शनिवार, 30 अप्रैल 2016

कविताएँ - भारती परिमल

कविता का कुछ अंश... इस बार इस बार जब आएगी वो अपनी भीगी आँखें लेकर झरती बूँदों की गरमाहट अपनी हथेली पर नहीं महसूस करूँगी मैं चुनौती दूँगी उसे गरमाहट को लावा बना देने की। इस बार जब आएगी वो बहता लहू और गहरी चोट लेकर नहीं लगाऊँगी कोई मरहम नहीं निकलेगी मुँह से आह वो खुद ही भरेगी अपने गहरे ज़ख्म इस बार जब आएगी वो लोगों के फिकरे-ताने लेकर नहीं दूँगी किसी का जवाब सवाल फेंकती निगाहें भी नहीं उठाऊँगी उसकी ओर मौन रहकर ही तैयार करूँगी उसे लोगों को लाजवाब करने के लिए इस बार तय कर लिया है नहीं बनाऊँगी उसे कमज़ोर सामना करना है उसे हर दर-ओ-दीवार का हर अनाचार-अत्याचार का इस समाज और संसार का अंतर समझ आना ही चाहिए पान की पीक और लहू का खिलखिलाहट और अट्टहास का सुमधुर बोली और विभत्स वाणी का स्नेहासिक्त और वासनामयी दृष्टि का इस अंतर को समझाने के लिए हर सच्चाई अनुभव करवाने के लिए मैं नहीं रहूँगी उम्र के हर मोड़ पर साथ उसे थामना होगा अपना ही हाथ क्योंकि - अब बिटिया बड़ी हो रही है... अन्य कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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