मन की किताब
हमारे आसपास बिखरी हैं किताबें। नई किताबें.. पुरानी किताबें..।
अच्छी किताबें.. बुरी किताबें..। बड़ों की किताबें.. बच्चों की किताबें..। किताबों
का साम्राज्य है.. किताबों का शासन है..। किताबें ही प्रजा है .. किताबें ही राजा
है..। किताबों की सड़क है और किताबों की ही इमारत है..। ओ.. कितना सुखद स्वप्र है
यह या फिर एक कोरी कल्पना..। आज के नेट युग में किताबों का ऐसा संसार कहाँ? किताबें तो अब
किताबों की बातें बन चुकी हैं। हमारे पास इतना समय ही कहाँ कि इस नेट की दुनिया से
बाहर आएँ और किताबों के पन्ने पलटें। हम तो रच-बस गए हैं नेट के मायाजाल में। फँस
गए हैं जानकारियों के ऐसे चक्रव्यूह में जहाँ से बाहर निकलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन ही है।
आओ किताबों की इस खत्म होती दुनिया में मन की किताब खोलें और उस
किताब में एक नाम जोड़ें विश्वास का.. आत्म अनुशासन का .. आत्म समान का..
स्वाभिमान का..। आओ शुरुआत करें और प्रयास करें मन की एक नई किताब लिखने का। आज की
पीढ़ी का मानो किताबों से नाता ही टूट गया। हर बात के लिए उनके पास गूगल बाबा हैं
ना! एक यही बाबा हैं, जो हमें हर जगह हमेशा ले जाने को तैयार हैं। इसके बिना तो आज किसी भी
ज्ञान की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती। युवाओं के हाथों में किताब तो हैं,
पर उसे वे ऐसे देखते हैं मानो कोई अजूबा है। छोटे-छोटे नोट्स से ही
उनका काम चलता है। अच्छा भी है शायद, अब किसी पोथी से उनका
वास्ता ही नहीं पड़ता। पोथी देखकर वे बिदकने लगेंगे। हमारे पास ज्ञान के लिए गूगल
बाबा हैं, यह सच है। पर इनके दिए ज्ञान को हम कब तक अपने
दिमाग में रखते हैं? गूगल बाबा के ज्ञान से केवल परीक्षा ही
दी जा सकती है। पर हमारे पूर्वजों ने जो ज्ञान दिया है, वह
तो जीवन की परीक्षा में पास होने के लिए दिया है। जीवन की चुनौतियों का सामना करने
के लिए दिया है। आज उनके दिए ज्ञान का उपयोग कम से कम हो पा रहा है। शोध बताते हैं
कि गूगल बाबा की शरण में रहने वालों की स्मृति कमजोर होने लगी है। आखिर कहाँ
जाएँगे कमजोर याददाश्त लेकर हम सभी? सब कुछ है गूगल बाबा के
पास। पर शायद नहीं है, तो माँ का ममत्व, पिता का दुलार, बहन का अपनापा या फिर प्रेमी या
प्रेयसी का प्यार। हम जब मुसीबत में होते हैं, तब चाहकर भी
गूगल बाबा हमारे सर पर हाथ नहीं फेर सकते। हमारे आँसू नहीं पोंछ सकते। हमें
सांत्वना नहीं दे सकते। बाबा हमें ज्ञानी तो बना सकते हैं, पर
एक प्यारा सा बेटा, समझदार भाई, प्यारे
से पापा, अच्छे पति नहीं बना सकते। इसलिए बाबा को घर के आँगन
तक तो ले आओ, पर घर के अंदर घुसने न दो। अगर ये घर पर आ गए,
तो समझो, हम सब अपनों से दूर हो जाएँगे। हम
गैरों से घिर जाएँगे। यहाँ सब कुछ तो होगा, पर कोई अपना न
होगा। कैसे रहोगे फिर उस घर में? किताबों से दोस्ती करो,
ये हमारी सबसे अच्छी दोस्त हैं। सुख-दु:ख में यही काम आएँगी। जब ये
हमसे बातें करेंगी, तो हमें ऐसा लगेगा, जैसे माँ हमें दुलार रहीं हैं। पिता प्यार से सर पर हाथ फेर रहे हैं। बहना
और दीदी हमसे चुहल कर रहीं हैं। अपनापे और प्यार का समुद्र लहराने लगेगा। तो हो
जाओ तैयार पढऩे के लिए एक किताब प्यारी सी।
भारती परिमल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें