गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

कहानी - फर्क - हिमांशु श्रीवास्तव

कहानी का कुछ अंश... मदन के दोनो बच्चे चुन्नू और मुन्नू ठेले वालों, खोमचे वालों के पीछे रोज दौड़ते हैं, रिक्शों के पीछे प्रायः रोज लटकते हैं, इमली के पेड़ के नीचे मसजिद के सामने वाली परचून की दुकान में एक रोज का इंटरवल देखर दुकानदार से उधार टाफियाँ माँगने जाते और वह अकेली आँख वाला दुकानदार उकी खाली मुट्ठियों को देख स्वगत स्वर में घृणासूचक शब्दों का गद्य-पाठ करता है। दमा से ग्रस्त वह बुढ़िया भी जो सब्जीमंडी की ओर जाने वाली गली के मुहाने पर थोड़े से सड़े गले फल लेकर बैठती है, इन दोनो लड़कों की चालाकी का शिकार हो जाया करती है। चुन्नू महाशय बीसियों बार उसकी पुरानी टोकरी का वजन कम कर चुके हैं और मुन्नू महाशय तो वैसे देखने में सीधे सच्चे लगते हैं मगर उस पर नजर पढ़ते ही पाँव के एक्जिमें से परेशान डाक्टर साहब की गैरेज की बगल में गरम गरम पकौड़ियों की दूकान लगाने वाले अधेड़ बरसाती, अपने बेटे को अँगीठी हवा देने से रोककर उसकी ड्यूटी लगाता है कि मुन्नू पर नजर रखे और खुद खोमचे के एक कोने में रखी तेल की बासी जलेबियों को आँखों से गिनने लगता है। बस यों ही दिन गुजर रहे थे कि एक रोज रात के लगभग नौ बजे मदन घर लौटा। मगर यह रात के नौ बजे लौटना यहाँ कोई अहमियत नहीं रखता क्यों कि यह सिलसिला ईदे-बकरीदे ही टूटता है। अपने तथाकथित दफ्तर से छूटकर मदन ट्यूशन करता है और तब घर लौटता है। आज रात मनोरमा ने मुन्नू की मरम्मत की थी। वह डेढ़ रोटियाँ खाकर सो गया था और चुन्नू महोदय को माँ ने जोर जबरदस्ती से चारपाई पर लालटेन रखकर पढ़ने बैठा दिया था, सो आज उसे नींद और सर्दी दोनो ने एक साथ धर दबोचा था। पौने दो साल की नन्हीं गुड़िया फटी हुई मच्छरदानी के भीतर अधजगी-सी हाथ पाँव पटकती हुई मच्छरों की शोषण नीति का विरोध कर रही थी। इसलिये ज्यों ही मदन कमरे में आकर खड़ा हुआ मनोरमा उसके सामने आकर खड़ी हो गई और उसके पुराने सूती कोट उतारने में मदद देने लगी। मदन का चेहरा वैसे उतरा हुआ था, लेकिन उसने बड़ी जल्दी में मनोरमा से कहा, "तीस रुपये वाला ट्यूशन आज छूट गया। मगर छोड़ो भी, इससे क्या होता है। छूटने को सरकारी नौकरी तक छूट जाती है, यह तो प्राइवेट ट्यूश का धंधा ठहरा।" कोट को खूँटी से लटकाती हुई मनोरमा बोली, "लेकिन यह क्यों नहीं सोचते कि तीस रुपये की बँधी आमदनी तो थी।" "मगर सुनो तो सही..." मदन कुछ कहने वाला था, जैसे एक छोटा सा भाषण करने वाला हो। मनोरमा जैसे जल्दी में हो गई। लालटेन के उठाने से कोट की काली परछाईँ हिल काँप गई। मनोरमा ने लालटेन उठा ली और कहा, "दो चार मिनट के लिये ढिबरी क्यों जलाऊँ चाँदनी रात है तुम चबूतरे पर जाकर हाथ पाँव धो डालो। मैं खाना निकाल आती हूँ," और कमरे से बाहर होते होते वह बुदबुदाई- इनके किये कुछ होने का नहीं। तीस रुपये का जो एक सहारा था वह भी छोड़ आए। मदन ने मनोरमा के स्वगत से निसृत ये शब्द सुन लिये थे मगर वह खड़ाऊँ पहनकर चुपचाप चबूतरे की ओर बढ़ गया। चाँदनी फैल रही थी और चबूतरे के पास बाल्टी में रखा हुआ पानी अपने भीतर चाँद के उतर आने के कारण बड़ा ही सुहाना लग रहा था। ऊपर से उसमें लोटा डालकर मदन ने सप्तमी के धवल चंद्र बिंब को चंचल कर दिया। मनोरमा ने जब पति के आगे भेजन का थाल रखा तो उसकी इच्छा यह जानने की हुई कि यह तीस रुपये वाला ट्यूशन कैसे हाथ से निकल गया और वह, जो उसी के भरोसे फेरी करके हैंडलूम के कपड़े बेचने वाले से पाँच सात रोज में चुकता करने का वादा कर चुकी है, उसका क्या होगा, लेकिन तभी उसकी आँखों के आगे अपनी स्वर्गीया दादी का चित्र नाच गया, जो अक्सर कहा करती थीं- आदमी के आगे भोजन का थाल रखकर की चिंता फ़िक्र या घरेलू कलह की बात नहीं करनी चाहिये। कहानी का आगे का अंश जानने के लिए ऑडियो की मदद लें...

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