गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

कविता - हम दीवानों की क्या हस्ती... भगवतीचरण वर्मा

हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले, मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले । आए बनकर उल्लास अभी, आँसू बनकर बह चले अभी, सब कहते ही रह गए, अरे, अरे तुम कैसे आए, कहाँ चले ? किस ओर चले? मत ये पूछो, बस चलना है, इसलिए चले, जग से उसका कुछ लिए चले, जग को अपना कुछ दिए चले, दो बात कहीं, दो बात सुनी; कुछ हँसे और फिर कुछ रोए । छक कर सुख दुःख के घूँटों को, हम एक भाव से पिए चले । हम भिखमंगों की दुनिया में, स्वछन्द लुटाकर प्यार चले हम एक निशानी उर पर, ले असफलता का भार चले । हम मान रहित, अपमान रहित, जी भर कर खुलकर खेल चुके, हम हँसते हँसते आज यहाँ, प्राणों की बाज़ी हार चले । अब अपना और पराया क्या ? आबाद रहें रुकने वाले ! हम स्वयं बंधे थे और स्वयं, हम अपने बन्धन तोड़ चले । इस कविता का आनंद ऑडियो के माध्यम से लीजिए...

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