शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

कहानी - बेबस लाठी - अर्चना सिंह 'जया'

बेबस लाठी... कहानी का अंश... समाज एक व्यक्ति से नहीं बनता बल्कि परिवार, दोस्त व समुदाय से मिलते हुए समाज का निर्माण होता है। समाज में रिश्तों का रुप भी बदलता रहता है। आज के परिवेश में रिश्तों के बीच साॅंसें घुॅंटती नजर आ रही हैं। हमारे ताऊ जी जो कभी बोकारो के स्टेट बैंक में हुआ करते थे, उन्हीं के मित्र मिश्रा जी थे। दोनों में धनिष्ठ मित्रता थी, एक ही शहर ,मुहल्ले में रहा करते थे। किसी समय दोनों ही सरकारी नौकरी में कार्यरत थे, मिश्रा जी सरकारी स्कूल में थे इस कारण कभी कभार उनका तबादला भी हुआ करता था। जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते गए,उन्होंने परिवार एक जगह रखने का निर्णय लिया। इस तरह बच्चों की पढ़ाई में कोई रुकावट नहीें आई। ताऊ जी ने जिस सोसाइटी में थोड़े सस्ते में घर लिया था उसी में मिश्रा जी ने भी लेने के विषय में सोचा, ताकि दोनों मित्र एक साथ बुढ़ापे की जिंदगी साथ में बिता सके। उन दिनों घर की कीमत एक दो लाख की थी किंतु अभी उन पर कई जिम्मेदारियों का दायित्व था। मिश्रा जी तीन भाई थे, माता-पिता इलाहाबाद के एक गाॅंव में रहते थे। माता जी का स्वर्गवास हुए आठ साल हो रहे थे, पिता जी अब मिश्रा जी के साथ ही रहते थे। मिश्रा जी के दो भाई गाॅव पर ही रहकर खेतीबाड़ी संभाला करते थे। सबसे बड़े भाई जरा अस्वस्थ रहते थे, उन्होंने शादी नहीं की थी। मिश्रा जी के बडे़ भाई समय-असमय अनाज व सरसों तेल उन्हें भेजवा दिया करते थे । इस तरह मिश्रा जी को मदद मिल जाया करती थी। यहाॅं संस्कार का प्रभाव स्पष्ट नज़र आता था, भाइयों का आपसी तालमेल सही था। आज की पीढ़ी मदद करने से पूर्व सोचती है कि मैं ही क्यूॅं ? मिश्रा जी की दो बेटियाॅं और एक बेटा था, तीनों की पढ़ाई, बाबू जी की दवादारु व पत्नी की जरुरतों का ध्यान रखते हुए जीवकोपार्जन हो रहा था। तनख्वाह ठीक-ठीक थी किन्तु मिश्रा जी बेटियों की शिक्षा में किसी भी प्रकार से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। उनकी दृष्टि में बेटियों को शिक्षित करना यानि एक अच्छे परिवार व स्वस्थ समाज का निर्माण करना था, वहीं उनकी स्वयं की पत्नी आठवीं पढ़ी हुई थी । मिश्रा जी जिस जमाने के थे उस जमाने में बेटा पिता की बातों को नकार नहीं सकता था, विवाह की इच्छा उसकी है या नहीें, उसकी सोच क्या है? ये सारी बातें कोई मायने नहीं रखती थीं। इस प्रकार मिश्रा जी की शादी ,बस हो गई। मुझे बुजुर्गों को आदर देने का ये तरीका आज तक समझ नहीं आया। क्यों हम अपने ही माता-पिता से मन की बात नहीं कर सकते, उनसे नहीं कहेंगे तो क्या पड़ोसी से दिल की बात करेंगे ? विवाह जैसे बंधन के लिए बच्चों से राय लेना व उनकी सहमति होनी जरुरी क्यों नहीं समझते थे ? मिश्रा जी पूरी जिंदगी आर्थिक जोड़ तोड़ में ही लगे रहे। पिताजी बीमार चल रहे थे, अचानक ही वे बहुत बीमार हो गए। लीवर कार्य करना बंद कर दिया और ब्लड प्रेशर अत्यधिक कम हो गया। अस्पताल में आई सी यू में भर्ती भी हुए किन्तु वे अगली सुबह भी नहीं देख पाए। बाबू जी के देहांत के पश्चात् वे स्वयं को कमजोर महसूस करने लगे। कई कार्यों में उनसे सलाह भी लिया करते थे। बड़ी बिटिया की शादी की बात जो चल रही थी । एक वर्ष के पश्चात् बड़ी बेटी की शादी कर दी। दामाद कलकत्ता में ही, बैंक में कार्य करता था और परिवार भी शिक्षित व छोटा था। एक बहन थी जिसकी शादी हो चुकी थी, बस बुजुर्ग माता पिता ही थे जो साथ में रहते थे। मिश्रा जी को अच्छी शादी मिल गई थी। उनकी छोटी बेटी भी शादी योग्य हो ही रही थी किंतु बच्चों की पढ़ाई व घर खर्च चलाना एक चुनौती पूर्ण जिम्मेदारी थी। मिश्रा जी का बेटा, सिर्फ बेटा न कहो, लाडला बेटा तो ज्यादा सही होगा। दो बेटियों के बाद का जो था। बहनों ने भी सिर चढ़ा रखा था। माॅं भी बेटा बेटा करते नहीें थकती थी। समाज में बेटे को बुढ़ापे की लाठी जो माना जाता है। मिश्रा जी तो अपने माता-पिता के लिए अंधे की लाठी साबित हुए, इसी के लिए हम रिश्तों के पौधें को सींचते रहते हैं ताकि एक दिन फल रुपी सुख व छाॅंव रुपी सहारा प्राप्त हो। बेटा अखिलेश अभी पढ़ ही रहा था पर उसकी रुचि पढ़ने में नहीं थी। मिश्रा जी सोचा करते थे कि अगर बेटे का ग्रेजुएट हो जाए तो सिफारिश करके किसी भी तरह नौकरी लगवा देंगे। अंततः बेटे ने ग्रेजुएशन कर ही लिया और नौकरी भी आरंभ कर दी। मिश्रा जी कुछ प्रसन्न रहने लगे कि बेटे ने भी कमाना आरंभ कर ही दियां। इसी बीच छोटी बिटिया की शादी की भी बात की शुरुआत हो गई। तीन महीने के बाद का दिन निर्धारित हुआ। छोटी बिटिया की शादी के दौरान बेटे अखिलेश की शादी की भी बातचीत का सिलसिला आरंभ हो गया किंतु मिश्रा जी ने एक-डेढ़ साल का समय मांगा और इस तरह उन्हें भी साॅंस लेने की फुर्सत मिली। इसी के साथ बेटे को डिस्टेंट लर्निंग के कोर्स में दाखिला करवा दिया। अब घर कुछ खाली-खाली सा लगने लगा था। पत्नी की भी तबीयत कुछ गड़बड़ रहने लगी थी। एक माॅं से बेटियों का खालीपन सहा नहीं जा रहा था, जैसे घर की रौनक ही चली गई थी। सूनापन काटने को आ रहा था। मिश्रा जी के रीटायरमेंट का समय नजदीक आता जा रहा था तभी उन्होंने घर खरीदने का निर्णय ले ही डाला। ताऊ जी से कह कर तीन कमरे का मकान ले लिया। ताऊ जी के एक मित्र का मकान था उसे पैसे की जरुरत आ पड़ी तो उसने चालू भाव में ही मिश्रा जी को घर बेच डाला। अब वो पल आ ही गया जब मिश्रा जी को अपनी नौकरी को हमेशा के लिए बाय कहना था। समय जरा दुःखद था पर ये तो सभी के जीवन में आता है। इज्जत के साथ अपने कार्य से मुक्त हुए ये तो गर्व की बात है-ऐसा कह पत्नी ने हौसला बढ़ाया, साथ ही अब मुझे ज्यादा समय भी दे पायेंगे। इस प्रकार मिश्रा जी अपनी पत्नी व बेटे के साथ अपने मकान में रहने लगे। कुछ ही सालों के पश्चात् बेटे ने अपनी नौकरी भी बदल ली और वह राँची चला गया। ताऊ जी और मिश्रा जी एक साथ समय व्यतीत करने लगे। इसके आगे की कहानी जानिए, ऑडियो की मदद से...

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