शनिवार, 9 अप्रैल 2016

उसका बिस्तर - मनोहर श्याम जोशी

कहानी का कुछ अंश... बहुत मुश्किल से एक अदद मामूली नौकरी पा लेने के बाद उसने महसूस किया कि अभी और भी कई चीजें हैं जिन्हें पा सकना आसान नहीं। सबसे पहले महानगरी दिल्ली में रहने के लिए जगह। यह मुश्किल एक परिचित के परिचित ने हल कर दी - नई दिल्ली के लगभग टूटने को तैयार एक क्वार्टर की बदनुमा, बदरंग और तकरीबन हिल चुकी जाफरी किराए पर दिलाकर। जाफरी में बस जाने के बाद घर-गिरस्ती के लिए आवश्यक वस्तुओं की एक लंबी फेहरिस्त उसके सामने मँडराने लगी। अच्छे कपड़े, बर्तन-भांडे, साइकिल, टेबल फैन, मेज-कुर्सी, अच्छी-सी बीवी, चारपाई और बिस्तर। इस फेहरिस्त में से और तमाम चीजों को 'आगे कभी अच्छे दिनों के लिए' स्थगित किया जा सकता था, लेकिन चारपाई और बिस्तर का मसला टालना मुश्किल था। गर्मियों के दिन। लोग-बाग क्वार्टरों के बाहर के उजड़े लॉन में सोते थे। वहाँ बिना चारपाई के कैसे सोए? और बिना पंखे के इस मौसम में जाफरी में कैसे रात काटे? बजट चारपाई की अनुमति नहीं दे रहा था लेकिन चारपाई ही न होना शरीफ मध्यवर्गीय लोगों के साथ रहना असंभव बना रहा था। लिहाजा सिगरेट की जगह बीड़ी अपनाने का संकल्प करके उसने सबसे सस्ती मूँज की एक चारपाई ले ली। जब इस नई चारपाई पर उसने अपना पुराना बिस्तर बिछाया तब उसे बहुत संकोच हुआ। उसने महसूस किया कि चारपाई पर उसका बिस्तर नहीं, उसकी दरिद्रता की नुमाइश लगी है। एक मैली-सी रजाई जिसमें रुई अब इकसार नहीं रह गई थी। एक उससे भी मैला गद्दा जो कई जगह से फटा था। एक मुड़ा-तुड़ा बिना खोल का चीकट तकिया। न दरी, न चादर। और इस बिस्तर में वह खास महक थी जो पहाड़ की सीलन में रह चुकने की सूचना देती है। बिस्तर का रंग-रूप, बिस्तर की गंध अनुभवी दर्शक के मन में खटमल-पिस्सू की आशंका को जन्म देती थी। अगले दिन सुबह क्वार्टर-मालिक ने बिस्तर को धूप दिखाने की नेक सलाह देकर इस आशंका को परोक्ष रूप से प्रकट कर दिया। उनकी बात सुनकर वह बहुत झेंपा। उसे लगा कि अपनी जात और अपने जिले के क्वार्टर-मालिक पर न सिर्फ उसके बिस्तर के खटमल बल्कि घर के तमाम भेद जाहिर हो गए हैं - उसके बाप का शराब और जुए के कर्ज में डूबकर मरना, उसकी माँ के हिस्टीरिया के दौरे, उसके भगोड़े छोटे भाई का एक बार चोरी में पकड़ा जाना, उसकी बहन की बेबुनियाद मगर बहुत फैली बदनामी! उसने जितना ही सोचा उतना ही यह महसूस किया कि अपने कभी खुशहाल कुनबे की मौजूदा कंगाली का यह विज्ञापन, यह बिस्तर उसे फेंक ही देना होगा। लेकिन फेंक दे तो सोए किस पर? और नया बनाए तो कैसे? अभी तो चारपाई लेना तक मुश्किल हो गया था। पहला वेतन मिलने पर भी स्थिति लगभग यही रहेगी। नौकरी की खोज के दौरान लोगों का जो उधार हुआ है वह चुकाना होगा। घर में पिताजी के मरने, बदनामी के डर के कारण बहन के सेविका पद से मुक्त हो जाने और छोटे भाई के भाग जाने के बाद बेसहारा हुए छह जनों के परिवार की परवरिश के लिए कुछ भेजना होगा और अपना सारा महीने का खर्च निकालना होगा। ऐसे देखा जाए तो वह महीनों तक बिस्तर लायक पैसे नहीं जोड़ पायेगा। वह बिस्तर की समस्या से आक्रांत रहने लगा और और इस तरह आक्रांत रहने पर उसे खुद अपने से झुँझलाहट होने लगी। उसे अपनी बुनियादी मूर्खता का आभास सालने लगा। अगर चतुर होता तो क्या इतना मामूली-सा मसला हल नहीं कर पाता। अरे, लोग-बाग कैसे-कैसे मसले हल कर लेते हैं। लोटा लेकर घर से निकलते हैं और लखपति होकर लौटते हैं। वह एक बिस्तर तक का जुगाड़ नहीं कर पा रहा है। इस बारे में सलाह ले तो किससे? जो सुनेगा वही हँसेगा! एक बार उसके मन में थोड़ी चतुराई आई। सोचा, क्यों न केवल एक चादर और दरी ले लूँ और तकिए का खोल बनवा लूँ? इस चतुराई पर वह बहुत खुश हुआ हालाँकि चादर, दरी और खोल के लिए भी अभी उसके पास पैसे नहीं थे और न पहला वेतन मिलने पर हो सकते थे। मजबूरी ने सारी खुशी खत्म कर दी। तब उसे चतुराई में खामियाँ नजर आने लगीं। क्या केवल चादर और दरी को बिस्तर कहा जा सकता है? क्या चादर और दरी हो जाने पर वह पुराना गद्दा-रजाई फेंक सकेगा? अगर नहीं फेंकेगा तो क्या वे उसकी दरिद्रता की नुमाइश नहीं करते रहेंगे? अगर फेंक देगा तो मौसम बदलने पर क्या करेगा? तब की तब देखी जाएगी, कहने से काम नहीं चल सकता। अगर तब हालत बदतर हुई तो? इस अधूरी कहानी का अानंद सुनकर लीजिए...

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