शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

मैनेजमेंट फंडा – एन. रघुरामन

क्या आप विजयी मुस्कान से 2016 को विदा कर रहे हैं? लेख का अंश… छह साल के आदित्य ने अपने पिता का हाथ थामकर पूछा – पापा, क्या मैं कभी दूसरे बच्चों की तरह जी पाऊंगा? 37 साल के पिता रूपेश शिंदे ने तुरंत जवाब दिया – हाँ, हाँ, क्यों नहीं? और वे तेजी से कॉरिडोर में अपने आँसू पोंछते हुए आगे चल दिए क्योंकि वे जानते थे कि आदित्य को लेकर उनकी उम्मीदें छूटती जा रही हैं। वे डरावने कर्ज में डूब चुके हैं। दिल में छेद के साथ जन्मे बच्चे की हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है। जबकि इलाज नवी मुंबई के सबसे अच्छे अस्पताल में करवा रहे हैं। नवी मुंबई में ही वे रहते हैं और वहीं काम करते हैं। रूपेश ने बेटे से वादा किया था कि वह हमउम्र बच्चों की तरह तंदुरूस्त हो जाएगा। बेटे की दो सर्जरी करवाई लकिन कोई सफलता नहीं मिली। दिल की समस्या ऐसी थी कि उसका अधिकतर समय बिस्तर पर ही बीतता था या फिर चेयर पर। थोड़ा-सा भी पैदल चलता, तो उसकी साँसे फूलने लगती थीं। बच्चों की तरह दौड़ना तो दूर की बात थी। सर्जरियों और ऑपरेशनों के बाद की देखभाल ने रूपेश को कर्ज के पहाड़ तले दबा दिया है। नवी मुंबई में फाइनेन्शियल कंसल्टेंसी चलाने वाले मीना और श्रीराम के यहाँ रूपेश ड्राइवर है। वे सतर्क थे कि उनके एम्प्लायर्स को कोई परेशानी न हो। बाजार में गिरावट की खबरे हैं। कुछ एम्प्लायर्स कर्मचारियों के खाते में नोटबंदी के पुराने नोट बदलने के लिए जमा कर रहे हैं। रूपेश के एम्प्लायर्स का व्यवहार उसके प्रति बहुत अच्छा है। मीना ने रूपेश के चेहरे पर निराशा के भाव पढ़ लिए और कारण पूछा। रूपेश ने पूरी कहानी बताई तो आदित्य को लेकर उनकी उम्मीदों ने बड़ी छलांग लगाई। क्योंकि मीना कई डाक्टर्स को जानती थीं। ये डॉक्टर उनके क्लाईंट थे। पहले उन्होंने इनसे कंसल्ट किया। इसी के साथ अपने कर्मचारियों, क्लाईंट और दोस्तों से भी डोनेशन का आग्रह किया। एक कर्मचारी, जिसकी सैलेरी सिर्फ 25000 रुपए महीना थी, उसने पाँच हजार का चैक दिया। सिर्फ दो ही दिन में 25 लाख रुपए का डोनेशन आदित्य के लिए जमा हो गया। आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….

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