शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

दाल बनी वीआईपी, सरकार निष्क्रिय

डाॅ. महेश परिमल
डिजिटल इंडिया का नारा लगाने वाली सरकार के सामने देखते ही देखते दाल आम आदमी की पहंुच से दूर हो गई। सरकार की निष्क्रियता सामने आ गई। अच्छे दिन की कल्पना करने वाले अब बुरे दिन भी देखने लगे। महंगी दाल ने दीवाली का उत्साह की खतम कर दिया है। लोगों को दिखाए जाने वाले सारे सपने दिवास्वप्न हो गए। सरकार न तो जमाखोरों पर अंकुश रख पाई और न ही मुनाफाखोरों पर किसी प्रकार की सख्ती दिखा पाई। प्रधानमंत्री का नारा ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ यहां आकर सच साबित हो रहा है। सचमुच दाल को भोजन की थाली से गायब पाकर अब यह सोचना जायज हो जाता है कि भोजन की थाली से अब क्या-क्या चीजें गायब होने वाली हैं। यह सच है कि सरकार भ्रष्ट नहीं है, पर भ्रष्टों का संरक्षण देना भी एक अपराध ही है, इस अपराध से मोदी सरकार खुद को अलग नहीं कर सकती। नेताओं को विवादास्पद बयान देने से ही फुरसत नहीं है। दाल के भाव को अंकुश में रखने के सारे सरकारी प्रयास विफल साबित हुए। अपने आप को साहसी सरकार कहने वाली यह सरकार दाल के बढ़ते दामों पर कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस के जमाने में दाल ने कीमतों के इतने ऊंचे ग्राफ नहीं छुए थे। इस सरकार ने हद ही कर दी।
जिन हिंदू संगठनों के बूते पर यह सरकार बनी है, अब वे ही सरकार का विरोध करने लगे हैं। यह भी तय है कि एक दिन यही समर्थक संगठन सरकार को मुसीबत में भी डाल सकते हैं। यह सब होगा, नेताओं के बेतुके बयानों से। क्योंकि इतनी सख्ती के बाद भी प्रधानमंत्री की सलाह को न कोई मान रहा है, न ही उसे गंभीरता से ले रहा है। एक तरफ स्वयं प्रधानमंत्री के बयान संयत होते हैं, वही दूसनेताओं के बयान आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। कभी आरएसएस के प्रमुख मोदी की विचारधारा के विरुद्ध बोलते हैं, तो कभी विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर बनाने के लिए विवादित बयान देती है। गौमांस के मामले पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि इस चक्कर में सरकार यह भूल गई कि महंगाई दबे पांव बढ़ गई है, उस पर लगाम कसनी है। इस दौरान जमाखोरों की तो बन आई। पूरे डेढ़ वर्ष के मोदी शासन में किसी जमाखोर या मुनाफाखोर पर सख्त कार्रवाई हुई, ऐसा न तो सुना गया और न ही पढ़ा गया। अनजाने में वह इन समाजविरोधी तबकों को संरक्षण ही दे रही है। ऐसे में भाजपा पर विश्वास कर वोट देने वाला मतदाता ठगा सा रह जाता है।

आज की महंगाई पर यदि किसी की जवाबदारी बनती है, तो वह है मोदी सरकार। यूपीए सरकार के तमाम सलाहकारों को बेदर्दी से हटा दिया गया। मंत्रियों के कार्यालयों में काम करने वाले कांग्रेस समर्थक सभी लोगों को हटा दिया गया। योजना आयोग पर ताला लगा दिया। यह सब काम इसलिए किया गया कि मोदी सरकार स्वतंत्र होकर काम कर सके। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार महंगाई तो कम नहीं कर पाई, उल्टे महंगाई दोगुनी हो गई। जब प्रधानमंत्री स्वयं यह कहते हैं कि वे गरीबी में पले-बढ़े हैं, तो फिर उन्हें महंगाई क्या होती है, यह अच्छी तरह से पता होना चाहिए। जो गरीबी में पले-बढ़े होते हैं, वे ही जानते हैं कि महंगाई बढ़ने से इस परिवार पर क्या बीतती है? अपने नारों में प्रधानमंत्री निवेश, विदेशी निवेश, डिजिटल इंडिया, साइन इंडिया आदि शब्दों का उच्चारण करते हैं, तो लगता है कि यह तो आम आदमी की आवाज कतई नहीं है। विदेशी यदि भारत में निवेश करें, तो इससे आम आदमी को क्या? वह तो यही चाहता है कि किसी भी तरह से महंगाई कम हो। जीने लायक कमा सकें और आवश्यक वस्तुओं को खरीद सकें। विदेशों से अच्छे संबंध एक चुनौती है, पर उससे बड़ी चुनौती यह है कि देश में क्या चल रहा है, उसे भी जानना। आज हर तरफ महंगाई की ही चर्चा है, पर उसे कम करने के लिए किसी के पास कोई उपाय नहीं है। आज सरकार का संबंध आम आदमी से टूट गया है, जो आघातजनक है। सरकार की नजर डॉलर के भाव, सोनेे-चांदी के भाव, क्रूड के भाव आदि से हटती नहीं है। जीडीपी और मैनुफैक्चरिंग इंडेक्स की बातें करती थकती नहीं, परंतु अरहर की दाल के बढ़ते दाम जैसे सुलगते मुद्दे पर कोई कुछ करने को तैयार ही नहीं है। सरकार बातें बहुत कर रही है, पर अपने खिलाफ कुछ भी सुनना नहीं चाहती। एनडीए सरकार बनी, तब से सभी अच्छे दिनों की राह देख रहे हैं। पर अच्छे दिन एक सपना बनकर रह गया है। अब कमरतोड़ महंगाई सबका स्वागत करने लगी है। अाश्चर्य इस बात का है कि पहले पेट्रोल की कीमतों के साथ्ज्ञ महंगाई बढ़ती थी, अब तो पेट्रोल के दाम कम हो रहे हैं, अब जाकर स्थिर भी हो गए हैं, उसके बाद भी महंगाई लगातार बढ़ रहे हैं। सरकार इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? सरकार को अपनी नाकामयाबी की शायद जानकारी नहीं है। अपनी छबि को उज्जवल करने के लिए प्रधानमंत्री विदेशों के दौरे कर रहे हैं। शायद उन्हें भी नहीं मालूम कि देश में क्या हो रहा है। अरहर दाल ने अन्य सभी दालों के दाम बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
कई लोग यह तर्क दे रहे हैं कि महंगाई बढ़ने के साथ-साथ लोगों के वेतन में भी वृद्धि हुई है। पर वेतन में वृद्धि केवल सरकारी कर्मचारियों की हुई है। निजी कंपनियों के कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि एक विकसित देश में बढ़ती महंगाई पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। पर जब क्रूड आयल के दामों में कमी आती है, तो उसका लाभ देश को जो मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पा रहा है। भाव कम होने का असर सुदूर गांव के एक ग्रामीण पर भी होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। यह सरकार की अदूरदर्शिता है। सरकार को यह देखना चाहिए कि जब वह दाम कम करती है, तो वास्तव में दाम कम हो रहे हैं या नहीं। अमेरिका जैसे देशों में दूध, अंडे और ब्रेड की कीमतों मे पिछले 40 बरसों में मात्र कुछ सेंट की ही बढ़ोत्तरी हुई है। यदि हमारे देश में भी यह संभव होता है, तो यह सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। सरकार के पास अभी भी समय है, वह जमाखोरों के खिलाफ सख्त कदम उठाए। जिससे उन्हें लगे कि दालों का संग्रह कर उन्होंने गलती की है, तो इसी गलती का अहसास उन्हें सरकार उन पर सख्ती लगाकर कराए, तो दाल के दाम अंकुश में लाने में देर नहीं होगी। इसके पहले भी देश को प्याज ने काफी रुलाया है। कांग्रेस की सरकार केवल प्याज के कारण ही चली भी गई। प्रधानमंत्री की बड़ी-बड़ी बातें अब लोगों को लुभा नहीं पा रही हैं। आम आदमी चाहता है कि वह अपने बच्चों की परवरिश सही तरीके से कर सके। इसीलिए उसने भाजपा को अपना कीमती वोट दिया था। अब यदि यह सरकार भी आम आदमी की न होकर व्यापारियों, मुनाफाखोरों और जमाखोरों की हो जाए, तो यह भारतीय जनता के लिए बहुत बड़ा धोखा है। सरकार इस दिशा में जितने भी सख्त कदम उठाए, उसका असर दीवाली तक तो नहीं पड़ेगा, यह तय है। इसका मतलब यही हुआ कि इस बार की दीवाली महंगाई के नाम रही।
डाॅ. महेश परिमल

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