शुक्रवार, 27 मई 2016

कविता - मौन - गौरव भारती

कविता का अंश... मैं और यह शाम, निकल पड़ते हैं अक्सर थामे हाथ, सूर्य जब छिप जाता है गगन में कहीं दूर, पंछियाँ जब घर लौटने को हो जाती हैं मजबूर। ज्यों ज्यों शाम गहराने लगती है, कुछ है जो राग अपना गाने लगती है, मैं ढूँढने लगता हूँ ज़िंदगी यहाँ-वहाँ, वह लावारिस, ललचाई निगाहों से - मुझे निहारने लगती है। समझ नहीं पाता निहितार्थ उसका मैं, आँखें चुरा कर मुक्ति पाता हूँ, मुड़ कर देखता हूँ जो पीछे, आत्मग्लानि से ख़ुद को भरा पाता हूँ। हर गली मोहल्ले चौक-चौराहे पर, ज़िंदगी को फटेहाल सिकुरें गठरी सा देखता हूँ, कुछ कहती है ये निगाहें जो घेरे है मुझे, सुर्ख़ होठों पर है प्रश्न जिसे मैं निहार पाता हूँ। विचारों की घुर्नियाँ छेड़ने लगतीं हैं मुझे, अजीब सा कोलाहल कानों को थपथपाने लगता है, वे पूछते हैं अपनी सुबह के बारे में, मैं निरुत्तर ख़ुद को बहुत गिरा हुआ पाता हूँ। नहीं है मेरे पास वादों की लड़ियाँ, सपने दिखा तोड़ने वाला होता हूँ मैं कौन? उसके सवालों का है नहीं कोई मुकम्मल जवाब, बेबस, लाचार इसलिए रह जाता हूँ मैं, मौन। इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

1 टिप्पणी:

  1. मैं कौन? अपने आप को ढूंढना सरल नहीं है, इस नश्वर संसार में

    बहुत सुन्दर रचना

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