शनिवार, 16 जुलाई 2016

कविता - अकेलेपन की अँगड़ाइयाँ - निसर्ग भट्ट

अकेलपन की अंगड़ाइयाँ... कविता का अंश... पता नहीं कभी कभी क्यों खुद को इतना अकेला पाता हूँ, हजारों की भीड़ में भी पंछियों के सुरों को सुन पाता हूँ । कभी समंदरों से भी गहरी लगती है, तो कभी हिमालय से भी उतुंग, कभी उन लहरों की मस्तियों को समझकर तो देखो, एक बार अकेलेपन की अँगड़ाई ले कर तो देखो । कभी खँजरों से भी नुकीली लगती है, तो कभी पँखुड़ियों से भी कोमल, कभी तो उस चुभन को महसूस कर के देखो, एक बार अकेलेपन की अँगड़ाई ले कर तो देखो । कभी झोपड़ियों से भी ज्यादा अमीर लगती है, तो कभी महलों से भी ज्यादा गरीब, कभी उस दोगली अमीरी का चश्मा उतारकर तो देखो, एक बार अकेलेपन की अँगड़ाई ले कर तो देखो । कभी अमावस्या से भी ज्यादा अंधकारमय, तो कभी पूर्णिमा से भी ज्यादा तेजोमय, कभी सितारों के उस पार देखने की कोशिश तो करो, एक बार अकेलेपन की अंँगड़ाई ले कर तो देखो । आगे की कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए... संपर्क - nisarg1356@gmail.com

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