गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

चूहा और मैं - हरिशंकर परसाई

लेख का कुछ अंश... चाहता तो लेख का शीर्षक ''मैं और चूहा'' रख सकता था। पर मेरा अहंकार इस चूहे ने नीचे कर दिया। जो मैं नहीं कर सकता, वह मेरे घर का यह चूहा कर लेता है। जो इस देश का सामान्‍य आदमी नहीं कर पाता, वह इस चूहे ने मेरे साथ करके बता दिया। इस घर में एक मोटा चूहा है। जब छोटे भाई की पत्‍नी थी, तब घर में खाना बनता था। इस बीच पारिवारिक दुर्घटनाओं-बहनोई की मृत्‍यु आदि के कारण हम लोग बाहर रहे। इस चूहे ने अपना अधिकार मान लिया था कि मुझे खाने को इसी घर में मिलेगा। ऐसा अधिकार आदमी भी अभी तक नहीं मान पाया। चूहे ने मान लिया है। लगभग पैंतालिस दिन घर बन्‍द रहा। मैं तब अकेला लौटा। घर खोला, तो देखा कि चूहे ने काफी क्रॉकरी फर्श पर गिराकर फोड़ डाली है। वह खाने की तलाश में भड़भड़ाता होगा। क्रॉकरी और डिब्‍बों में खाना तलाशता होगा। उसे खाना नहीं मिलता होगा, तो वह पड़ोस में कहीं कुछ खा लेता होगा और जीवित रहता होगा। पर घर उसने नहीं छोड़ा। उसने इसी घर को अपना घर मान लिया था। जब मैं घर में घुसा, बिजली जलाई तो मैंने देखा कि वह खुशी से चहकता हुआ यहाँ से वहाँ दौड़ रहा है। वह शायद समझ गया कि अब इस घर में खाना बनेगा, डिब्‍बे खुलेंगे और उसकी खुराक उसे मिलेगी। दिन-भर वह आनन्‍द से सारे घर में घूमता रहा। मैं देख रहा था। उसके उल्‍लास से मुझे अच्‍छा ही लगा। पर घर में खाना बनना शुरू नहीं हुआ। मैं अकेला था। बहन के यहाँ जो पास में ही रहती है, दोपहर को भोजन कर लेता। रात को देर से खाता हूँ, तो बहन डब्‍बा भेज देती। खाकर मैं डब्‍बा बन्‍द करके रख देता। चूहाराम निराश हो रहे थे। सोचते होंगे यह कैसा घर है। आदमी आ गया है। रोशनी भी है। पर खाना नहीं बनता। खाना बनता तो कुछ बिखरे दाने या रोटी के टुकड़े उसे मिल जाते। मुझे एक नया अनुभव हुआ। रात को चूहा बार-बार आता और सिर की तरफ मच्‍छरदानी पर चढ़कर कुलबुलाता। रात में कई बार मेरी नींद टूटती मैं उसे भगाता। पर थोड़ी देर बाद वह फिर आ जाता और सिर के पास हलचल करने लगता। आगे की क‍हानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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