सोमवार, 11 जुलाई 2016

कविताएँ - मुनव्वर राना

कविता का अंश... जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ रोज़ उँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है रात भर जागते रहने का सिला है शायद तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा सारी दुनिया दिल-ए-बेताब में आ जाती है ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए कूचा-ए-रेशम-ओ-कमख़्वाब में आ जाती है दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है। ऐसी ही और कुछ दिल को सुकून देनेवाली रचनाओं को ऑडियो के माध्यम से सुनिए...

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