गुरुवार, 26 मई 2016

क्षितिज के उस पार - देवी नागरानी

कहानी का अंश... हाँ वो शिला ही थी!! कैसे भूल कर सकती थी मैं पहचान ने में उसे, जिसे बरसों देखा, साथ गुजारा, पल पल उसके बारे में सोचा. शिला थी ही ऐसी, जैसे किसी शिल्पकार की तराशी हुई एक सजीव आत्मा जो तन को ओढ़कर इस सँसार की सैर को निकली हो. जिस राह से वो गुजरती, गुजरने वाले थम जाते थे, जैसे जम से जाते थे. उनकी आँखे पत्थरा जाती, जैसे किसी नूर को सामने पाया हो. हाँ वही हूर शिला मेरी प्रिय सहेली आज मेरे सामने से गुजर रही है, खुद से होकर बेखबर. बारह वर्ष कोई इतना लंबा अरसा तो नहीं होता, जहाँ इन्सान इस कदर बदल जाये, न फ़कत रँग रूप में, पर जिसके पूरे अस्तित्व की काया पलट हो जाए. वो कालेज के जमाने भी खूब हुआ करते थे, जब मैं और शिला साथ साथ रहा करते थे, एक कमरे में, एक ही क्लास में और लगभग पूरा वक्त साथ खाना, साथ पढ़ना, साथ समय बिताना. क्या ओढ़ना, क्या बिछाना ऐसी हर सोच से परे, आजाद पँछियों की तरह चहकते हुए, हर पल का लुत्फ लेते हुए, हर साल कालेज में टाप करते हुए अब हम दोनों फाइनल साल में पहुँचीं. चार साल का अरसा कोई कम तो नहीं होता, किसी को जानने के लिये, पहचानने के लिये. "अरे शिला!" मैंने उसके करीब जाते ही अपनेपन से उसे पुकारा. अजनबी सी आँखें बिना भाव मेरी ओर उठी, उठकर फिर झुकी और वह कदम आगे बढ़ाकर चल पड़ी, ऐसे जैसे मैं कोई अजनबी थी. "शिला, मैं तुम्हारी सहेली सवी, कैसी हो?" जैसे सुना ही न हो, या चाहकर भी सुनना न चाहती हो, कुछ ऐसा अहसास मन में उठा. ऐसा क्या हो सकता है जो इस बदलाव का कारण बने? इठलाती, बलखाती, हर कदम पर थिरकती हुई शिला, जैसे किसी शिल्पकार की तराशी कोई छवि, दिन भर गुनगुनाती अपने आस पास एक खुशबू फैलाती, आज इतनी बेरँग, रूखी बिना अहसास क्यों? मेरी उत्सुकता बढ़ी, मैंने आगे बढ़कर उसके साथ कदम मिलाकर चलते हुए धीरे से फिर उसका हाथ थाम लिया. " शिला, मैं तो वही सवी, सविता हूँ, पर तुम शिला होकर भी शिला नहीं हो, यह मैं नहीं मानती. कैसा है समीर?" इस सवाल से उसके चेहरे के रंग में जो बदलाव आया वो देखने जैसा था. चेहरे पर तनाव के बादल गहरे हो गये, आँखों में उदासी के साए ज्यादा घने और तन सिमटकर छुई मुई सा, जैसे वह सिमट कर अपना अस्तित्व छुपा लेना चाहती हो. मैंने उसकी कलाई पकड़ ली. जब उसने छुड़ाने की कोशिश की तो ज्यादा पुख्त़गी से पकड़ी, और हाँ उसने भी फिर छुडाने की कोशिश नहीं की. शायद अपनेपन की गर्मी से पत्थर पिघलने लगा था. उसी प्यार की आँच में पिघलकर ही तो वह समीर के साथ चली गई, दूर बहुत दूर किसी और दुनियाँ में. पीछे छोड़ गई अपनी प्यारी सहेली सविता को, अपने अंतिम वर्ष की पढ़ाई को, अपने आने वाले उज्जल भविष्य को. शायद उस प्यार की पनाह ने उससे वह रौशनी छीन ली थी, जिस कारण उसे सिर्फ समीर, उसकी चित्रकारी, और तूलिका पर निखरे रँग आस पास दिखाई पड़ रहे थे. जाने क्या था वह, कैसे खुमार था, प्यार का जुनून ही रहा होगा, जो उसने अपना भविष्य समीर के नाम लिख दिया. और एक दिन अचानक वह उसके साथ शादी कर अचानक मेरे सामने आ खड़ी हुई. आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...

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