गुरुवार, 5 जनवरी 2017

कविता - कुकुरमुत्ता - भाग - 2 - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कविता का अंश... बाग के बाहर पड़े थे झोपड़े दूर से जो देख रहे थे अधगड़े। जगह गन्दी, रूका, सड़ता हुआ पानी मोरियों मे; जिन्दगी की लन्तरानी- बिलबिलाते कीड़े, बिखरी हड्डियां सेलरों की, परों की थी गड्डियां कहीं मुर्गी, कही अण्डे, धूप खाते हुए कण्डे। हवा बदबू से मिली हर तरह की बासीली पड़ी गयी। रहते थे नव्वाब के खादिम अफ़्रिका के आदमी आदिम- खानसामां, बावर्ची और चोबदार; सिपाही, साईस, भिश्ती, घुड़सवार, तामजानवाले कुछ देशी कहार, नाई, धोबी, तेली, तम्बोली, कुम्हार, फ़ीलवान, ऊंटवान, गाड़ीवान एक खासा हिन्दु-मुस्लिम खानदान। एक ही रस्सी से किस्मत की बंधा काटता था जिन्दगी गिरता-सधा। बच्चे, बुड्ढे, औरते और नौजवान रह्ते थे उस बस्ती में, कुछ बागबान पेट के मारे वहां पर आ बसे साथ उनके रहे, रोये और हंसे। एक मालिन बीबी मोना माली की थी बंगालिन; लड़की उसकी, नाम गोली वह नव्वाबजादी की थी हमजोली। नाम था नव्वाबजादी का बहार नजरों में सारा जहां फ़र्माबरदार। सारंगी जैसी चढ़ी पोएट्री में बोलती थी प्रोज में बिल्कुल अड़ी। गोली की मां बंगालिन, बहुत शिष्ट पोयट्री की स्पेशलिस्ट। बातों जैसे मजती थी सारंगी वह बजती थी। सुनकर राग, सरगम तान खिलती थी बहार की जान। गोली की मां सोचती थी- गुर मिला, बिना पकड़े खिचे कान देखादेखी बोली में मां की अदा सीखी नन्हीं गोली ने। इसलिए बहार वहां बारहोमास डटी रही गोली की मां के कभी गोली के पास। सुबहो-शाम दोनों वक्त जाती थी खुशामद से तनतनाई आती थी। गोली डांडी पर पासंगवाली कौड़ी स्टीमबोट की डोंगी, फ़िरती दौड़ी। पर कहेंगे- ‘साथ-ही-साथ वहां दोनो रहती थीं अपनी-अपनी कहती थी। दोनों के दिल मिले थे तारे खुले-खिले थे। हाथ पकड़े घूमती थीं खिलखिलाती झूमती थीं। इक पर इक करती थीं चोट हंसकर होतीं लोटपोट। सात का दोनों का सिन खुशी से कटते थे दिन। महल में भी गोली जाया करती थी जैसे यहां बहार आया करती थी। एक दिन हंसकर बहार यह बोली- “चलो, बाग घूम आयें हम, गोली।” दोनों चली, जैसे धूप, और छांह गोली के गले पड़ी बहार की बांह। साथ टेरियर और एक नौकरानी। सामने कुछ औरतें भरती थीं पानी सिटपिटायी जैसे अड़गड़े मे देखा मर्द को बाबू ने देखा हो उठती गर्दन को। निकल जाने पर बहार के, बोली पहली दूसरी से, “देखो, वह गोली मोना बंगाली की लड़की । भैंस भड़्की, ऎसी उसकी मां की सूरत मगर है नव्वाब की आंखों मे मूरत। रोज जाती है महल को, जगे भाग आखं का जब उतरा पानी, लगे आग, रोज ढोया आ रहा है माल-असबाब बन रहे हैं गहने-जेवर पकता है कलिया-कबाब।” झटके से सिर-आंख पर फ़िर लिये घड़े चली ठनकाती कड़े। बाग में आयी बहार चम्पे की लम्बी कतार देखती बढ़्ती गयी फ़ूल पर अड़ती गयी। मौलसिरी की छांह में कुछ देर बैठ बेन्च पर फ़िर निगाह डाली एक रेन्ज पर देखा फ़िर कुछ उड़ रही थी तितलियां डालों पर, कितनी चहकती थीं चिड़ियां। भौरें गूंजते, हुए मतवाले-से उड़ गया इक मकड़ी के फ़ंसकर बड़े-से जाले से। फ़िर निगाह उठायी आसमान की ओर देखती रही कि कितनी दूर तक छोर देखा, उठ रही थी धूप- पड़ती फ़ुनगियों पर, चमचमाया रूप। पेड़ जैसे शाह इक-से-इक बड़े ताज पहने, है खड़े। आया माली, हाथ गुलदस्ते लिये गुलबहार को दिये। गोली को इक गुलदस्ता सूंघकर हंसकर बहार ने दिया। जरा बैठकर उठी, तिरछी गली होती कुन्ज को चली! देखी फ़ारांसीसी लिली और गुलबकावली। फ़िर गुलाबजामुन का बाग छोड़ा तूतो के पेड़ो से बायें मुंह मोड़ा। एक बगल की झाड़ी बढ़ी जिधर थी बड़ी गुलाबबाड़ी। देखा, खिल रहे थे बड़े-बड़े फ़ूल लहराया जी का सागर अकूल। दुम हिलाता भागा टेरियर कुत्ता जैसे दौड़ी गोली चिल्लाती हुई ‘कुकुरमुत्ता’। सकपकायी, बहार देखने लगी जैसे कुकुरमुत्ते के प्रेम से भरी गोली दगी। भूल गयी, उसका था गुलाब पर जो कुछ भी प्यार सिर्फ़ वह गोली को देखती रही निगाह की धार। टूटी गोली जैसे बिल्ली देखकर अपना शिकार तोड़कर कुकुरमुत्तों को होती थी उनके निसार। बहुत उगे थे तब तक उसने कुल अपने आंचल में तोड़कर रखे अब तक। घूमी प्यार से मुसकराती देखकर बोली बहार से- “देखो जी भरकर गुलाब हम खायंगे कुकुरमुत्ते का कबाब।” कुकुरमुत्ते की कहानी सुनी उससे जीभ में बहार की आया पानी। पूछा “क्या इसका कबाब होगा ऎसा भी लजीज? जितनी भाजियां दुनिया में इसके सामने नाचीज?” गोली बोली-”जैसी खुशबू इसका वैसा ही स्वाद, खाते खाते हर एक को आ जाती है बिहिश्त की याद सच समझ लो, इसका कलिया तेल का भूना कबाब, भाजियों में वैसा जैसा आदमियों मे नव्वाब” “नहीं ऎसा कहते री मालिन की छोकड़ी बंगालिन की!” डांटा नौकरानी ने- चढ़ी-आंख कानी ने। लेकिन यह, कुछ एक घूंट लार के जा चुके थे पेट में तब तक बहार के। “नहीं नही, अगर इसको कुछ कहा” पलटकर बहार ने उसे डांटा- “कुकुरमुत्ते का कबाब खाना है, इसके साथ यहां जाना है।” “बता, गोली” पूछा उसने, “कुकुरमुत्ते का कबाब वैसी खुशबु देता है जैसी कि देता है गुलाब!” गोली ने बनाया मुंह बाये घूमकर फ़िर एक छोटी-सी निकाली “उंह!” कहा,”बकरा हो या दुम्बा मुर्ग या कोई परिन्दा इसके सामने सब छू: सबसे बढ़कर इसकी खुशबु। भरता है गुलाब पानी इसके आगे मरती है इन सबकी नानी।” चाव से गोली चली बहार उसके पीछे हो ली, उसके पीछे टेरियर, फ़िर नौकरानी पोंछती जो आंख कानी। चली गोली आगे जैसे डिक्टेटर बहार उसके पीछे जैसे भुक्खड़ फ़ालोवर। उसके पीछे दुम हिलाता टेरियर- आधुनिक पोयेट पीछे बांदी बचत की सोचती केपीटलिस्ट क्वेट। झोपड़ी में जल्दी चलकर गोली आयी जोर से ‘मां’ चिल्लायी। मां ने दरवाजा खोला, आंखो से सबको तोला। भीतर आ डलिये मे रक्खे मोली ने वे कुकुरमुत्ते। देखकर मां खिल गयी। निधि जैसे मिल गयी। कहा गोली ने, “अम्मा, कलिया-कबाब जल्द बना। पकाना मसालेदार अच्छा, खायेंगी बहार। पतली-पतली चपातियां उनके लिए सेख लेना।” जला ज्यों ही उधर चूल्हा, खेलने लगीं दोनों दुल्हन-दूल्हा। कोठरी में अलग चलकर बांदी की कानी को छलकर। टेरियर था बराती आज का गोली का साथ। हो गयी शादी कि फ़िर दूल्हन-बहार से। दूल्हा-गोली बातें करने लगी प्यार से। इस तरह कुछ वक्त बीता, खाना तैयार हो गया, खाने चलीं गोली और बहार। कैसे कहें भाव जो मां की आंखो से बरसे थाली लगायी बड़े समादर से। खाते ही बहार ने यह फ़रमाया, “ऎसा खाना आज तक नही खाया” शौक से लेकर सवाद खाती रहीं दोनो कुकुरमुत्ते का कलिया-कबाब। बांदी को भी थोड़ा-सा गोली की मां ने कबाब परोसा। अच्छा लगा, थोड़ा-सा कलिया भी बाद को ला दिया, हाथ धुलाकर देकर पान उसको बिदा किया। कुकुरमुत्ते की कहानी सुनी जब बहार से नव्वाब के मुंह आया पानी। बांदी से की पूछताछ, उनको हो गया विश्वास। माली को बुला भेजा, कहा,”कुकुरमुत्ता चलकर ले आ तू ताजा-ताजा।” माली ने कहा,”हुजूर, कुकुरमुत्ता अब नहीं रहा है, अर्ज हो मन्जूर, रहे है अब सिर्फ़ गुलाब।” गुस्सा आया, कांपने लगे नव्वाब। बोले;”चल, गुलाब जहां थे, उगा, सबके साथ हम भी चाहते है अब कुकुरमुत्ता।” बोला माली,”फ़रमाएं मआफ़ खता, कुकुरमुत्ता अब उगाया नहीं उगता।” इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए....

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