शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

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हरिभूमि में प्रकाशित मेरा आलेख 

आज वर्ल्ड एम्ब्रियोलॉजी डे
याद आते हैं डॉ. सुभाष
डॉ. महेश परिमल
विश्व की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी ने 25 जुलाई 1978 को ब्रिटेन में जन्म लिया था। उसका नाम  मेरी लुइस ब्राउन था। भारत में पहली टेस्ट ट्यूब बेबी 3 अक्टूबर 1978 को हुई थी। उसका नाम कनुप्रिया अग्रवाल है। जब इन दोनों टेस्ट ट्यूब बेबी इस संसार में आई, तब इस शोध को मान्यता नहीं मिली थी। इस शोध को मान्यता मिलने के बाद भारत में पहली टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म मुम्बई में 6 अगस्त 1986 को डॉ. इंदिरा आहूजा के हाथों हुआ, उसका नाम था हर्षा चावड़ा। हर्षा आज 25 वर्ष की हो गई है। भारत में पहली टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हुआ, तब विज्ञान के इस चमत्कार का सहजता के साथ स्वीकारने के बजाए देश के नेताओं ने राजनीतिक रंग दे दिया। इसलिए हर्षा का जन्मोत्सव नहीं हो पाया। टेस्ट ट्यृब बेबी को जन्म देने वाले डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय और उनके सहयोगी सुनीत मुखर्जी और एस.के.भट्टाचार्य का अपमान किया गया। यह सिद्धि पश्चिम बंगाल की थी। इस सिद्धि की प्रशंसा तो नहीं हो पाई, पर इसके जन्मदाता डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय को इंटरनेशनल कॉफ्रेंस में जाने से भी रोक दिया गया। भारत को पहली टेस्ट ट्यूब बेबी देने वाले डॉ. मुखोपाध्याय 19 जून 1981 को अपने निवास स्थान में आत्महत्या कर ली थी। भारत में पहली व्रिटो-फर्टीलाइजन से सिद्धि प्राप्त करने वाले इस डॉक्टर के महत्व को 2005 में समझा गया। बाद में इनका मरणोपरांत सम्मान भी किया गया। इस घटना पर तपन सिन्हा ने एक फिल्म भी बनाई थी, जिसका नाम था ‘एक डॉक्टर की मौत’, इस फिल्म में प्रमुख भूमिका पंकज कपूर और शबाना आजमी ने निभाई थी।
ये सब कुछ इसलिए याद करना पड़ रहा है, क्योंकि कल शुक्रवार यानी 25 जुलाई को ‘वर्ल्ड एम्ब्रीयोलॉजी डे’ है। इस शोध के कारण विश्वभर में 50 लाख से अधिक टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हो चुका है। एम्ब्रीयोलॉजिस्ट का काम स्पर्म और एग के कलेक्शन के बाद फर्टाइल करने का होता है। फिर एम्ब्रीयो के डेवलपमेंट पर नजर रखी जाती है। हर्षा 25 वर्ष की उम्र को पार कर चुकी है। उसकी मां का नाम मणि चावड़ा है। उसकी 25 वर्षगांठ पर वह मुम्बई के सिद्धि विनायक मंदिर गई थी। क्योंकि बर्थ डे केक के लिए उसके पास धन नहीं था। हर्षा कहती है कि मुझमें और अन्य युवतियों में कोई फर्क नहीं है। मैं सभी से नि:संकोच कहती हूं कि मैं टेस्ट ट्यूब बेबी हूं। पहली मैं एक प्राइवेट जॉब कर रही थी, पर बीच में बीमार होने के कारण जॉब छोड़ना पड़ा। इस समय उसके पास कोई जॉब नहीं है। वह पूरी तरह से स्वस्थ है। उसकी मम्मी मणि चावड़ा गर्व के साथ बताती है कि मुझे गर्व है कि आईवीएफ (इन व्रिटो फर्टीलाइजेशन) द्वारा मेरी पुत्री का जन्म हुआ है। हर्षा का जब जन्म हुआ, तब उनकी मम्मी की उम्र 35 वर्ष थी।
विश्व में हर्षा को पहचान देने वाली डॉ. इंदिरा आहूजा थी। भारतीय पद्धति के अनुसार भारतीय डॉक्टरों की सहायता से डॉ. इंदिरा ने यह उपलब्धि हासिल की थी। हर्षा के जन्म ने अनेक ऐसे दम्पति के जीवन में एक रोशनी के रूप में हुआ, जो नि:संतान थे। हर्षा आशा की एक किरण के रूप में इन दम्पतियों के सामने आई। इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च से पता चला कि देश के 10 प्रतिशत युगल इंफर्टीलिटी का सामना कर रहे हैं। इसके बाद स्पर्म काउंट, इंफेक्शन, पुरुषों में इरेक्टाइल डिस्फेक्शन, फेलोपीयन ट्यूब में नुकसान आदि समस्याओं का समावेश होता है। इन व्रिटो फर्टीलाइजेशन थोड़ी पेचीदा प्रक्रिया है।  इस विधि के माध्यम से पुरुष के शुRाणु व महिला के अंडाणु को अलग-अलग ट़यूब में एकत्र कर टेस्ट ट्यूब चिकित्सा प्रणाली से महिला के गर्भाशय में स्थापित किया जाता है। इससे शिशु का प्रजनन संभव होता है। प्रजनन Rिया की सफलता के लिए गर्भवती महिलाओं को समय-सयम पर चिकित्सकों का परामर्श लेते रहना भी आवश्यक होता है। यह पद्धति इतनी अधिक कारगर हुई है कि आज की तारीख में देश में 400 आईवीएफ क्लिनिक हैं। विदेश में भी यही पद्धति लागू है। इस पद्धति का लाभ लेने के लिए भारत आते हैं, क्योंकि विदेश में यह पद्धति काफी महंगी है।
दुर्गा यानी कनुप्रिया अग्रवाल के जन्म के 8 वर्ष बाद हर्षा चावड़ा का जन्म हुआ था। दुर्गा के जन्म के समय विवाद नहीं हुआ था, क्योंकि उस समय केवल पश्चिम बंगाल सरकार ही इस तकनीक के विरोध में थी। कई संप्रदाय इसे भगवान के खिलाफ जाना बताते थे। उनका मानना था कि अगर भगवान न चाहे, तो किसी दम्पति को संतान नहीं हो सकती। पर आईवीएफ तकनीक ने एक इतिहास ही बना दिया। इस इतिहास को बनाने वाले डॉ.सुभाष मुखोपाध्याय को पश्चिम बंगाल सरकार ने काफी परेशान किया। अंतत: उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी। 27 वर्ष बाद उनके काम को सराहना मिली। उनके दावे को मान्यता मिली। हमारे देश में अक्सर ऐसा ही होता है। पहले उसकी कद्र नहीं की जाती, पर जब उसके काम की कद्र विदेशों में होती है, तो उसे अपने देश में भी हाथो-हाथ लिया जाता है। प्रतिभा पलायन का एक कारण यह भी है। डॉ. मुखोपाध्याय की आत्महत्या का दु:ख इसलिए अधिक है, क्योंकि उनके काम को सराहना उस राज्य से नहीं मिली, जो राज्य स्वयं को बौद्धिक कहते नहीं अघाता। उस समय वहां कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था। डॉ. मुखोपाध्याय की मौत के बाद उनके काम को सराहना मिली। आज वे सभी दम्पति उन्हें अपनी शुभकामनाएँ दे रहे होंगे, जिनके जीवन में टेस्ट ट्यूब के माध्यम से संतान की प्राप्ति हुई।
  डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

इसरो की टीम अवार्ड की हकदार

डॉ. महेश परिमल
इस देश में जब भी किसी को कोई विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त होती है, लोग उसे हाथो-हाथ लेते हैं। कई कंपनियां उसके हित में आगे आती हैं। उसे विशेष पुरस्कार से नवाजा जाता है। कई स्वयं सेवी संस्थाएं भी उनका सम्मान करने के लिए आगे आ जाती है। क्रिकेट में भी जब भी धोनी की टीम ने कोई विशेष उपलब्धि हासिल की है, सरकार ने आगे बढ़कर सभी खिलाड़ियों को करोड़ों रुपए ऐसे ही दे दिए हैं। उन पर धनवर्षा होती है। आईपीएल के लिए भी क्रिकेटरों की बोली लगती है। ओलम्पिक में भी कोई भारतीय खिलाड़ी विशिष्ट योग्यता प्राप्त करता है, तो उसे भी सरकार की ओर से सम्मान एवं पुरस्कार दिए जाते हैं। पर अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक महान उपलब्धि प्राप्त कर विश्व में भारत का नाम रोशन करने वाले इसरो के वज्ञानिकों को ऐसा कोई अवार्ड नहीं मिला, जिससे वे प्रोत्साहित हों। इसरो के वैज्ञानिकों की उपलब्धि को शायद सरकार समझ नहीं पाई। सरकार को समझना चाहिए कि भारत की स्पेस सिद्धि वर्ल्ड कप और ओलम्पिक गोल्डमेडल से भी काफी बड़ी है। सरकार क्रिकेट खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने में पीछे नहीं रहती, पर वैज्ञानिकों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। आखिर इनकी मेहनत को क्यों अनदेखा किया जाता है?
आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवनर स्पेस सेंटर से क्कस्रुङ्क ने सुबह 9 बजे एक धमाके के साथ उड़ान शुरू की थी। इस दौरान पूरे देश को ऐसा लग रहा था, मानो कोई मैच देखा जा रहा हो। बीस मिनट तक लोग हैरत में ही रहे। इसके बाद चार चरणों में क्कस्रुङ्क ष्ट २३ अपनी यात्रा पूरी की। पहले चरण में फ्रांस का उपग्रह और उसके बाद अन्य चार उपग्रहों को छोड़ा गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उपस्थित थे। उन्होंने एक-एक वैज्ञानिक से मुलाकात की। पर उनके लिए किसी तरह के अवार्ड की घोषणा नहीं की। वह तो ठीक है, पर देश की इतनी सारी कापरेरेट कंपनियां हैं, किसी ने भी आगे बढ़कर इसरो के वैज्ञानिकों को इनाम आदि देने के लिए आगे नहीं आई। भारत की यह स्पेस सिद्धि वर्ल्ड कप या ओलम्पिक से भी बढ़कर है। क्योंकि इसरो के इस प्रयास को विश्वस्तर पर सराहा गया है।
दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा था, तब वैज्ञानिकों के पास कुछ सीमित उपकरण ही थे। तब तो हालात ऐसे थे कि रॉकेट के कुछ भाग साइकिल पर लादकर लाया जाता था। यह सुनकर आज भले ही हमें आश्चर्य हो, पर तब हालाता ऐसे ही थे। आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने का निश्चय किया। उस समय डॉ. होमी जहांगीर भाभा और विक्रम साराभाई को नहीं भूलना चाहिए। जिनके अथक प्रयासों से आज हम इस मुकाम पर पहुंचे हैं। इसके बाद डॉ. सतीश धवन ने भी उपलब्धियों के झंडे गाड़े। समझ में नहीं आता कि ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले को सरकार 3 करोड़ रुपए देती है, वर्ल्ड कप जीतने पर धोनी के टीम के सभी सदस्यों को एक-एक करोड़ रुपए दिए जाते हैं, इसके बाद प्रायोजकों वाला राशिव अलग। पर इसरो के वज्ञानिकों की इतनी बड़ी उपलब्धियों को प्राप्त करने के नाम पर कुछ नहीं दिया गया। हमारे देश में बॉलीवुड और क्रिकेट इस कदर हावी है कि देशवासियों को उसके सिवाय कुछ दिखता ही नहीं। ऐसे में यदि देश से प्रतिभाओं का पलायन होता है, तो लोग अफसोस करते हैं। जब हम ही हमारे देश की प्रतिभा को संभालकर नहीं रख पाएंगे, तो प्रतिभाओं को दूसरे देश जाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना ही होगा।
1975 में हमने सोवियत वैज्ञानिकों की मदद से उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा था, इसमें भारत की कोई तकनीक नहीं थी। 1972 में रुस से हुए समझौते के अनुसार आर्यभट्ट को छोड़ा गया था। हाल ही में क्कस्रुङ्क ष्ट २३ की सफलता के पीछे पूरी तरह से भारतीय तकनीक थी। स्पेस साइंस के साथ कई संस्करण जुड़े हुए हैं। पहले हालत यह थी कि एक साधन भी विदेश से नहीं मिलता था, तो पूरा प्रोजेक्ट ही अटक जाता था। स्पेस टेक्नालॉजी पूरी तरह से विदेश पर निर्भर थी।क्कस्रुङ्क ष्ट २३ पूरी तरह से देश में निर्मित तकनीक पर आधारित है। अब हम इस दिशा में इतने अधिक आत्मनिर्भर हो चुके हैं कि विदेशों के उपग्रह भी छोड़ने की क्षमता रखते हैं। इसे भी हमारे वैज्ञानिकों ने सिद्ध करके दिखा दिया है। पिछली सरकार के समय स्पेस-देवास घोटाला सामने आया था। यदि यह घोटाला सफल हो गया होता, तो लाखों-करोड़ों का घोटाला होता। स्पेस साइंस के महत्व को हमने देर से समझा है। विश्व की अपेक्षा हमने कम कीमत पर प्रोजेक्ट बनाए हैं। अब जब सार्क देशों को एक उपग्रह भेंट देने के प्रयास हो रहे हैं, तब भारत बिग ब्रदर की भूमिका करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इसरो की टीम का राष्ट्रपति ने अभिनंदन किया है, परंतु कोई भी कापरेरेट कंपनी इसरो के वैज्ञानिकों का सम्मान करने के लिए आगे नहीं आई। जिससे वैज्ञानिकों का उत्साह बढ़ता। आज की मांग यही है कि सरकार एवं देश की कापरेरेट कंपनियों को ऐसे प्रयास करना चाहिए जिससे हमारे वैज्ञानिको का उत्साहवर्धन हो। इन्होंने क्रिकेट टीम या ओलम्पिक में गोल्ड मेडल प्राप्त करने वालों से भी बड़ा काम किया है। यही नहीं उनके प्रयासों से देश का नाम भी ऊंचा हुआ है। अंतरिक्ष के क्षेत्र में देश को बहुत बड़ी उपलब्धि दिलाने वाले इसरो के वैज्ञानिकों को ठीक उसी तरह से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिस तरह से क्रिकेटरों को किया जाता है।
इसरो के वैज्ञानिकों के लिए यदि सरकार ने कुछ नहीं किया, तो यह काम और कौन करेगा? इस दिशा में सरकार को ही पहल करनी होगी। यदि सरकार ऐसा नहीं कर पाती, तो यही वैज्ञानिक कल नासा में काम करते हुए दिखाई दें, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। देश की प्रतिभाओं का पलायन रोकने के लिए हमें कुछ ऐसा करना ही होगा, जिससे देश के लिए काम करने का उनका हौसला बुलंद हो। ताकि भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा ले सके।
 डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

बुलेट से पहले



 आज हरिभूमि के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

सोमवार, 7 जुलाई 2014

बुलेट ट्रेन से उद‌्धार संभव हो पाएगा?

डॉ. महेश परिमल
दिल्ली से आगरा के बीच देश की सबसे तेज ट्रेन चली। अब हम गर्व कर सकते हैं कि विकास के पथ में हम तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। देश को एक तरफ बुलेट ट्रेन का सपना दिखाया जा रहा है और दूसरी तरफ कुछ ट्रेनें अभी भी छुक-छुक कर चल रही हैं। 8 जुलाई को सरकार रेल बजट संसद में पेश करेगी। रेल किराया तो उसने पहले ही 14.2 प्रतिशत बढ़ा दिया है। इससे नाराज लोगों को वह बजट से लुभाने की कोशिश करेगी। लोग यह समझ रहे हैं कि चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से लोगों से अच्छे दिन का वादा किया था, उसे पूरा करने के लिए इस बार रेल बजट में बुलेट ट्रेन की घोषणा कर लोगों की नाराजगी को दूर करने का प्रयास किया जाएगा। दिल्ली से आगरा के बीच तेज गति की जो ट्रेन चलाई गई, यह उसी घोषणा का छोटा-सा रूप है। वैसे देखा जाए, तो दिल्ली में बनने वाली योजनाओं की गति भी इतनी होनी ही चाहिए, ताकि उसका लाभ सुदूर अंचलों में रहने वालों को जल्दी मिल सके।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर बुलेट ट्रेन की व्याख्या कैसे की जाए। उसकी गति कितनी होनी चाहिए? इस संबंध में सरकार जो कह रही थी, वह कर नहीं कर पाई। ट्रायल रूप में चलाई गई तेज गति की ट्रेन ही 10 मिनट देर से आगरा पहुंच पाई। गणना यह की गई थी कि यह ट्रेन 194 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलेगी। तब यह 90 मिनट में दिल्ली से आगरा पहुंच पाएगी। पर ऐसा हो नहीं पाया। पर इसके लिए पटरियों पर करीब 15 करोड़ रुपए खर्च किए गए। यह तो तय है कि भारतीय रेल अभी तो 200 की स्पीड पर नहीं चल पाएंगी। जापान ने अभी कुछ समय पहले ही अपनी सबसे तेज गति से चलने वाली ट्रेन का ट्रायल किया। आप जानना चाहेंगे कि इसकी स्पीड कितनी थी? एक घंटे में 580 किलोमीटर! मेंगलेव के रूप में पहचानी जाने वाली यह ट्रेन मैग्नेटिक ट्रेक पर दौड़ती है। हमारे देश में जो पटरियां बिछी हैं, उसकी क्षमता इतनी नहीं है कि द्रुत गति से कोई ट्रेन उस पर दौड़ सके। जापान से पचास साल पहले 1964 में बुलेट ट्रेन शुरू कर दी थी। वहां 300-350 की गति तो सामान्य है। जापान, चीन, फ्रांस, जर्मनी के बीच तेज गति की ट्रेन चलाने की प्रतिस्पर्धा चलते ही रहती है। हमारे लिए उस स्तर तक पहुंचना अभी संभव नहीं है। इसकी वजह यही है कि हाईस्पीड ट्रेन से अधिक आवश्यकता है कि उसके लिए तरोताजा नेटवर्क तैयार करना। अभी तो जो ट्रेनें चल रही हैं, उसे ही व्यवस्थित तरीके से चलाना ही किसी चुनौती से कम नहीं है।
हमारे देश का रेल्वे नेटवर्क विश्व का सबसे बड़ा नेटवर्क है। हमारे यहां 64 हजार किलोमीटर में पटरियां फैली हुई हैं। अब इन पटरियों पर 150-170 की स्पीड से ट्रेनें दौड़ेंगी। हमारे यहां रेल्वे ट्रेक दोनों तरफ से खुले होते हैं। इसलिए पशु जब चाहे तब पटरियों पर आ जाते हैं और मौत का शिकार होते हैं। गुजरात के सासण और गिर जंगलों में रेल्वे ट्रेक पर ही वनराजा बैठ जाते हैं और मौत का शिकार होते हैं। इसके अलावा कईरेल्वे फाटक ऐसे हैं, जहांरेल्वे का कोई कर्मचारी नहीं है। फास्ट ट्रेन दौउ़ाने के पहले इन हालात पर गौर करना आवश्यक है। सरकार फास्ट ट्रेन चलाने के लिए निजी कंपनियों की सहायता लेगी। पर इन ट्रेनों से कितने आम आदमियों को फायदा होगा? जिनके लिए फास्ट ट्रेनें चलाई जा रही हैं, वे तो विमान से भी जा सकते हैं। ट्रेनों की बेहतर सेवाएं देनी हैं, तो ऐसे लोगों को दी जाए, तो सुदूर अंचलों में रहते हैं। जिनके लिए ट्रेन का समय पर आना ही बहुत बड़ी बात है। आज भी लोग ट्रेन में यात्रा करने के लिए डेढ़-दो महीने पहले से आरक्षण करवाते हैं, तो उन्हें आरक्षण नहीं मिल रहा है। दलाल लाबी पूरे रेल्वे तंत्र पर हावी है। कितनी कोशिशों के बाद भी रेल्वे दलालों से मुक्त नहीं हो पाया। आम आदमी को किस तरह से आरक्षण आसानी से मिले, यह एक बड़ी समस्या है। पहले इसे हल किया जाना आवश्यक है।
हमारे यहां की मेट्रो ट्रेनें कितनी भव्य होती हैं। इसका उदाहरण अभी मुम्बई में हुई मूसलधार बारिश के दौरान मेट्रो ट्रेनों के भीतर पानी घुस आया। मुम्बई में अभी तो मेट्रो ट्रेन केवल वर्सोवा से घाटकोपर के बीच ही चल रही है। इन दोनों उपनगरों के बीच की दूरी मात्र 11.4 किलोमीटर है। अभी इसकी स्पीड 80 किलोमीटर ही है। अब यदि यही हाल रहे, तो निजी कंपनियों की मदद से चलने वाली ट्रेनों का क्या हश्र होगा? यह सभी जानते हैं। मेट्रो और बुलेट ट्रेनों की बात छोड़ो, पहले यह देखा जाए कि अभी जा ेट्रेनें दौड़ रही हैं, उनकी हालत क्या है? हर सप्ताह एक ट्रेन दुर्घटना होती है, जिसमें कुछ लोग मरते हैं और बहुत से लोग घायल होते हैं। इस बार बजट में ऐसे लोगों के लिए शायद बड़ी राहत का प्रावधान है। कुछ और बातें भी हैं, जिसमें प्रमुख हैं कि राजधानी और शताब्दी ट्रेनों के दरवाजे मेट्रो की तरह होने वाले हैं। अभी सरकार का ध्यान केवल उच्च वर्ग को रिझाने पर ही है। आम आदमी के लिए कुछ सोचा जा रहा है, ऐसा नहीं दिखता। आज ट्रेनों पर चढ़ने के लिए बुजुर्गो की हालत खराब हो जाती है, वे आसानी से ट्रेनों पर नहीं चढ़ पाते हैं। बिना सहारे के कूपे के अंदर पहुंचना भी उनके लिए मुश्किल होता है। रेल्वे की बुकिंग भले ही ऑनलाइन हो गई हा, पर आज भी वहां दलालों का ही कब्जा है। आम आदमी किसी भी हालत में अपने बल पर आरक्षण करवा ही नहीं सकता।  इतनी घोषणाओं के बाद भी आज तक दलालों पर किसी तरह की कार्रवाई हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। टीटीई आज भी रिश्वत लेकर सीट देने में कोताही नहीं करते। वेटिंग लिस्ट वाले पूरी राशि देने के बाद भी लाचार होकर यात्रा करते हैं। दूसरी ओर ट्रेनों के टायलेट इतने अधिक गंदे होते हैं कि स्टेशन पर दरुगध के बीच खड़े रहना भी मुश्किल होता है। आज भी ट्रेन जब स्टेशन पर खड़े रहती है, तब भी लोग टायलेट का इस्तेमाल करते हैं। इससे सारी गंदगी पटरियों के बीच आ जाती है। ऐसा नहीं हो सकता क्या कि जब ट्रेन स्टेशन पर खड़ी हो, तो टायलेट का दरवाजा खुले ही नहीं। वैसे हमारे देश के रेल्वे स्टेशन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है।
कुछ ऐसी ही हालत ट्रेनों में मिलने वाले खाद्य पदार्थो की है। इस खाद्य पदार्थ को एक बार देश के मंत्रियों को अवश्य खिलाना चाहिए। यात्री मजबूरी में ही यह खाना खाते हैं। देश के अधिकांश लोग गरीब और मध्यमवर्गीय हैं। ट्रेनों की स्पीड थोड़ी कम हो, तो चलेगा, पर यात्री आराम से एक स्थान से दूसरे स्थान जा सकें, ऐसी व्यवस्था पहले की जानी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि बुलेट ट्रेन होनी चाहिए, पर इससे देश का उद्धार नहीं होगा, उद्धार होगा तो केवल उच्च वर्ग का। अभी भी देश में गाड़ी छुक-छुक करके चल रही है, इस ओर भी ध्यान दिया जाए, तो कम से कम गरीब और मध्यम वर्ग का भला हो। जनरल कोच की हालत कैसी होती है, यह हमारे देश के किसी नेता या मंत्री को नहीं पता। एक बार वे भी आम आदमी बनकर बिना आरक्षण के जनरल कोच में यात्रा करके देख लें, पता चल जाएगा कि इस देश के आम आदमी की हालत कैसी है? गरीब रथ के नाम से चलने वाली ट्रेनों का किराया बहुत ही महंगा है। उसे तो अमीर रथ का नाम दिया जाना चाहिए। यात्रा की पूरी राशि देकर भी धक्के खाकर यात्रा करने वाले बेबस यात्रियों के बारे में भी कुछ सोचा जाना चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

देश में भी घूम रहा है कालाधन

दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख 
http://epaper.jagran.com/epaper/01-jul-2014-262-National-Page-1.html#

 
कालाधन:हवाला पर सख्ती जरुरी
डॉ. महेश परिमल
सरकार को आखिर कौन रोक रहा है, विदेशी बैंकों से देश का कालाधन लाने के लिए। उसके पहले यदि देश में ही जो कालाधन है, पहले उसे बाहर लाने की कोशिश होनी चाहिए। बेवजह शोर करने का कोई अर्थ नहीं। हम ऐसा करेंगे, हम वैसा करेंगे, कहने से बेहतर है कि हमने ऐसा किया, हमने वैसा किया। यह सच है कि दवा का कड़वा घूंट पीने के लिए इंसान को हमेशा तैयार रहना चाहिए। नीम का पत्ता कड़वा अवश्य होता है, पर खून साफ करता है। ठीक इसी तरह रेल किराया और मालभाड़े में वृद्धि कर सरकार ने जनता को दवा का कड़वा डोज दिया है। अब शकर और पेट्रोल की बारी है। धीरे-धीरे महंगाई अपना असर दिखाने लगी है। जनता ने यही सोचकर अपना कीमती वोट दिया था कि अब उन्हें महंगाई से राहत मिलेगी। पर एक महीने में ही पता चल गया कि हालात कितने बेकाबू होने वाले हैं। विदेशों से कालाधन जब आएगा, तब आएगा। पर यदि ऐसी कोशिशें हो कि देश का ही कालाधन बाहर आ जाए। यदि इस दिशा में अभी से काम शुरू हो, तो निश्चित ही इसके अच्छे परिणाम सामने आएंगे।
भारत में कालाधन या दो नम्बर का धन पूरी तरह से सुरक्षित रखने के लिए स्विस बैंक विख्यात है। इस बंक में देश के नेताओं, कापरेरेटरों, दलालों, मैच फिक्सिंग में फंसे क्रिकेट खिलाड़ियों एवं भ्रष्टाचारियों का धन सुरक्षित है। स्वीस बैंक इन लोगों का खाता आसानी से खोल लेता है। आश्चर्य इस बात का है कि कालाधन सुरक्षित रखने के लिए वह मोटी रकम भी वसूलता है। लोग इस धन को बचाए रखने के लिए यह मोटी रकम भी देने को तैयार हैं। देश में ही छिपाए गए कालेधन पर सरकार बजट में अपना रुख साफ करेगी। कहा गया है कि इस बार इस दिशा में सरकार सख्त होगी। यदि ऐसा हो, तो बेहतर होगा। पर आखिर कालेधन को विदेशी बैंकों में जमा करने की स्थिति आती ही क्यों है? इस दिशा पर सरकार का ध्यान जाना आवश्यक है। विदेशी बैंकों में भारतीयों का जमा धन आखिर देश के मध्यम वर्ग का ही है। इस काले धन को जमा करने वाले समृद्ध और रसूखदार वर्ग है। इसमें नेता, सेलिब्रिटी, मैच फिक्सिंग से जुड़े खिलाड़ी आदि का समावेश होता है। सभी बड़ी कंपनियां जाने-अनजाने कालाधन तैयार करते हैं। उसके बाद विभिन्न तरीकों से उसे व्हाइट में बदलने की कोशिश करते हैं। इस कोशिश में वे सफल भी होते हैं और आयकर छिपाने में भी कामयाब हो जाते हैं।
वैसे तो स्विटजरलैंड में 283 बंक है, पर जानकारी के अनुसार स्विस बैंक में भारतीय अपना कालाधन जमा करते हैं। इस धन का तृतीयांश भारतीय यूपीएस और क्रेडिट सुइसी में धन निवेश करना पसंद करते हैं। जानकारी के अनुसार स्विस बैंकों में भारतीयों के 2.02 अरब स्विस फ्रेंक जमा हैं। इसे यदि भारतीय मुद्रा में बदला जाए, तो यह राशि 14000 करोड़ रुपए होती है। किपछले वर्ष इस राशि में 43 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। यह सुनकर सरकार चौंक उठी। तब कालाधन प्राप्त करने के लिए सरकार ने नए सिरे से कोशिशें शुरू की। चुनाव के पहले भाजपा ने विदेशी बैंकों में जमा कालेधन को वापस लाने के लिए ‘सीट’ की रचना करने की भी घोषणा की थी। चुनावी सभाओं को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने यह कहा था कि यदि विदेशी बंकों से कालाधन वापस लाया गया, तो इस धन को मध्यम वर्ग में बांट दिया जाएगा, आखिर यह धन मध्यम वर्गसे ही लूटा गया धन ही है। स्विस की यूबीएस और क्रेडिट सुईए में जो धन है, उसमें 68 प्रतिशत भारतीयों का ही है। स्विस बैंकों में 11 हजार करोड़ की राशि अन्य देशों की है। भारतीयों के अलावा स्विस बैंक ने अन्य बैंकों में जमा की गई कुल राशि 850 करोड़ है।
स्विस की दो बैंकों में भारतीयों के 43 प्रतिशत राशि बढ़ने के पीछे का कारण यह है कि भारत में कर प्रणाली को यह निवेशक आसानी से धोखा दे जाने में कामयाब हैं। भारत के कानून भी हवाला रेकेट को रोक नहीं सकते। इसलिए हवाला के माध्यम से स्विस बैंक में राशि पहुंच जाती है। हवाला के खिलाफ ठोस कार्रवाई करते हुए यदि सरकार कड़ा कानून बनाती है, तो स्विस बैंकों में धन जमा कराने वाले बेहाल हो सकते हैं। पर किसी सरकार ने अभी तक इस दिशा में गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया है। यदि इस दिशा में कानून बना भी दिया जाए, तो उसका अमलीकरण बहुत मुश्किल है। प्रत्येक देशवासी इस समय रोज ही भ्रष्टाचार से दो-चार हो रहा है। वह अपना आयकर बचाने के लिए काफी जद्दोजहद करता है। सरकार भी विदेशी बैंकों में पहुंचने वाले धन को रोक नहीं पा रही है। वह इसका भी प्रयास नहीं कर पा रही है कि कोई भारतीय विदेशी बैंकों में अपना खाता ही न खोल पाए। यदि खाता खुलवाना आवश्यक ही है, तो उसे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की मंजूरी लेना आवश्यक होनी चाहिए। यदि किसी का विदेशी बैंक में खाता है, तो उसे एक महीने के अंदर आरबीआई को जानकारी देनी होगी। यदि ऐसा होता है, तो सरकार उसकी राशि के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकती है। जो लोग आरबीआई की जानकारी के बिना विदेशी बैंकों में अपना खाता खोलते हैं, तो उन्हें 25 से 50 साल की सजा होनी चाहिए। सरकार काफी समय से इस दिशा में कार्रवाई की बात कर रही है, इसलिए कई लोगों ने विदेशी बैंकों में अपना खाता बंद कर कहीं और खुलवा लिया है। वैसे अभी भी लोगों का स्विस बैंकों से मोहभंग नहीं हुआ है। यदि स्विस बैंक भारतीय खातेदारों का नाम और राशि बताती है, तो देश में एक तरह से भूचाल ही आ जाएगा। कई नेताओं और कई अधिकारियों के नाम सामने आएंगे। यदि स्विस बैंक से राशि मिल भी जाती है, तो इस राशि का किया क्या जाए, यह भी एक गंभीर प्रश्न है। इस राशि को मध्यम वर्ग के बीच बांट दी जाए, तो प्रधानमंत्री को अपना यह वचन पूरा करना ही होगा।
विख्यात अर्थशास्त्री स्वामीनारायण अय्यर का कहना है कि स्विस बैंकों में मात्र एक प्रतिशत की दर से ब्याज दिया जाता है। इस बैंकों में केवल बेवकूफ लोग ही अपना धन जमा कर अपनी मूर्खता जाहिर करते हैं। स्विस बैंकों का उपयोग लोग कामचलाऊ स्तर पर कालाधन स्वीकारने और संभालने के लिए करते हैं। फिर ये कालाधन भारत लाकर उसे शेयरों एवं रियल एस्टेट में निवेश कर दिया जाता है। कालाधन की सबसे अच्छी वापसी केवल भारत में ही होती है। सन् 2000 में न्यूयार्क का डाऊ-जोंस इंडेक्स जितना था, लगभग उतना ही आज भी है, जबकि भारत का सेंसेक्स में 6 गुना वृद्धि हो चुकी है। दस दौरान रियल एस्टेट के भावों में करीब 500 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। अमेरिकी सरकार अपने बांड पर 3 प्रतिशत ब्याज देती है, उसके मुकाबले भारत सरकार 8 प्रतिशत ब्याज देती है। इस दौरान भारत में सोने-चांदी के भावों में बेतहाशा वृद्धि हुई है। एक अंदाज के मुताबिक भारत के बाजारों में 25 लाख करोड़ का कालाधन घूम रहा है। इस धन को मुख्य प्रवाह में लाना सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।
डॉ. महेश परिमल

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