गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

धैर्य की सीमा

डॉ. महेश परिमल
लोग कहते हैं कि धैर्य की सीमा क्या होनी चाहिए? एक जिज्ञासु ने जब मुझसे यह प्रश्न किया, तो मैंने कहा-यदि धैर्य की सीमा जानना चाहते हो, तो पानी को बर्फ बनता देखो। पानी का बर्फ बनना यानी तापमान का लगातार गिरना। तापमान का गिरना यानी ठंड के थपेड़ों को सहना। अपनी आंखों के सामने एक-एक चीज का सिमटना। आँख का संकुचित होना। पानी काे एकटक देखना। निर्निमेष देखती आँखें और पानी का रूप परिवर्तन। ठीक वैसे ही, जैसे तेज हवाओं के आगे बुझते दीपक को जलाए रखने की मशक्कत करना। एक स्थिति ऐसी आती है, जब हमें स्वयं का भान नहीं होता। यही होती है ध्यान की अवस्था। इस दौरान जो कुछ होता है, वही है सच्चा ध्यान। इधर पानी बर्फ बनता है, उधर ध्यान पूरा होता है। एक नई चीज आपके सामने होती है। आपको लगता है कि आज मेरे सामने कुछ नया हुआ। यहां से शुरू होती है खुद को पहचानने की कला। इस कला को हर कोई नहीं समझ सकता। खुद को पहचानना यानी खुदा को पहचानना। इसलिए ईश्वर तक जाने का रास्ता खुद से निकलता है। ईश्वर को खोजने के लिए खुद को खोज लो, ईश्वर आपके सामने होंगे।
अब आप कहेंगे कि ये ईश्वर क्या होता है? जो हमें संबल दे, हमें चुनौतियों से लड़ना सिखाए, हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करे, वह ईश्वर। यह काम यदि कोई इंसान भी करे, तो भी वह हमारे लिए ईश्वर ही है। ईश्वर स्वयं सभी जगह नहीं जा पाते, इसलिए वे अपना प्रतिनिधि भेजते हैं, जो उनकी तरह काम करते हैं। अब इस प्रतिनिधि को कौन पहचान पाता है? वही जिसे ईश्वर की तलाश है। इसलिए यदि हमारे आसपास कोई ऐसा इंसान है, जो ईश्वर की तरह काम करता है, तो उसे अपना आराध्य मान लो। यह किसी भी रूप में हो सकता है। कभी किसी बुजुर्ग के रूप में या फिर बच्चे के रूप में। प्रेयसी में यदि ईश्वर के दर्शन करना चाहते हैं, तो उसके लिए रामकृष्ण परमहंस बनना होगा। रामकृष्ण परमहंस यानी विवेकानंद के गुरु। इनकी सीमा तक पहुँचना हम साधारण इंसान के बस की बात नहीं है। हमें तो केवल पानी को बर्फ बनने की प्रक्रिया देखनी है। यही है धैर्य की सीमा।
डॉ. महेश परिमल

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