शनिवार, 1 अगस्त 2009

शेख साहब

नीरजा सलाखों के पीछे की दुनिया देख रही थी। वो दुनिया जिसमें जिंदगी जी नहीं जाती, केवल काटी जाती है। जहाँ इंसान जीता नहीं केवल जिंदा रहता है। बहुत से कैदी अपने-अपने प्रायश्चित के साथ अपने दर्द को विराम दे रहे थे। नीरजा उन्हीं को देखते हुए आगे बढ़ रही थी। तभी एक कैदी की दर्दनाक चीख सुनाई दी जो एक मैदान से आ रही थी। उसके कदम उस दिशा में आगे बढ़े। पास जा कर देखा, तो कुछ जेलकर्मी एक कैदी को टॉचर्र कर रहे थे। वह सहम उठी। उसने हवलदार से पूछा - ये क्या हो रहा है ?
- मैडम, यह कैदी काम करने से इंकार कर रहा है,
- आखिर क्यों?
- क्योंकि यह अपने आपको बड़ा अपराधी मानता है और छोटे काम करने से इंकार करता है।
- नीरजा वहाँ से आगे बढ़ गई। पीछे से उसे दो-तीन आवाजें सुनाई दी-
- नहीं, यह ऐसे नहीं मानेगा। इसे तो शेख साहब के पास भेजना ही होगा।
- हाँ, शेख साहब ही इसे ठीक कर सकते हैं।
- पीछले चार खतरनाक कैदियों को भी तो शेख साहब ने ही झेला था। यह उन्हीं के बस की बात है।
- हाँ, हाँ, यह काम शेख साहब ही कर सकते हैं।
नीरजा ने उनकी बात ध्यान से सुनी और फिर अपने मकसद के लिए आगे बढ़ गई। वह मनोविज्ञान अंतिम वर्ष की छात्रा थी और मानवीय संवेदनाओं पर शोध कर रही थी। उसी सिलसिले में वह कैदियों के जीवन के बारे में जानने के लिए यहाँ आई हुई थी। जेलर वर्मा से मिलते ही उसने पहला सवाल किया - शेख साहब कौन है ? अभी-अभी कुछ लोग किसी शेख साहब का जिक्र कर रहे थे। मैं उनसे मिलना चाहती हूँ। जेलर वर्मा मुस्करा दिए और हवलदार को आदेश दिया कि मैडम शेख साहब से मिलना चाहती है। इन्हें शेख साहब के पास ले जाओ। हवलदार ने नीरजा को शेख साहब के कमरे के पास ले जाक र छोड़ दिया।
इन दो-चार कदम की दूरी में ही उसने मन ही मन में शेख साहब की एक छवि तैयार कर ली थी। आखिर मनोविज्ञान की छात्रा जो ठहरी। एक रौबदार, ऊँची कद-काठी का खूँखार व्यक्तित्व। लेकिन यह क्या ? जब वह कमरे में पहुँची तो एक साधारण बुजुर्ग से सामना हुआ। वह रौबदार ऊँची कद-काठी का व्यक्तित्व धूमिल हो गया। शेख साहब ने उसे नम्रतापूर्वक कुर्सी पर बैठने को कहा। वह एक पल को अचकचाई, मन में विचार आया कि कहीं मैं $गलत कमरे में तो नहीं आ गई।
वह पूछ बैठी - आप ही हैं - शेख साहब ?
वे हंसते हुए बोले - हाँ, बेटी। मैं ही हूँ शेख साहब।
मैंने तो सुना था कि आप कैदियों को ठीक करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं, लेकिन आपको देख ऐसा नहीं लगता।
- सच कह रही हो बेटी। मुझे देखकर कोई भी इस पर विश्वास नहीं करेगा। मगर मैं ही यहाँ यह नेक काम करता हूँ।
- कैसे करते हैं, आप यह सब ?
- बड़ी सादगी से। मेरी टेबल पर यह पुस्तक देख रही हो।़ यह कविताओं की पुस्तक है। इस कमरे को ही गौर से देखो- क्या तुम्हें यह कमरा देख कर लगता है कि यहाँ किसी कैदी को टॉचर्र किया जाता होगा ? उसने ध्यान से देखा - सचमुच, वहाँ कोइ ऐसा सामान नहीं था। पिस्तौल, लाठी, हथकड़ी कुछ भी नहीं। प्रकृति से जुड़ी हुई दो-चार सुंदर पेंटिग्स, हल्का मधुर संगीत, कुछ किताबें और टेबल पर भी पड़ी हुई यह पुस्तकें। बस इसके सिवा वहाँ और कुछ न था।
शेख साहब हंस कर बोले - यही है इस कमरे की सच्चाई, मेरी सच्चाई। जैसा मैं खुद हूँ, वैसी ही मेरे आसपास की दुनिया है। मैं वैसा ही लोगों को देखना चाहता हँू और इसके लिए पूरी कोशिश करता हूँ। हम मनुष्य हैं, ईश्वर या $खुदा द्वारा बनाई गई एक अनुपम कृति। ईश्वर ने हमारे भीतर संवेदनाएँ कूट-कूट कर भरी है, मगर आज की इस भागदौड़ की $िजदगी में, कुछ कर गुजरने की ख्वाईश में हमारी संवेदनाएँ बहुत पीछे छूट गई, और इंसान, इंसान से हैवान बन बैठा। उसने वह सब किया, जो $गलत था और आज भी वह $गलत किए जा रहा है। यही $गलती उसे सलाखों के पीछे ले आती है। वह यहाँ आना नहीं चाहता मगर उसकी करनी, उसकी नासमझी उसे इस घोर अंधकार में लाकर पटक देेती है। यहाँ लोहे की सलाखें उसे कैदी नाम देती है। मैं कुछ नहीं करता। बस, इन कैदियों के अंदर सोई पड़ी संवेदनाओं को जगाता हूँ। जिसमें यह किताबें मेरा सहयोग करती है। मैं मार्मिक शब्दों के जाल में इन्हें उलझाकर इनके भीतर के इंसान को जगाता हूँ। फिर इन्हें प्रायश्चित का सीधा और सरल मार्ग दिखाता हूँ। इसके लिए शब्द मुझे इन्हीं कविताओं से मिलते हैं। मैं कविताओं के कोड़े मारता हूँ और इनकी संवेदनाओं को सच्चाई के रूप में जगाता हॅंू और प्रतिफल के रूप में फिर एक नई कविता को जन्म देता हूँ। यह नई कविता फिर एक नये कैदी को नया जन्म देती है, उसकी मार्मिक वेदनाओं को एक आकार देती है। जब कैदी यहाँ से बाहर जाता है, तो एक इंसान के रूप में बाहर जाता है। मैं तो सिर्फ एक माध्यम बनता हूँ और कोशिश करता हूँ कि लगातार इस कार्य में सफल होता रहूँ। मेरा खुदा, तुम्हारा ईश्वर यदि मेरा इस काम में सहयोग करते हैं, तो मेरा हौसला और बढ़ जाता है। मेरा मार्मिक शब्दकोष दुगुना हो जाता है।
- लेकिन शेख साहब, आपने यह रास्ता क्यों अपनाया ?
- बेटी, मेरे चेहरे की इन झुर्रियों में आजादी की कहानी छिपी हुई है। मेरी इन आँखों ने आजादी की वो जंग देखी है, जिनकी सच्चाई आज के युवाओं के लिए किस्से-कहानी के अलावा और कुछ नहीं। अँगरेज़ों के अत्याचार... देेशप्रेम की भावना... आज़ादी के लिए मर-मिटने का जज़्बा... और अंत में जब सपना साकार हुआ तो बजाय उसे सहेजने के एक-दूसरे के दुश्मन बन जाना... मार-काट, तबाही के भयानक तांडव को झेलने के बाद फिर उसी तांडव को करने के लिए एक-दूसरे को प्रेरित करना... भाई-भाई के बीच मतभेद की दिवार बनाना... और अंत में अपने भीतर के ही इंसान को मार डालना...मैंने आजादी के बाद हुए साम्प्रादायिक दंगों में अपने भीतर के इंसान को हिचकियों में रोते देखा है... और इसीलिए मैंने तय किया कि नहीं, मैं अपने भीतर के इंसान को इसतरह बेबस और लाचार नहीं होने दूँगा। मैं केवल अपने भीतर के ही नहीं अपने आसपास के लोगों के भीतर भी जो इंसानियत है, उसे जिंदा रखने का प्रयास करूँगा। इस प्रयास में लोगों को करीब से जानना जरूरी था। इसीलिए मैंने मनोविज्ञान विषय को चुना। इस विषय पर पीएच.डी करने के बाद मुझे लगा यह जेल ही ऐसी जगह है, जहाँ मेरे जीवन का लक्ष्य पूरा हो सकता है। फिर क्या था, जब मंजिल चुन ली, तो रास्ता आसान हो गया और मैं इंसानियत जगाने के इस रास्ते पर चल पड़ा।
नीरजा अवाक हो कर उनकी बातें सुनती रही। उनके शब्द उसके हृदय में उतरते चले गए। वह नहीं जानती थी कि क्रूर कैदियों के बीच, इस वातावरण में रहने वाला कोई एक इंसान इतना संवेदनशील भी हो सकता है कि मात्र अपने शब्दो को ही आधार बनाकर किसी की अंतरात्मा को जगा सकता है।
आज जहां क्रूरता अपनी चरम सीमा पर है, वीभत्सता का नंगा तांडव हो रहा है, अनाचार और अत्याचार की गूँज कानों को बेध रही है, लोग इस हिंसक वातावरण में जिंदा रहने को विवश है, ऐसे में एक आदमी अपनी लेखनी से शांति की अलख जगा रहा है। लोगों के हृदय में छुपी हुई संवेदनाओं की कली को चटकाने की पूरजोर कोशिश कर रहा है और इसमें कामयाब भी हो रहा है। पूरे विश्वास के साथ इस विरोधी वातावरण में यह प्रयत्न कर रहा है, एक ऐसी कोंपल उगाने की, जो फूलों से आच्छादित होगी। उसकी महक वातावरण को महकाएगी और जीवन सरस, सजीव हो उठेगा। उसका यह प्रयास कभी खत्म न होगा, निरंतर चलता रहेगा। ऐसे जोशीले इन्सान के सामने नतमस्तक हो उठी नीरजा। शेख साहब से मिलकर उसका मकसद पूरा हो चुका था।
भारती परिमल

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