गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

कहानी - डोली चढ़ना जानूँ हूँ - अर्चना सिंह 'जया'

कहानी का कुछ अंश... संध्या की बेला घर आँगन में चहल-पहल, चारों ओर रौनक ,बिटिया की शादी जो थी और मैं एक दीवार पकड़कर बैठ , आसमान देखने लगी। न जाने मन मुझे किस ओर ले जा रहा था ?दिसम्बर का महीना था, शायद बेटी की बिदाई की चिंता थी । नहीें ,वो भी नहीं। फिर आज अकस्मात्् ही माँ की याद कैसे आ गई ? माँ शब्द मुझे कभी सुकून नहीं देता था, तब भी वर्षों पीछे मेरा मन आज मुझे ले उड़ चला। वैसे देखा जाए तो माँ ने मुझे जन्म तो जरूर दिया था पर शायद कुछ बात तो थी जो मुझे रह रहकर बेचैन कर देती थी। क्यों माँ के प्यार को मैंने कभी महसूस नहीं किया ? न जाने कई प्रश्न समय-असमय मुझे परेशान करते थे। माँ के स्नेह के स्पर्श की चाह आज भी क्यों मन में बनी हुई थी ? तभी एक प्रश्न स्वयं से किया ,क्या मैंनेे अपने माँ होने का फर्ज निभाया है ? इस बात का जवाब मुझे कौन देगा ? तभी सहसा ही मैं चैंक गई, मेरी बिटिया ने मुझ पर शाॅल डालते हुए कहा,‘‘ माँ,आप तो अपना ध्यान बिलकुल ही नहीं रखती हो। कल मेरे जाने के बाद क्या होगा? सबका ध्यान तो रखती हो और स्वयं के लिए लापरवाह हो जाती हो।’’ इतना कहते ही झट से गले लग कर रो पड़ी। माँ और बेटी का अर्थ मैं तब कुछ-कुछ समझ रही थी लेकिन इतनी उम्र निकल जाने के पश्चात्् ये कैसी विडम्बना थी? मुझे मेरी माँ के स्नेह के स्पर्श की चाह आज भी क्यों मेरे मन में बनी हुई थी ? आज की रात गुजर जाएगी तो कल की सुबह आएगी जो कोलाहल से भरा संवेदनपूर्ण होगी। मुझे मेरी बेटी की विदाई करनी है ,न जाने कितने सपने मैंने अपनी बेटी के लिए देखे थे। सारा घर रिश्तेदारों से भरा था फिर भी मैं खुद को उस एक पल के लिए अकेली महसूस कर रही थी। ऐसा क्यों था? पति भी कार्यभार संभालने में व्यस्त थे, अतिथियों की आवाभगत करने में लगे हुए थे। आगे क्या हुआ, जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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