शुक्रवार, 27 मई 2016

कहानी - वो तस्वीर - उषा बंसल

कहानी का अंश... निशा आज कुछ फुर्सत में थी। उसने सोचा कि आज पुराना सामान छाँट कर कूड़ा कुछ कम कर दूँ। इस विचार से उसने अल्मारी खोली ही थी कि उसकी निगाह एलबम पर पड़ गई। उसका हाथ अनायास ही एलबम पर पहुँच गया। एलबम निकालते हुए मन ने टोका कि पुरानी यादों में उलझ जाओगी तो कूड़ा कैसे कम कर पाओगी? पर एलबम के आकर्षण चतुरा बुद्धि पर भारी पड़ गया। बस दस मिनट में फोटो देखकर सामान छाँटने में लग जाऊँगी...सिर्फ दस मिनट। क्या और कितना हर्ज हो जायेगा इन दस मिनट में। एलबम उठाकर वो आराम कुर्सी पर बैठ गई। एलबम के पन्ने पलटने के साथ यादों की परतें भी मस्तिष्क में करवटें बदलने लगीं। निशा की नज़र एक 4-5 वर्ष की तस्वीर पर अटक गई। यूँ तो फोटो साधारण थी बच्ची भी कोई अप्सरा न थी। वो न कोई परी या डाईन थी। वो तस्वीर थी एक बच्ची की, जो बिना मेज़पोश की मेज़ पर बैठी थी। उसने मामूली छींटदार फ्राक पहिन रखा था। उसके पैर नंगे थे। आँख में लगा काजल फूले हुए गालों तक फैला था। आँखों की कोर से लुढ़कने को बेताब दो नमकीन पानी की बूँदे अटकी थीं। श्वेत–श्याम वह तस्वीर निशा के जेहन पर छा गई। उसकी नज़र मानो तस्वीर से चिपक कर रह गई। वो तस्वीर उसकी अपनी थी। जो मात्र तस्वीर ही नहीं वरन् उसका गुज़रा बचपन व उसका अपना बीता कल था। इतनी छोटी थी वो तब पर भी उससे जुड़ी सभी घटनायें बड़ी बारीकी से उसकी यादों में बसी थीं? क्या इतनी कम उम्र की बातें भी याद रह सकती हैं? ये ऐसी बात है जिसकी कभी घर में किसी प्रसंगवश चर्चा भी नहीं हुई थी। उस समय वह साढ़े चार साल की रही होगी। उसके पिताजी आफिस में काम करते थे। निशा उनकी चौथी कन्या थी। पिताजी को पूरी उम्मीद थी कि उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। लेकिन हाय रे भाग्य, फिर लड़की हो गई। उनकी सभी आशायें निराशा में बदल गईं। जीवन में होने वाला सुप्रभात रात्री की कालिमा से आवृत हो गया। उन्होंने अपनी आशा के निराशा में बदल जाने के अनुरूप उस बच्ची का नाम निशा रख दिया। पिताजी को निशा से नफ़रत सी थी। गलती कोई करे डाँट निशा को पड़ जाती थी। निशा पिताजी से इतना डरने लगी कि उनके ड्योढ़ी में पैर रखते ही वह घर के किसी कोने में छिप जाती थी। निशा के जन्म के ढाई साल बाद उनके घर कुलदीपक पुत्र का जन्म हुआ। निशा की माँ इसे निशा का भाग्य बताकर फूली न समाती थीं। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...

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