शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

परख


एक पुरानी कहानी है। शायद आपने ना सुनी हो। अगर सुनी हो तो भी यकीन दिलाता हूं फिर से एक बार पढ़ी जा सकती है।
एक राजा हुआ करता था जिसका नियम था कि उसके शहर के हाट-बाजार में जो भी सामान नहीं बिकता, उसे वह खरीद लेता। उसी के राज्य में एक गरीब अंधा युवक भी रहता था। माता-पिता नहीं थे और वह अपने दो भाइयों पर आश्रित था। गरीबी से तंग आकर उसने अपने भाइयों से कहा – मैं अपना जीवन आप पर भार बनते नहीं देख सकता। आप मुझे बाजार में बेच दो।
भाइयों ने पहले तो इनकार किया पर जैसाकि होता है अंत में गरीबी ने उन्हें व्यवहारिक निर्णय लेने को बाध्य कर ही दिया। दोनों भाई उसे लेकर बाजार पहुंचे, लेकिन नेत्रहीन को कोई पारखी ग्राहक न मिला। अंत में राज कर्मचारी आए और उसे भी अन्य सामान के साथ लेकर राजा के पास पहुंचे। राजा को विभिन्न वस्तुओं के बीच एक अंधे आदमी को देख भारी आश्चर्य हुआ। वो बोला – अरे सूरदास, तुम मेरे पास तो आए लेकिन तुम मेरे किस काम आओगे? नेत्रहीन ने जवाब दिया – महाराज मैं अंधा हूं लेकिन मैं पारखी हूं। आपने दया कर मुझे आश्रय दिया है, आपको जब कभी कुछ परखना हो मुझे याद कीजिएगा। मैं अपनी उपयोगिता बता दूंगा। राजा हँसकर आगे बढ़ गया और बात आयी गई हो गई। एक दिन दरबार में ईरान से एक घोड़ों का सौदागर आया। वह दो सौ उम्दा अरबी घोड़े बेचने के लिए लाया था। घोड़े लड़ाई के लिए तैयार किए गए थे और खासियत यह थी कि पानी में वो दौड़ते निकल जाते। घोड़े देखने के लिए लोगों का हुजूम खड़ा था। राजा को अंधे की याद आयी, सोचा अंधे की परख जांची जाए। अंधे को दरबार में बुलाया गया। राजा ने कहा- सूरदास, सौदागर कहता है ये घोड़े पानी में कभी बैठते नहीं, क्या तुम इनकी परख सकते हो। अंधे ने हामी भरी और जाकर घोड़ों को सूंघने लगा। अंधा हर घोड़े के पास जाकर उसके मुंह के पास सूंघता और आगे बढ़ जाता। एक घोड़े पास जाकर वह रूका और चिल्लाया – महाराज यह घोड़ा पानी में बैठेगा। सौदागर हँसा, बोला – मेरे घोड़े तो राजा-सूरमा पहचान सकते हैं ये अंधा मेरे अरबी घोड़ों की क्या परख करेगा? अंधे ने कहा – ठीक है यदि यह घोड़ा पानी में बैठा तो सभी घोड़े महाराज के अस्तबल में बांधना हांेगे। सौदागर ने हामी भरी। परीक्षा के लिए घोड़ों को तालाब में छोड़ा गया। सब घोड़े पानी में दौड़ गए लेकिन अंधे का बताया घोड़ा पानी में बैठ गया। सब लोग ताली पीटने लगे। सौदागर माथा पकड़कर बैठ गया। राजा ने अंधे से पूछा – सूरदास, बताओ तुमने कैसे जाना कि वह घोड़ा पानी में बैठेगा? वह बोला – महाराज मैंने घोडों का जब मुंह सूंघा था तब मुझे उस घोड़े के मुंह से भैंस के दूध की गंध आई थी। मैं समझ गया दूध तो अपनी बात बोलेगा। राजा खुश हुआ और सौदागर बर्बाद। अंधा फिर अपनी कोठरी की राह चला गया।
कुछ दिन बीते परदेस से जवाहिरातों का एक सौदागर आया। वो बसरा से बेशकीमती मोती लाया था। राजदरबार में अपने खास मोती दिखाते हुए वह बोला – महाराज, आपने तो कई किस्म के मोती देखे होंगे लेकिन मेरे इन मोतियों को देखकर बताएं कि ऐसे बेजोड़ मोती का क्या कोई जवाब है? सब लोग मोती को देख कर तारीफ करने लगे। राजा को अंधे पारखी की याद आई। उसे बुलवाया गया। सौदागर अपने मोतियों पर कसीदे पढ़ रहा था। जब अंधे ने मोती हाथ में लिए तो जौहरी ने व्यंग से हँसते हुए कहा- अच्छी तरह से देखों भाई, मोती कैसे हैं? अंधे ने मोतियों को हाथ में लेते हुए कहा – महाराज जौहरी के कुछ मोती ठीक नहीं है। जौहरी को गुस्सा आ गया, लेकिन वह हँसते हुए बोला – महाराज हमने तो अपने जवाहिरातों की परख जौहरी के हाथों ही करवाई है। अंधे ने कहा- तो ठीक है, शहर के सबसे बड़े जौहरियों से परख करवाई जाए अगर मेरी बात सही निकली तो सारे मोती राजसात किए जाएंगे। जौहरी ने गर्व के साथ हामी भरी। शहर के बड़े जौहरियों को बुलवाया गया। अंधे ने अलग निकाले मोती जब उन्होंने जाँचे तो बेठीक पाया। सारे मोती राज खजाने में पहुंच गए। जौहरी अपना छोटा-सा मुंह लेकर चला गया। राजा ने अंधे की खूब तारीफ की और फिर पूछा – सूरदास, बताओ तुमने कैसे जाना की मोती अच्छे नहीं थे? अंधे ने जवाब दिया – महाराज, मैंने मोती के आकार और वजन को परखा। उनमें से कुछ मोती मुझे अपेक्षाकृत भारी लगे। मैं समझ गया कि भारी मोतियों के बनते वक्त भीतर रेत के ज्यादा कण भर गए होंगे, और मैंने उन्हें अलग कर दिया। राजा ने अंधे को फिर शाबासी दी और अंधा फिर अपनी कोठरी की ओर निकल गया।
कई दिन बीते। एक दिन राजा के मन में आया कि यह अंधा, जो पारखी है क्यों न मैं इससे अपनी परख करवाऊँ? राजा ने जब अंधे से कहा – सूरदास तुम मेरी परख कर बताओ। अंधा राजा के पाँव में पड़ गया। वह बोला – अन्नदाता दुहाई, आप मुझसे यह न करवाएं। राजा ने कहा – सूरदास, तुम्हें यह करना ही होगा। अंधा बोला- मुझे अपने प्राणों का भय है। राजा ने जोर दिया, कहा – नहीं तुम्हें मेरी परख करनी होगी। मैं तुम्हें अभय देता हूँ। तुम कहो – मैं कैसा हूँ?
अंधे ने हाथ जोड़कर कहा- महाराज, आप अच्छे हैं लेकिन आप राजपुत्र नहीं है, बनिए के लड़के हैं। राजा सुन्न रह गया। अंधे ने कहा – महाराज मैं इसीलिए आपसे मना करता था। राजा बोला – वह सब ठीक है। लेकिन मैं कैसे जानूं कि तुम जो कह रहे हो वह ठीक है? अंधा बोला- महाराज, आप राजमाता से पूछें, क्योंकि सत्य वहीं जानती हैं और बता सकती हैं।
राजा दौड़ता हुआ महल में राजमाता के पास पहुंचा। उसने पूछा – आप मुझे बताएं कि मैं किसका बेटा हूँ? राजमाता ने कहा- क्यों बेटा, यह कैसा प्रश्‍न तुम स्वर्गीय महाराजजी के पुत्र हो। राजा ने जोर दिया – नहीं आज मुझे सच जानना है, आप मुझे सच बताएं नहीं तो आप मेरा मुंह न देखेंगी। राजमाता ने टालने की बहुत कोशिश की लेकिन राजा को मानते न देख, बोली – तुम सच सुनना ही चाहते हो तो सुना। तुम महाराज के नहीं, कोषाध्यक्ष के पुत्र हो। जब महाराज युद्ध में गए थे, ऋतुकाल के बाद मैं कामप्रेरित थी, तब कोषध्यक्ष से सहवास हुआ, और तुम्हारा जन्म हुआ। कुछ दिनों बाद ही राजा युद्ध जीत कर लौटे और किसी को कुछ पता न चला।
सत्य जानकर राजा हतप्रभ रह गया।
अंत में वह फिर अंधे के पास पहुंचा और बोला – सूरदास तुम्हारी बात सही निकली, पर एक बात बताओ। मेरा आखिरी प्रश्‍न है – तुमने यह बात कैसे परखी?
अंधा हाथ जोड़ कर बोला – महाराज, आपने मुझे आश्रय दिया। आपने मुझे घोड़ों की परख के लिए बुलवाया और आपको दो सौ अरबी घोड़े प्राप्त हुए। कोई राजा होता तो खुश होकर मुझे जागीर दे देता। मैंने मोतियों की परख की और आपको मोतियों का खजाना मिला, कोई राजपुत्र होता तो मुझे गले का कंठा दे देता। आपने मेरी तारीफ कर भेज दिया। मैं समझ गया, यह बुद्धि किसी राजपुत्र को नहीं वणिक को ही सुलभ है. . .

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कहानी है।

    आपका प्रयास सराहनीय है।

    कृपया मेरा ब्लॉग भी देखें:
    http://kitabghar.tk/

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  2. bachpan me aisee heekahaniya sunker hee hum bade hueye kahanee bachapan me legayee.........
    dhanyvad .

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