नहीं है। यदि ध्यान दिया जाए, तो अस्थमा का इलाज हमारे आयुर्वेद में है, इससे यह पूरी तरह से मिट सकता है, पर हमें तो विदेशों में पढ़-लिखतर आए डॉक्टरों पर ही भरोसा है। इसीलिए यह रोग देश में तेजी से फैल रहा है। जितना ध्यान हम इस रोग को थामने में लगा रहे हैं, उससे थोड़ा सा भी कम ध्यान यदि प्रदूषण की ओर दिया जाए, तो इस रोग के देश से नेस्तनाबूद होने में जरा भी वक्त नहीं लगेगा। विश्व अस्थमा दिवस पर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक को पूरे पेज का एक रंगीन विज्ञापन देकर यह दावा किया कि हम तीस बरस से इस रोग के खिलाफ लड़ रहे हैं। इस मामले में हम अनथक परिश्रम कर इस पर अनुसंधान कर रहे हैं। विश्व के 78 देशों में हम अस्थमा के खिलाफ लड़ने के लिए लोगों को सचेत कर रहे हैं, हम उन्हें सूंघने के साधन उपलब्ध करा रहे हैं। यदि यह कंपनी वास्तव में अस्थमा के मरीजों की सेवा करने का दावा करती है, तो उसे इस विज्ञापन के लिए लाखों रुपए खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती। जो कंपनी एक विज्ञापन के लिए लाखों रुपए खर्च कर सकती है, तो मुनाफे का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है।
हमारे देश में अस्थमा के मरीजों की संख्या करीब 3 करोड़ है। केवल मुम्बई शहर में ही इस बीमारी के दस लाख मरीज हैं। दूसरे दस लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें अस्थमा हो सकता है। मल्टिनेशनल ड्रग कंपनियां कभी भी अस्थमा के कारणों की खोज एवं उस पर शोध के लिए परिश्रम नहीं करते। उनकी योजना यही होती है कि अस्थमा के लिए बनाई गई उनकी दवाएं भारतीय बाजारों में बिकती रहें। स्वास्थ्य के विशेषज्ञ हमें हमेशा चेतावनी देते हैं कि 2020 तक हमारे देश में विश्व में अस्थमा की राजधानी बन जाएगा। वैसे तो यह रोग एजर्ली से होता है। देखा जाए, तो यह कोई रोग ही नहीं है और न ही कोई संक्रमण रोग है। अस्थमा किसी बैक्टिरिया या वाइरस से भी फैलने वाला रोग नहीं है। एलोपेथी के डॉक्टरों के पास तो केवल उन्हीं बीमारियों का इलाज होता है, जो विषाणुओं से फैलते हैं। इसलिए यह सोचना कि अस्थमा हमारे एलोपेथी डॉक्टर के इलाज से दूर हो जाएगा, गलत है। इस कारण वे ऐसा प्रचार करते हैं कि अस्थमा का कोई इलाज ही नहीं है। दूसरी ओर हमारे आयुर्वेद और प्राकृतिक विज्ञान में अस्थमा का असरकारक इलाज है। आखिर अस्थमा क्यों होता है? वास्तव में यह आज की शहरीकरण की देन है। शहर में वायु प्रदूषण, मागों पर पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण उसके धुएं भी बढ़ रहे हैं। इन धुओं में कार्बन डायऑक्साइड के कण शामिल होते हैँ। जो सांस नली में चले जाते हैं, वहां जाकर सूजन पैदा करते हैं। इससे अस्थमा का अटैक आता है। आज शहर के किसी भी रास्ते पर चलना बहुत ही खतरनाक है। भारत के शहरों में बढ़ते प्रदूषण के कारण अस्थमा के रोगियों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है। भवन निर्माण के दौरान सीमेंट और सीसे से बनते रंगों के कारण हवा में सल्फर डायऑक्साइड, लेड ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड के जहरीले कण वायुमंडल में फैल जाते हैं। इन्हीं खतरनाक अणुओं से होते हैं अस्थमा के हमले।
हमारे देश में अनेक लोग ऐसे हैं, जिनका श्वसनतंत्र कमजोर होता है। यह विरासत में मिलता है। उनके शरीर के भीतर जरा सा भी प्रदूषणयुक्त हवा जाती है, तो उससे उनकी सांस नली फूल जाती है और फेफड़े संकुचित हो जाते हैं। इस कारण उन्हें श्वांस लेने में तकलीफ होती है। खून को मिलने वाली ऑक्सीजन की आपूर्ति में बाधा उत्पन्न हो जाती है। इन परिस्थितियों में कहा जाता है कि अस्थमा के मरीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है। इसलिए कहीं भी थोड़ी सी धूल उड़ी नहीं कि ऐसे लोग बुरी तरह से हलाकान हो जाते हैं। डॉक्टर कहते हैं कि एस्पीरिन जैसी एलोपेथी दवा लने से भी अस्थमा हो सकता है। कितने ही लोगों को सिगरेट के धुएं से और हवा में नमी आने से भी अस्थमा हो सकता है। यदि घर में किसी सीलन भरे स्थान पर सोना हो, तो भी अस्थमा होने की संभावना बढ़ जाती है। घर के कार्पेट, खिड़कियों के परदे के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले रंग भी अस्थमा का कारण हो सकते हैं। धूल और फूल के परागकणों से भी अस्थमा हो सकता है। आज अस्थमा के जितने भी कारण दिखने को मिलते हैं, उसमें 99 प्रतिशत मानव ने ही और खासकर मशीनों के कारण ही होते हैं। बमुश्किल एक प्रतिशत कारण प्राकृतिक है। इसमें आकाश में गहराते बादलों या फूलों की सुगंध का समावेश होता है। विश्व भर में जिन देशों का विकास आधुनिक पद्धति से हो रहा है, वहां अस्थमा तेजी से फैल रहा है। इससे यह कहा जा सकता है कि विकास का फल सबसे पहले शहरी नागरिक ही चख पाते हैं।
अस्थमा की बीमारी में समाजवाद के दर्शन होते हैं। यह रोग किसी को भी हो सकता है। इसकी नजर में कोई गरीब नहीं, कोई अमीर नहीं। इंसान को यदि अस्थमा से बचना हो, तो सबसे सरल उपाय यही है कि वह शहर के प्रदूषित वातावरण को छोड़कर गाँव जाकर बस जाए। जो ऐसा नहीं कर पा रहे हों, उनके लिए योगासन और प्राकृतिक उपचार ही एकमात्र उपाय है। इससे शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। किसी भी सूरत में एलोपेथी की दवाएं नहीं लेनी चाहिए। डॉक्टरों के पास अस्थमा का कोई इलाज ही नहीं है, इसलिए वे कामचलाऊ उपाय के रूप में इन्हेलर्स के इस्तेमाल की सलाह देते हैं। इस पम्प में आल्बुटेरोल या साल्बुटामोल जैसी दवाएं होती हैं, जो फौवारे की तरह श्वास नली को खोलने का काम करता है। परंतु ये दवाएं फेफड़े और हृदय को कमजोर बनाती हैं। इसलिए इन्हेलस का इस्तेमाल केवल आपात स्थिति में ही करना चाहिए। ऐसी सलाह डॉक्टर  देते हैं। के.ई. अस्पताल के फिजियालॉजी विभाग के प्रमुख डॉ. मनु कोठारी के पास कोई भी मरीज अस्थमा की शिकायत करने पहुंचता है, तो वे उसे यही सलाह देते हैं कि वह शुद्ध घी और चावल का हलुवा खाए। इसके अलावा गुड़ और तैलीय बीजों से बनने वाली चिकी के इस्तेमाल से चमत्कारिक असर होता है। इस प्रयोग को अस्थमा के हजारों मरीजों ने आजमाया, इससे उन्हें फायदा भी हुआ। ये चीजें शरीर के प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं।
इस तरह से देखा जाए, तो अस्थमा की दवाएं बेचने वाली कंपनियां केवल अपने लाभ के लिए ही यह प्रचार करती हैं कि वह इस दिशा में शोध कर रही है। इसके पहले अमुक दवाओं से अस्थमा पर काबू पाया जा सकता है। दवा कंपनियों के इस झूठे प्रचार में कोई न उलझे, इसके लिए देश में किसी तरह का कोई जागरूकता का काम नहीं किया जा रहा है। पर कुछ लोगों को इस दिशा में आगे आना ही होगा। तभी इन दवा कंपनियों की असलियत सामने आएगी। अपने आसपास का वातावरण शुद्ध रखें, यही है अस्थमा का इलाज।
   डॉ. महेश परिमल

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