शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

मैथिलीशरण गुप्त - पंचवटी - 10

पंचवटी का अंश... जो कह दिया, उसे कहने में, फिर मुझको संकोच नहीं, अपने भावी जीवन का भी, जी में कोई सोच नहीं। मन में कुछ वचनों में कुछ हो, मुझमें ऐसी बात नहीं; सहज शक्ति मुझमें अमोघ है, दाव, पेंच या घात नहीं॥ मैं अपने ऊपर अपना ही, रखती हूँ, अधिकार सदा, जहाँ चाहती हूँ, करती हूँ, मैं स्वच्छन्द विहार सदा, कोई भय मैं नहीं मानती, समय-विचार करूँगी क्या? डरती हैं बाधाएँ मुझसे, उनसे आप डरूँगी क्या? अर्द्धयामिनी होने पर भी, इच्छा हो आई मन में, एकाकिनी घूमती-फिरती, आ निकली मैं इस वन में। देखा आकर यहाँ तुम्हारे, प्राणानुज ये बैठे हैं, मूर्ति बने इस उपल शिला पर, भाव-सिन्धु में पैठे हैं॥ सत्य मुझे प्रेरित करता है, कि मैं उसे प्रकटित कर दूँ, इन्हें देख मन हुआ कि इनके-आगे मैं उसको धर दूँ। वह मन, जिसे अमर भी कोई, कभी क्षुब्ध कर सका नहीं; कोई मोह, लोभ भी कोई, मुग्ध, लुब्ध कर सका नहीं॥ इस पूरी कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels