बुधवार, 11 मई 2016

कहानी - तमाशा - सआदत हसन मंटो

कहानी का अंश... दो तीन रोज से तैयारे (हवाई जहाज) स्याह उकाबों की तरह पर फैलाए खामोश फिजा में मंडला रहे थे। जैसे वह किसी शिकार की जुस्तजू में हों। सुर्ख आंधियां वक्तन फवक्तन किसी आने वाले खूनी हादसे का पैगाम ला रही थी। सुनसान बाजारों में मुसल्लह पुलिस की गश्त एक अजीब हैबतनाक समां पेश कर रही थी। वह बाजार जो सुबह से कुछ अर्से पहले लोगों के हुजूम से पुर हुआ करते थे। अब किसी नामालूम खौफ की वजह से सूने पड़े थे—शहर की फिजा पर एक पुर इसरार खामोशी मुसल्लत थी। भयानक खौफ राज कर रहा था। खालिद घर की खामोश व पुरसुकून फिजा से सहमा हुआ अपने वालिद के करीब बैठा बातें कर रहा था। ”अब्बा आप मुझे स्कूल क्यों नहीं जाने देते?” ”बेटा आज स्कूल में छुट्टी है।” ”मास्टर साहब ने तो हमें बताया ही नहीं। वो तो कल कह रहे थे कि जो लड़का आज स्कूल का काम खत्म करके अपनी कॉपी न दिखाएगा। आज सख्त सजा दी जाएगी।” ”वो इत्तिला देनी भूल गए होंगे।” ”आपके दफ्तर में भी छुट्टी होगी?” ”हां हमारा दफ्तर भी आज बंद है।” ”चलो अच्छा हुआ—आज मैं आपसे कोई अच्छी सी कहानी सुनूंगा।” यह बातें हो रही थीं कि तीन चार तैयारे चीखते हुए उनके सर पर से गुजर गए। खालिद उनको देखकर बहुत खौफजदा हुआ। वो तीन-चार रोज से उन तैयारों की परवाज को बगौर देख रहा था। मगर किसी नतीजे पर न पहुंच सका था। वो हैरान था कि यह जहाज सारा दिन धूप में क्यों चक्कर लगाते रहते हैं। वो उनकी रोजाना नक्लो हरकत से तंग आकर बोला— ”अब्बा मुझे इन जहाजों से सख्तखौफ मालूम हो रहा है। आप उनके चलाने वालों से कह दें कि वो हमारे घर पर से न गुजरा करें।” ”खौफ!—कहीं पागल तो नहीं हो गए खालिद।” आगे की कहानी ऑडियो की मदद से सुनिए...

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