गुरुवार, 5 मई 2016

कविताएँँ - सर्वेश्‍वरदयाल सक्‍सेना

मुक्ति की आकांक्षा - कविता का अंश... चिडि़या को लाख समझाओ कि पिंजड़े के बाहर धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है, वहाँ हवा में उन्हेंर अपने जिस्मब की गंध तक नहीं मिलेगी। यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है, पर पानी के लिए भटकना है, यहाँ कटोरी में भरा जल गटकना है। बाहर दाने का टोटा है, यहाँ चुग्गाह मोटा है। बाहर बहेलिए का डर है, यहाँ निर्द्वंद्व कंठ-स्व र है। फिर भी चिडि़या मुक्ति का गाना गाएगी, मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी, पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी, हरसूँ ज़ोर लगाएगी और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी। ऐसी ही अन्‍य मर्मस्‍पर्शी कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels