शुक्रवार, 13 मई 2016

हर्ष शर्मा की कविता - व्‍यग्रता

कवि तुम्हारी कल्पना में आऊंगी मैं, तुमको बहुत लुभाऊंगी मैं, तड़पोगे छटपटाओगे तुम, मुझे व्यक्त न कर पाओगे तुम, शब्द- दर- शब्द तलाशोगे मुझे, किन्तु मुझे न पाओगे तुम। जीवन के हर मोड़ पर मौजूद रहूंगी मैं, तुम्हारे वजूद में,तुम्हारे ख्यालों में, तुम्हारी आराधना में ,प्रार्थना में, तुम्हारी लालसा में, आकांक्षा में, तुम्हारे गम में, खुशी में, पर साकार मुझे न कर पाओगे तुम। कवि,मुझे ढूंढना गलियों में,चौबारों में, खेतों में,चौपालों में, नदियों में, पहाड़ों में, यहाँ भी मुझे व्यक्त करने का प्रयास करना, वरना, मैं सरिता हूँ, कवि, कल-कल-कल बह जाऊंगी मैं। बहुतेरे रोए हैं मेरे संग, मरण में,खुशी में ,विदाई में, लाइलाज बीमारी में, बेबसी में गरीब की लाचारी में, खोजना तुम मुझे वहां, अन्यथा, अश्रुधारा बन बह जाऊंगी मैं। हास में, परिहास में भी हूँ मैं, हंसी-हंसी में पकड़ सकते हो मुझे आगाह करती हूँ उतार लेना मुझे, कागज पर, चुके तो हंसी-हंसी में उड़ जाऊंगी मैं। मिलन के अहसास में, बिछोह की गहराई में, गोता लगा सकते हो तो आओ वरना, मदिरा के नशे में मदमस्त हो जाऊंगी मैं। कवि, हो सकता है, तुम्हारे प्रयासों से पिघल जाऊं मैं, गीत गज़ल रुबाइयां बन कागज पर उतर जाऊं मैं, अपनी सफलता कतई न समझना इसे, रेत की मानिंद तुम्हारे हाथों से फिसल जाऊंगी मैं । मैं समय की मानिंद हूँ क्षण- क्षण बदल जाती हूँ मेरा तुम्हारे ख्यालों में आना- जाना शायद व्यग्र करता होगा तुम्हें सच कहती हूँ,कवि तुम्हारी इसी व्यग्रता का परिणाम हूँ मैं । इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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