शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

शिखण्डिनी का प्रतिशोध-1 - राजेश्वर वशिष्ठ

कविता का अंश... शर-शैया पर लेटे हैं देवव्रत भीष्म, हारे हुए जुआरी की तरह शिथिल होकर। दक्षिणायन हो रहे हैं सूर्य ! रुक गया है दसवें दिन का युद्ध, सभी योद्धा भूल कर अपने घाव, पंक्तिबद्ध खड़े हैं पितामह के चारों ओर ! भीष्म मृत्यु का वरण नहीं करेंगे, बूढ़े सूरज की साक्षी में, उन्हें जीवित रहना होगा। जब तक सूर्य नहीं आएगा उत्तरायण में। अभी तो धर्म किसी झुकी पताका पर लटका हुआ, खोज रहा है अपनी नई परिभाषाएँ ! बाणों से बिन्धा शरीर दे रहा है, अथाह दर्द की अनुभूति। क्षत्रिय हो कर भी कराह रहे हैं भीष्म, क्या मृत्यु से पूर्व बदल जाता है मनुष्य का वर्ण और स्वभाव ? वह देखते हैं अर्जुन की ओर, कहते हैं –- लटक रहा है मेरा शीश धनंजय, इसे सहारा दो ! जानते हैं अर्जुन मृत्यु से पूर्व इस अवस्था में, धरती नहीं सह पाएगी उनके शीश का बोझ। फिर से कैसे चलाएँ पितामह पर तीर ? गरजती है पितामह की वाणी, अब सीधी नहीं टिक पा रही मेरी गर्दन, मुझे कष्ट मुक्त करो अर्जुन ! अर्जुन उनके चरणों में प्रणाम कर, शीश को बेध, लगा देते हैं तीरों का तकिया। आशीष दे पुलकित हो जाते हैं देवव्रत, अब वह रात्रि से संवाद करना चाहते हैं ! इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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