रविवार, 24 जुलाई 2016

कविता - याज्ञसेनी - 3 - राजेश्वर वशिष्ठ

कविता का अंश...याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं ! वैभव सिराहने से लगा कर रात भर सोई नहीं हूँ चन्द्रमा की रोशनी में स्मरण करना चाहती हूँ उन पलों को जो छिपे होंगे कहीं मेरा अघोषित भूत बन कर आश्चर्य है, शैशवविहीना, मैं हुई हूँ क्यों ! महल की प्राचीर के नीचे उषा की लालिमा में भूख से व्याकुल रो रही है एक कन्या बहुत छोटी, बहुत नाजुक; माँ स्नेह से व्याकुल लपकती है हृदय से बाँध लेने को अपलक देखती है द्रौपदी इस स्नेहबंधन को मधुर वात्सल्य का रस है ! चहकते पक्षियों से ताल पूरा भर गया है वे पथिक हैं, दूर उड़ कर जा रहे हैं प्रशस्ति में वरुण की कूकते हैं वे ऋचाएँ और बादल-राग में मल्हार किंचित गा रहे हैं मोगरे के फूल-सा महका, खिला मन है हवा भी कसमसाती है, द्रौपदी इस भोर में कुछ गुनगुनाती है ! इस पूरी कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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