शनिवार, 5 नवंबर 2016

लघुकथा – खोल – रमेश आचार्य

कहानी का अंश... मेरा रोज उसी रूट से आना-जाना होता था। उस रास्ते में दो बड़े अस्पताल आते थे। मुझे ऑफिस जाने के लिए दो बसे पकड़नी होती थी। दूसरी बस मैं अस्पताल के स्टेन्ड से लेता था। उस दिन भी मैं ऑफिस के लिए बस से जा रहा था। समय काटने के लिए मैं पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। तभी तीसेक साल का एक युवक ने अपनी कारुणिक आवाज में लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहा था, बाबूजी मुझ गरीब पर दया करो। ईश्वर आपका भला करेगा। मेरी औरत महीने भर से बीमार थी। उसे इलाज के लिए दिल्ली लाया था। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है। कल रात उस बेचारी ने दम तोड़ दिया। उसकी लाश अस्पताल के बाहर पड़ी है। मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। गाँव जाना तो दूर, मेरे पास उसके कफन तक के लिए एक फूटी कौड़ी भी नहीं हैं। अब तो आप लोग ही मेरा सहारा हो। मुझ पर रहम करो, रहम करो। ऐसा कहते हुए वह जोर-जोर से रोने लगा। आगे क्या हुआ, जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए....

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