बुधवार, 4 मई 2016

चेतक की वीरता - श्‍यामनारायण पाण्‍डेय

कविता का अंश.... बकरों से बाघ लड़े¸ भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से। घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸ पैदल बिछ गये बिछौनों से।।1।। हाथी से हाथी जूझ पड़े¸ भिड़ गये सवार सवारों से। घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸ तलवार लड़ी तलवारों से।।2।। हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸ कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे। लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸ भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे।।3।। क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸ तलवार हाथ की तड़प–तड़प। हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸ लेती थी बैरी वीर हड़प।।4।। क्षण पेट फट गया घोड़े का¸ हो गया पतन कर कोड़े का। भू पर सातंक सवार गिरा¸ क्षण पता न था हय–जोड़े का।।5।। चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸ लेकर अंकुश पिलवान गिरा। झटका लग गया¸ फटी झालर¸ हौदा गिर गया¸ निशान गिरा।।6।। कोई नत–मुख बेजान गिरा¸ करवट कोई उत्तान गिरा। रण–बीच अमित भीषणता से¸ लड़ते–लड़ते बलवान गिरा।।7।। होती थी भीषण मार–काट¸ अतिशय रण से छाया था भय। था हार–जीत का पता नहीं¸ क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।।8 कोई व्याकुल भर आह रहा¸ कोई था विकल कराह रहा। लोहू से लथपथ लोथों पर¸ कोई चिल्ला अल्लाह रहा।।9।। धड़ कहीं पड़ा¸ सिर कहीं पड़ा¸ कुछ भी उनकी पहचान नहीं। शोणित का ऐसा वेग बढ़ा¸ मुरदे बह गये निशान नहीं।।10।। मेवाड़–केसरी देख रहा¸ केवल रण का न तमाशा था। वह दौड़–दौड़ करता था रण¸ वह मान–रक्त का प्यासा था।।11।। चढ़कर चेतक पर घूम–घूम करता मेना–रखवाली था। ले महा मृत्यु को साथ–साथ¸ मानो प्रत्यक्ष कपाली था।।12।। रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर चेतक बन गया निराला था। राणा प्रताप के घोड़े से¸ पड़ गया हवा को पाला था।।13।। गिरता न कभी चेतक–तन पर¸ राणा प्रताप का कोड़ा था। वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸ या आसमान पर घोड़ा था।।14।। जो तनिक हवा से बाग हिली¸ लेकर सवार उड़ जाता था। राणा की पुतली फिरी नहीं¸ तब तक चेतक मुड़ जाता था।।15।। इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से सुनकर लीजिए...

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