मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

कांग्रेस के मुश्किल भरे दिन

 डॉ. महेश परिमल
इन दिनों कांग्रेस के दुर्दिन शुरू हो गए हैं। एक तरफ सोनिया गांधी की सक्रियता कम है, तो दूसरी ओर राहुल गांधी की सक्रियता प्रभावित नहीं कर रही है। इन हालात में मई के बाद कांग्रेस की अंतर्कलह तेजी से सामने आएगी। इसकी पूरी संभावना है। बहुत से ऐसे लोग अभी भी कांग्रेस में हैं, जो पूरी तरह से सक्षम हैं, उसके बाद भी हाशिए पर हें। यही कारण है कि कांग्रेस ने महाराष्ट्र, हरियाणा को अपने हाथ से गंवा दिया है। अरुणाचल, उत्तराखंड भी इसी अंतर्कलह के कारण हाथ से गए, अब असम की बारी है। समझ में यह नहीं आता कि कांग्रेस को समझाने वाला कोई नहीं है। अपनी ढपली अपना राग की तर्ज पर चलने वाली कांग्रेस अब लड़खड़ाने लगी है। उसके जनाधार का ग्राफ तेजी से नीचे जा रहा है। अपने जीवनकाल के सबसे कठिन दौर से गुजरती कांग्रेस को देखने वाला कोई नहीं बचा। लोकसभा चुनाव में केंद्र की सरकार तो गुमा ही दी। बहुत ही शर्मनाक रूप से केवल 44 सीटों पर ही कब्जा जमा पाई।
4 अप्रैल से पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाड़ु, केरल में विधानसभा चुनाव शुरू हो गए हैं। यह मतदान प्रक्रिया लगातार डेढ़ महीने तक चलेगी। ये डेढ़ महीने कांग्रेस के लिए बहुत ही निर्णायक होंगे। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी कशमकश यह है कि सोनिया गांधी की सक्रियता कम हो गई है और राहुल गांधी की सक्रियता बिलकुल भी फलदायी नहीं रही। उसके वोट बैंक लगातार कम होते जा रहे हैं। साथ ही सत्ता के साथ दूरी भी बढ़ती जा रही है। राहुल गांधी 2006 से पार्टी के महामंत्री के रूप में जवाबदारी संभाल रहे हैं। पार्टी की कमान संभालने के बाद वे लगातार हर मोर्चे पर निष्फल साबित हो रहे हैं। पार्टी के महामंत्री के रूप में उन्होंने चार राज्यों में चुनाव की कमान संभाली, इन चारों राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई। इसके बाद भी इस पराजय का ठीकरा कभी भी राहुल पर नहीं फोड़ा गया। न ही किसी रूप में राहुल गांधी को जवाबदार माना गया। इसके बाद लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह से हार मिली। ऐसी हार कांग्रेस के संवैधानिक इतिहास में पहले कभी नहीं मिली थी। यदि उनके स्थान पर कोई दूसरा महामंत्री होता, तो अब तक उसका राजनीतिक जीवन ही समाप्त हो गया होता। यहां भी कांग्रेस ने परिवारवाद को आगे रखते हुए कभी भी राहुल गांधी का नाम नहीं लिया।
महाराष्ट्र, हरियाणा में पूरी तरह से और जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की सत्ता भागीदारी की थी। वहीं से कांग्रेस ने सत्ता गुमा दी। इन हालात में राहुल के पास कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की अपेक्षा रखना मुश्किल है। इस बीच राहुल ने केंद्र सरकार की आलोचना में कोई कसर नही छोड़ी। उसके विरोध के स्वर भी इतने मुखर नहीं थे कि लोग उसका सम्मान करते। कई बार वे बचकानी बातें भी कर जाते। उनके सारे प्रयास मामूली साबित हुए। हैदराबाद यूनिवर्सिटी में दलित विद्यार्थी की आत्महत्या के समय राहुल कुछ सक्रिय हुए थे, परंतु दलित मतदाताओं को रिझाने में वे नाकाम रहे। इसके पूर्व वे पूणे स्थित फिल्म इंस्टीट्यूट में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति के खिलाफ चल रहे आंदोलन में छात्रों के साथ होने का प्रयास किया। इसमें भी वे अपनी भूमिका प्रभावशाली ढंग से नहीं कर पाए। जेएनयू विवाद को समझे बिना उसमें भी कूद पड़े। इस बात को कांग्रेसी भी मानते हैं कि राहुल आखिर तक यह तय ही नहीं कर पाते हैं कि उन्हें कन्हैया कुमार का पक्ष लेना है या उसकी आलोचना करनी है। हर बार उनकी बचकानी हरकतें सामने आ जाती हैं। जिससे वे बच्चे ही सिद्ध होते हैं। आखिर कब आएगी, उनमें अच्छी समझ?
कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती नीति विषयक है। असाम्प्रदायिकता यह कांग्रेस का मूलभूत चेहरा है। पर अब कांग्रेस स्वयं ही सशंकित है। भाजपा के आक्रामक प्रचार के आगे कांग्रेस अपनी बात पुरजोर तरीके से नहीं रख पा रही है। इससे उसकी छवि हिंदू विरोधी बनने लगी है। देश भर में कुल 18 प्रतिशत ही मुस्लिम मतदाता हैं। हिंदू मतदाता की संख्या 82 प्रतिशत है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस की छवि नकारात्मक ही अधिक दिखाई देती है। यदि सभी मुस्लिम मतदाता कांग्रेस को वोट दें, तो किसी भी तरह से कांग्रेस सत्ता के करीब पहुंच ही नहीं सकती। एक समय ऐसा भी था, जब दलित, आदिवासियों के बाद निम्न मध्यमवर्ग कांग्रेस का पुख्ता वोटबैंक था। यह वोटबैंक कांग्रेस से लगातार दूर होता चला गया। कई राज्यों में कांग्रेस का स्थान क्षेत्रीय दलों ने ले लिया है। जिन राज्यों में कांग्रेस-भाजपा के बीच सीधी टक्कर है, वहां भाजपा ने उस वोटबैंक को अपने नाम कर चुकी है। कांग्रेस का यह खोया हुआ आत्मविश्वास अब उसे अपनी नीति ही नहीं बनाने दे रहा है। सत्ता पर आने के बाद भाजपा ओर संघ परिवार की संस्थाओं द्वारा घरवापसी, लव जेहाद जैसे कार्यक्रमों पर नेताओं के बयानों के माध्यम से कांग्रेस अपने दृढ़ विचारों को सामने रख सकती थी। उसे यह अच्छा अवसर मिला था, पर वह ऐसा नहीं कर पाई। इसके अलावा साक्षी महराज, साध्वी निरंजन ज्योति आदि के विवादास्पद बयान, गिरिराज सिंह की तीखी जीभ, जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी में दरार, भारतमाता की जय बोलने का विवाद….. ये सब ऐसे मुद्दे थे, जिससे कांग्रेस कमबेक कर मीडिया में सुर्खियां बटोर सकती थी। इससे वह मोदी सरकार को पसोपेश में भी डाल सकती थी। इसके बदले कांग्रेस ने अपनी अधिकारिक प्रतिक्रिया देकर और प्रवक्ताओं या नेताओं ने ट्विटर पर दो-चार पंक्तियां लिखकर अपने काम की इतिश्री कर ली।
कांग्रेस इसके पहले भी इस तरह के मुश्किल भरे दिनों से गुजरी है। आपातकाल के बाद पूरा विपक्ष एकजुट हो गया था। इंदिरा गांधी की पराजय हुई थी। तब ऐसा भी कहा जाने लगा था कि भारतीय राजनीति से कांग्रेस का सूर्य अस्त हो गया। परंतु इंदिरा जी ने थोड़ा धैर्य रखा। सबसे पहले तो उन्होंने इमरजेंसी में बनी छवि का मेकओवर किया। इंदिरा इज इंडिया जैसी छवि को नए सिरे से बेहतर करने की कोशिश की। अपने सत्तालोलुप होने की इमेज को भी बदलने का प्रयास किया। इस तरह के विपक्ष के तमाम आरोपों का डटकर मुकाबला किया। इससे विपक्ष का असली चेहरा सामने आने लगा। कुछ समय बाद ही एकजुट विपक्ष अपने ही भार से टूटने लगा। उनकी एकता किस स्वार्थ से बंधी थी, यह भी सामने आ गया। इन सब चुनौतियों का सामना करते हुए वे एक बार फिर सत्ता पर काबिज हो गई।
राजीव गांधी की मौत के बाद कांग्रेस हतप्रभ रह गई। एक शून्य समा गया, पूरी कांग्रेस में। सीताराम केसरी जैसे लोग कांग्रेसाध्यक्ष बने। इससे कांग्रेस की जमकर आलोचना हुई। ऐसे माहौल में सोनिया गांधी ने कांग्रेस की बागडोर अपने हाथ में ली। कांग्रेस में जान आई। उसके बाद कांग्रेस इतनी मजबूत हुई कि दो बार केंद्र की सत्ता पर काबिज भी हुई। अब राहुल गांधी के सामने चुनौती है। कांग्रेस की सबसे अधिक समय तक अध्यक्ष पद संभालने वाली सोनिया गांधी 2020 तक कार्यभार संभालने के लिए तैयार नहीं है। ऐसा उन्होंने संकेत दिया है। दूसरी तरफ ऐसा लगता कि राहुल गांधी लगातार अपना आत्मविश्वास खोते जा रहे हैं। संभव है कांग्रेस के ही कुछ नेता ही उन्हें अंधेरे में रखे हुए हों। यह भी संभव है कि राहुल अब किसी की दखलंदाजी पसंद न कर रहे हों। वे अपना एकछत्र शासन करना चाहते हों। पर वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए कहीं न कहीं उन पर यह दबाव भी है कि वे कुछ बेहतर करें।
एक हवा यह भी है कि कांग्रेस देश की प्रमुख सीटें जीत सके, इसके लिए राहुल ऐसे नेताओं की तलाश में हैं, जो योजना बनाने, उसे अमल में लाने में माहिर हों। वे उन सभी को पार्टी में शामिल करना चाहते हैं। संगठन के स्तर पर वे युवाओं को आगे लाना चाहते हैं। उनकी इस योजना से कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं को घर का रास्ता देखना होगा। ऐसा हुआ भी है। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने राहुल की क्षमताओं पर सवाल उठाए, तो उनकी जो हालत हुई, उससे सभी वाकिफ हैं। एक तरह से ये लोग हाशिए पर आ गए। कुछ लोग राहुल-सोनिया के बीच मतभेद की बात भी कर रहे हैं। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि बिहार चुनाव के समय महागठबंधन रचने की योजना सोनिया गांधी की थी। इधर राहुल किसी भी हालत में लालू यादव से गठबंधन के लिए तैयार नहीं थे। ऐसे में सोनिया ने ही राहुल की मर्जी के खिलाफ महागठबंधन रचने में एक सेतू की भूमिका निभाई थी। प्रचार के दौरान भी राहुल ने लालू से दूरी बनाए रखी और कांग्रेस के अलावा जदयू प्रत्याशी के लिए ही प्रचार किया। इसके बाद जब बिहार के नतीजे आए, तो सोनिया की सूझबूझ सही साबित हुई। इसके बाद राहुल ने जिद करना कम कर दिया। इसी के साथ उनका आत्मविश्वास भी घट गया। अब पश्चिम बंगाल या तमिलनाड़ु में भी कांग्रेस पर कोई विशेष आशा रखी जाए, ऐसा लगता नहीं। असम में लगातार तीन पर सत्ता पर काबिज रहकर अब भाजपा की चुनौती का सामना कर रही है। इन सबके बीच मई के अंत तक कांग्रेस में अंतर्कलह और तीव्र होगी, इसे भी नकारा नहीं जा सकता। इन सभी तथ्यों से साफ है कि कांग्रेस के मुश्किलभरे दिनों की शुरुआत हो गई है। अब इससे कैसे उबरे, यह कांग्रेस तय कर ले, तो नैया पार हो सकती है।

 डॉ. महेश परिमल  

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