शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

शिखण्डिनी का प्रतिशोध - 6 - राजेश्वर वशिष्ठ

कविता का अंश... कुरुक्षेत्र के मैदान में, अब सिर्फ़ धूल ही बची है, जैसे अम्बा के हृदय में बस गया है, दुःख और विषाद ! परशुराम गर्दन झुका कर चले गए हैं, महेन्द्र पर्वत की ओर। और भीष्म दल-बल सहित, वापस लौट रहे हैं हस्तिनापुर ! अम्बा जान गई, स्त्री के लिए न्याय, समानता और सम्मान, आचार्यों के प्रवचनों का ही विषय हैं। अम्बा इन्हें खोज नहीं पाई, पुरुषों की दुनिया में, इसलिए अब उसे चाहिए, केवल भीष्म की मृत्यु ! अम्बा ने कुरुक्षेत्र से निकल कर, राह ली श्यामवर्णा यमुना की। जिसके तट पर, उसने आरम्भ किया अलौकिक तप ! बारह वर्ष तक, केवल वायु और पत्रादि का भक्षण करते हुए, सूख कर काँटा हो चली थी अम्बा। पर भरी थी उसके भीतर बदले की आग, जैसे काष्ठ में रहती है अग्नि ! तप के प्रभाव से, उसका आधा शरीर बन गया, अम्बा नाम की एक नदी। और आधे शरीर से वह बनी वत्सराज की कन्या, आश्चर्य, उसे अब भी याद था, अपना अभीष्ट ! इस जन्म में भी, अम्बा करती ही रही तपस्या। हार कर प्रकट हुए भोलेनाथ ! प्रसन्न होकर शिव ने पूछा –- क्या चाहिए तुझे, पुत्री ? भीष्म का नाश, इसके सिवाय मुझे कुछ नहीं चाहिए, त्रिपुरारी ! इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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