सोमवार, 18 अप्रैल 2016

बाल कविता - शिशु बेचारा - ऋता शेखर 'मधु'

मैं बेचारा बेबस शिशु सबके हाथों की कठपुतली मैं वह करुं जो सब चाहें कोई न समझे मैं क्या चाहूँ। दादू का मै प्यारा पोता समझते हैं वह मुझको तोता दादा बोलो दादी बोलो खुद तोता बन रट लगाते मैं ना बोलूँ तो सर खुजाते। सुबह सवेरे दादी आती ना चाहूँ तो भी उठाती घंटों बैठी मालिश करती शरीर मोड़ व्यायाम कराती यह बात मुझे जरा नहीं भाती। ममा उठते ही दूध बनाती खाओ पिओ का राग सुनाती पेट है मेरा छोटा सा उसको वह नाद समझती मैं ना खाउँ रुआँसी हो जाती सुबक सुबक सबको बतलाती। पापा मुझको विद्वान समझते न्यूटन आर्किमिडिज बताते चेकोस्लाविया मुझको बुलवाते मैं नासमझ आँखें झपकाता अपनी नासमझी पर वह खिसियाते। चाचा मुझको गेंद समझते झट से ऊपर उछला देते मेरा दिल धक्-धक् हो जाता उनका दिल गद्-गद् हो जाता। भइया मेरा बड़ा ही नटखट खिलौने लेकर भागता सरपट देख ममा को छुप जाता झटपट मेरी उससे रहती है खटपट। सबसे प्यारी मेरी बहना बैठ बगल में मुझे निहारती कोमल हाथों से मुझे सहलाती मेरी किलकारी पर खूब मुसकाती मेरी मूक भाषा समझती अपनी मरज़ी नहीं है थोपती। दीदी को देख मेरा दिल गाता “ फूलों का तारों का सबका कहना है एक हजा़रों में मेरी बहना है।”

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels