बुधवार, 25 मई 2016

नदी - सात कविताएँ - गोवर्धन यादव

कविता का अंश... (1) आकाश में- उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देख बहुत खुश है नदी, कि उसकी बुढ़ाती देह फ़िर जवान हो उठेगी. चट्टानों के बीच गठरी सी सिमटी फ़िर कल-कल के गीत गाती पहले की तरह बह निकलेगी. (२) अकेली नहीं रहना चाहती नदी खुश है वह यह सोचकर, कि कजरी गाती युवतियां सिर पर जवारों के डलिया लिए उसके तट पर आएंगी पूजा-अर्चना के साथ, वे मंगलदीप बारेगीं उतारेगीं आरती मचेगी खूब भीड़-भाड़ यही तो वह चाहती भी थी. (३) पुरुष धोता है अपनी मलिनता स्त्रियां धोती है गंदी कथड़ियां बच्चे उछल-कूद करते हैं - छपाछप पानी उछालते गंदा होती है उसकी निर्मल देह फ़िर भी यह सोचकर खुश हो लेती है नदी,कि चांद अपनी चांदनी के साथ नहाता है रात भर उसमें उतरकर यही शीतलता पाकर उसका कलेजा ठंडा हो जाता है. अन्य कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए... यदि आपको कविता पसंद आती है, तो आप सीधे कवि से दूरभाष के माध्यम से संपर्क कर उन्हें बधाई प्रेषित कर सकते हैं। संपर्क - 07162-246651,9424356400

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels