मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

देशप्रेम - डॉ. शरद ठाकर

इंडियन आर्मी के राजपूत रेजिमेन्ट के सीनियर सिपाही हुकूमसिंह शेरावत ने मेजर करतार सिंह की ऑफिस में कदम रखने के पहले एक बार फिर जेब से निकाल कर बेटे का पत्र पढ़ा - 'मेरे प्यारे पिताजी, आपके बेटे विक्रम का प्रणाम. वैसे तो मैं आपसे सख्त नाराज हूँ और आपसे बात भी नहीं करता, मगर क्या करूँ? मजबूरी है इसलिए यह पत्र लिख रहा हूँ. आपको देखे हुए एक साल बीत गया. चार महीने पहले मैंने आपको चिटठी लिखी थी, फिर भी आप नहीं आए. मेरी गरमी की पूरी छुट्टिïयाँ बेकार हो गई. छोटा चिन्टू अभी बहुत छोटा है. उसे तो खेलना भी नहीं आता. आप यहाँ पर होते तो मेरे साथ खेलते. मगर ... जाओ मेरी आपके साथ कुट्टी! लेकिन इस बार आपको आना ही होगा. मेरी सालगिरह करीब आ रही है और आपके बिना मैं केक नहीं काटूँगा. दादाजी अब बहुत बूढ़े हो चुके हैं, दादीजी अब देख नहीं पाती और मेरी मम्मी आपकी तस्वीर के सामने रोती रहती है. इस बार आप जरूर आ जाना. छुट्टियाँ न मिले, तो बड़े साहब को मेरी यह चिट्ठी बता देना. आप अगर न आ पाए तो मैं बड़ा होकर और कुछ भी बनूँगा, लेकिन सिपाही नहीं बनूँगा.' सूबेदार हुकूम सिंह की आँखें एक बार फिर गीली हो गई, पत्र के अंत में लिखे गए 'आपका बड़ा बेटा विक्रम सिंह' पर उसकी दृष्टि स्नेह में भीगे पंख की तरह उन शब्दों पर फिर गई. ऐसा लगा जैसे हृदय सीने से निकलकर आँखों में समा गया. वह समझ गया कि अक्षर भले ही बेटे के थे, पर उसमें विचार उसकी माँ के थे. विक्रम बड़ा अवश्य था, पर छोटे चिंटू से केवल दो साल ही बड़ा था. ऐसा पत्र लिखना उसके वश की बात न थी. पत्र के एक-एक अक्षर में व्यक्त होती तड़प, पीड़ा, वेदना और प्रतीक्षा यह सब तो वास्तव में....! हुकूम सिंह की आँखों के सामने एक गोरा मुखड़ा खिल उठा. लश्करी बूट पटकता हुआ वह साहब के सामने जा खड़ा हुआ. एक सेल्यूट ठोंक दिया. मेजर करतार सिंह ने सिपाही के सामने देखा. 'सूबेदार! अगर छुट्टी माँगने आए हो, तो लौट जाओ, जंग शुरू हो चुकी है और आर्मी का एक भी जवान मोर्चा छोड़कर जा नहीं सकता. फिर चाहे पिताजी की मौत हो गई हो, या फिर घर पर जवान बहन की शादी होने वाली हो, और भी कोई बात है, तो.... 'सर, छुट्टी माँगने के लिए ही आया हूँ, ये चिट्ठी.... मेरे बेटे ने... आप खुद पढ़ सकते हैंÓ मेजर करतार का माथा घूम गया. उन्होंने आदेश दिया- सावधान! पीछे मुड़. तेज चल. गेट आऊट. सख्त वर्दी के भीतर सिपाही हुकूम सिंह नरम पड़ गया और तेज कदमों से बाहर निकल गया. यह एकदम सच्ची घटना है. कारगिल युद्ध के खूनी दिन थे. कौवे जैसे धूत्र्त और सियार जैसे लुच्चे दुश्मन भारत के मानशिखरों पर गिद्ध दृष्टिï डाले हुए थे. एक बार फिर हमारे हिमालय की बर्फीली चादर जवानों के खून से रंग रही थी. रोज रात होते ही तोपों और मशीनगनों की गगनभेदी आवाजों से पर्वत मालाएँ काँप उठती थी. और सुबह होते ही बंगाल, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि अलग-अलग राज्यों में राह देखती माताओं के लाडले लाश बन, कफन में लेट कर अपने अपने गाँव वापस लौट रहे थे. यहाँ छुट्टी पाने के लिए शहीद होना पड़ता था. परिवारजनों से मिलने के लिए लाश बनना पड़ता था. ऑफिस में से 'गेट आऊट' कहे जाने के बाद हुकूम सिंह का दिमाग फिर गया. यह भी कोई जिंदगी है? जंग शुरू हो चुकी है, तो मैं क्या करू? लश्कर में दूसरे पंद्रह लाख सैनिक हैं, मेरे अकेले पर थोड़े ही हार-जीत टिकी हुई है? घर पर बूढ़ा बाप है, जिसके पैरों का इलाज करवाना है. माँ की आँखों में आए मोतियाबिन्द का ऑपरेशन करवाना है. बेटे के जन्मदिन पर केक काटना है और नन्हें चिंटू को गोद में लेकर दुलारना है. और... कोई और भी है घर में, जिसके कोमल गालों को, प्यारे होठों को... हुकूम सिंह का दिमाग तेजी से घूम गया, उसे लगा कि उसके माथे पर कोई हथौड़े से वार कर रहा है. अंदर ही अंंदर तिलमिलाता हुआ उसने सोचा-जहन्नुम में जाए ऐसी नौकरी, भाड़ में जाए यह वर्दी. छुट्टी तो किसी तरह हासिल करनी ही है. मेजर से बड़े साहब से मिलकर देखता हूँ. तभी उसके कानों से आवाज टकराई, पलटकर देखा, तो डाकिया था. आगे क्या हुआ जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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