डॉ. महेश परिमल
चुनाव रणभेरी बज चुकी है। आचार संहिता लागू हो गई है। ऐसे में गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मोदी के खिलाफ आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल ने ताल ठोंक दी है। गुजरात जाकर उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज भी कर दी है। सबकी निगाहें इसी बात पर टिकी हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से यदि अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ते हैं, तो इसका पूरा लाभ केजरीवाल को ही होगा। क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। नरेंद्र मोदी यदि डरकर वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ते हैं, तो केजरीवाल कहेंगे कि वे मुझसे डर गए। यदि नरेंद्र मोदी वाराणसी से चुनाव जीत जाते हैं, तो केजरीवाल यही कहेंगे कि पॉवर और मनी की जीत हुई। अब से 16 मई तक देश के नागरिकों को अन्य किसी मनोरंजन की आवश्यकता नहीं होगी। सभी राजनैतिक समीकरण में उलझे हुए नजर आएंगे। इस दौरान लोग बॉलीवुड और आईपीएल को भी भूल जाएंगे, यह तय है।
इस बार लोगों का भरपूर मनोरंजन करने के लिए राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल आदि हम सबके सामने हैं। दिल्ली की जनता को नाराज कर केजरीवाल ने वाराणसी से नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा कर सबको चौंका दिया है। यदि नरेंद्र मोदी वाराणसी में केजरीवाल के खिलाफ चुनाव लड़ने की भूल करते हैं, तो केजरीवाल के लिए विन-विन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। भाजपा को यदि दिल्ली में सत्ता पर काबिज होना है, तो हिंदी हाटलैंड माने जाने वाले उत्तर प्रदेश-बिहार से अधिक से अधिक सीटें जीतनी होंगी। शायद इसीलिए मोदी के सलाहकार उन्हें गुजरात के अलावा एक हिंदी प्रदेश से चुनाव लड़ने की सलाह दे रहे हैं। वाराणसी अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अलग से पहचाना जाता है। इसलिए नरेंद्र मोदी के लिए यह सीट सुरक्षित दिखाई दे रही है। पर अरविंद केजरीवाल ने यहां से चुनाव लड़ने की घोषणा कर विकट स्थिति पैदा कर दी है। यदि केजरीवाल का मुकाबला करना है, तो सबसे बड़ा शस्त्र उनकी उपेक्षा करना है। अब तक तो मोदी यह काम बड़ी चालाकी से करते दिखाई दे रहे हैं। अब यदि वास्तव में वाराणसी में दोनों की टक्कर होती है, तो निश्चित रूप से मोदी केजरीवाल की उपेक्षा नहीं कर पाएंगे। केजरीवाल चुनाव जीते या हारें, नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़कर वे अपना कद ऊंचा तो कर ही लेंगे। आखिर प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के सामने चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें केवल इसी का लाभ मिलेगा। इसका लाभ उन्होंने अभी से ही लेना शुरू भी कर दिया है। अब गेंद मोदी के पाले में है। यदि मोदी वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ते, तो केजरीवाल कहेंगे कि वे मुझसे डर गए। यदि मोदी अपने निर्णय पर अडिग रहे और अपनी तमाम शक्ति चुनाव जीतने में लगा भी देते हैं, तो पूरे देश में वे अपना प्रचार ठीक से नहीं कर पाएंगे। पार्टी को उनका पूरा लाभ नहीं मिलेगा। यदि केजरीवाल जीत जाते हैं, तो वे जाइंट किलर बन जाएंगे। यदि मोदी बहुत ही कम अंतर से जीतते हैं, तो इसे केजरीवाल की नैतिक जीत बताया जाएगा। यदि भारी बहुमत से जीतते हैं, तो केजरीवाल को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि पॉवर और मसल पॉवर की जीत हुई है।
इस चुनावी जंग में एक खिलाड़ी ऐसा है, जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। दूसरा खिलाड़ी ऐसा है, जो यदि जीतता है या हारता है, तो उसे बहुत कुछ खोना पड़ सकता है। जो यह समझते हैं कि केजरीवाल राजनीति के नए खिलाड़ी हैं, उसे गंभीरता से न लिया जाए, तो यह उनकी भूल होगी। यही भूल दिल्ली के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा ने की थी। जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था। राजनीति के कई ऐसे खिलाड़ी रहे हैं, जो बरसों से राजनीति की बाजी खेल रहे हैं, पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाए, लेकिन केजरीवाल ने यह कर दिखाया। उन्होंने यह चमत्कार एक वर्ष में ही कर दिखाया। दिल्ली में शीला दीक्षित को हराना बहुत ही मुश्किल था, पर वे हार गई। उन्हें भी पराजय का स्वाद चखना पड़ा। कांग्रेस की व्यूह रचना अब नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी के बदले अरविंद केजरीवाल का इस्तेमाल कर रही है। केजरीवाल की कांग्रेस के साथ शायद कुछ गोपनीय सौदेबाजी हुई है, इसलिए आम आदमी पार्टी अब कांग्रेस की बी टीम की भूमिका निभा रही है। आम आदमी पार्टी की रचना ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए हुई है। दिल्ली के चुनाव में उनका मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार ही था। जिसका उन्हें व्यापक समर्थन मिला। इसी की बदौलत उन्हें 28 सीटें मिल भी गईं। दिल्ली के चुनाव का परिणाम आया, तब तक केजरीवाल के लिए कांग्रेस-भाजपा दोनों ही उसके कट्टर दुश्मन थे, पर उसके बाद हालात बदले और आप ने कांग्रेस के सहारे सरकार बना ली। 49 दिनों तक मुख्यमंत्री रहकर केजरीवाल लगातार झूठ पर झूठ बोलकर अपने मतदाताओं से दूर होते गए। कुछ ही दिन पहले उन्होंने कहा था कि उनके दुश्मन नम्बर वन भाजपा(नरेंद्र मोदी) हैं। उनका मानना है कि आज देश में भ्रष्टाचार से भी अधिक गंभीर मुद्दा जातिवाद है। अब वे जातिवाद की लाठी से भाजपा को फटकारने में लगे हैं। उनकी इस कार्यशैली में कांग्रेस का हाथ है।
आज की तारीख में अरविंद केजरीवाल सबसे बड़े तमाशेबाज हैं। पहले उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया। तमाशा बने और बनाया भी। उनके इस तमाशे से नागरिकों को काफी पीड़ा हुई। इसलिए अब उन्होंने अपने सुर बदल दिए। तमाशे पर तमाशे करते रहे। कभी सड़क पर तो कभी विधानसभा में। अंतत: उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। जिस जनलोकपाल विधेयक को लेकर उन्होंने अपनी लड़ाई शुरू की, उसी बिल ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटने के लिए विवश किया। देश के तमाम नेताओं पर कीचड़ उछालकर उन्होंने अपनी पार्टी को पूरी तरह से बेदाग बताया। यही उनकी भूल सामने आई। टीवी पर लगातार चमकने की कला उन्हें खूब आती है। पर यही कला उन्हें ले डूबी। जिस तरह से तमाम चैनलों ने उन्हें हाथो-हाथ लिया, उन्हीं चैनलों से वे एकदम ही छिटक गए। ये सारी बातें उत्तर प्रदेश के वाराणसी में चुनाव के दौरान सामने आएंगी। वहां जबर्दस्त लड़ाई का माहौल दिखाई देगा। वहां सपा, बसपा, कांग्रेस और सभी भाजपा विरोधी हैं। यदि ये सभी एक हो जाएं और वाराणसी से अपने उम्मीदवार ही खड़े न करे, तो मोदी-केजरीवाल के बीच सीधी जंग होगी। इन हालात में नरेंद्र मोदी को अपनी पूरी शक्ति वाराणसी में ही केंद्रित करनी होगी। तब चुनाव समीकरण बदल सकते हैं। देखना यही है कि राजनीति का यह ऊंट किस करवट बैठता है?
डॉ. महेश परिमल
चुनाव रणभेरी बज चुकी है। आचार संहिता लागू हो गई है। ऐसे में गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मोदी के खिलाफ आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल ने ताल ठोंक दी है। गुजरात जाकर उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज भी कर दी है। सबकी निगाहें इसी बात पर टिकी हैं कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से यदि अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ते हैं, तो इसका पूरा लाभ केजरीवाल को ही होगा। क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। नरेंद्र मोदी यदि डरकर वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ते हैं, तो केजरीवाल कहेंगे कि वे मुझसे डर गए। यदि नरेंद्र मोदी वाराणसी से चुनाव जीत जाते हैं, तो केजरीवाल यही कहेंगे कि पॉवर और मनी की जीत हुई। अब से 16 मई तक देश के नागरिकों को अन्य किसी मनोरंजन की आवश्यकता नहीं होगी। सभी राजनैतिक समीकरण में उलझे हुए नजर आएंगे। इस दौरान लोग बॉलीवुड और आईपीएल को भी भूल जाएंगे, यह तय है।
इस बार लोगों का भरपूर मनोरंजन करने के लिए राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल आदि हम सबके सामने हैं। दिल्ली की जनता को नाराज कर केजरीवाल ने वाराणसी से नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा कर सबको चौंका दिया है। यदि नरेंद्र मोदी वाराणसी में केजरीवाल के खिलाफ चुनाव लड़ने की भूल करते हैं, तो केजरीवाल के लिए विन-विन की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। भाजपा को यदि दिल्ली में सत्ता पर काबिज होना है, तो हिंदी हाटलैंड माने जाने वाले उत्तर प्रदेश-बिहार से अधिक से अधिक सीटें जीतनी होंगी। शायद इसीलिए मोदी के सलाहकार उन्हें गुजरात के अलावा एक हिंदी प्रदेश से चुनाव लड़ने की सलाह दे रहे हैं। वाराणसी अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अलग से पहचाना जाता है। इसलिए नरेंद्र मोदी के लिए यह सीट सुरक्षित दिखाई दे रही है। पर अरविंद केजरीवाल ने यहां से चुनाव लड़ने की घोषणा कर विकट स्थिति पैदा कर दी है। यदि केजरीवाल का मुकाबला करना है, तो सबसे बड़ा शस्त्र उनकी उपेक्षा करना है। अब तक तो मोदी यह काम बड़ी चालाकी से करते दिखाई दे रहे हैं। अब यदि वास्तव में वाराणसी में दोनों की टक्कर होती है, तो निश्चित रूप से मोदी केजरीवाल की उपेक्षा नहीं कर पाएंगे। केजरीवाल चुनाव जीते या हारें, नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़कर वे अपना कद ऊंचा तो कर ही लेंगे। आखिर प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के सामने चुनाव लड़ रहे हैं। उन्हें केवल इसी का लाभ मिलेगा। इसका लाभ उन्होंने अभी से ही लेना शुरू भी कर दिया है। अब गेंद मोदी के पाले में है। यदि मोदी वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ते, तो केजरीवाल कहेंगे कि वे मुझसे डर गए। यदि मोदी अपने निर्णय पर अडिग रहे और अपनी तमाम शक्ति चुनाव जीतने में लगा भी देते हैं, तो पूरे देश में वे अपना प्रचार ठीक से नहीं कर पाएंगे। पार्टी को उनका पूरा लाभ नहीं मिलेगा। यदि केजरीवाल जीत जाते हैं, तो वे जाइंट किलर बन जाएंगे। यदि मोदी बहुत ही कम अंतर से जीतते हैं, तो इसे केजरीवाल की नैतिक जीत बताया जाएगा। यदि भारी बहुमत से जीतते हैं, तो केजरीवाल को यह कहने का मौका मिल जाएगा कि पॉवर और मसल पॉवर की जीत हुई है।
इस चुनावी जंग में एक खिलाड़ी ऐसा है, जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। दूसरा खिलाड़ी ऐसा है, जो यदि जीतता है या हारता है, तो उसे बहुत कुछ खोना पड़ सकता है। जो यह समझते हैं कि केजरीवाल राजनीति के नए खिलाड़ी हैं, उसे गंभीरता से न लिया जाए, तो यह उनकी भूल होगी। यही भूल दिल्ली के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-भाजपा ने की थी। जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था। राजनीति के कई ऐसे खिलाड़ी रहे हैं, जो बरसों से राजनीति की बाजी खेल रहे हैं, पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाए, लेकिन केजरीवाल ने यह कर दिखाया। उन्होंने यह चमत्कार एक वर्ष में ही कर दिखाया। दिल्ली में शीला दीक्षित को हराना बहुत ही मुश्किल था, पर वे हार गई। उन्हें भी पराजय का स्वाद चखना पड़ा। कांग्रेस की व्यूह रचना अब नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी के बदले अरविंद केजरीवाल का इस्तेमाल कर रही है। केजरीवाल की कांग्रेस के साथ शायद कुछ गोपनीय सौदेबाजी हुई है, इसलिए आम आदमी पार्टी अब कांग्रेस की बी टीम की भूमिका निभा रही है। आम आदमी पार्टी की रचना ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के लिए हुई है। दिल्ली के चुनाव में उनका मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार ही था। जिसका उन्हें व्यापक समर्थन मिला। इसी की बदौलत उन्हें 28 सीटें मिल भी गईं। दिल्ली के चुनाव का परिणाम आया, तब तक केजरीवाल के लिए कांग्रेस-भाजपा दोनों ही उसके कट्टर दुश्मन थे, पर उसके बाद हालात बदले और आप ने कांग्रेस के सहारे सरकार बना ली। 49 दिनों तक मुख्यमंत्री रहकर केजरीवाल लगातार झूठ पर झूठ बोलकर अपने मतदाताओं से दूर होते गए। कुछ ही दिन पहले उन्होंने कहा था कि उनके दुश्मन नम्बर वन भाजपा(नरेंद्र मोदी) हैं। उनका मानना है कि आज देश में भ्रष्टाचार से भी अधिक गंभीर मुद्दा जातिवाद है। अब वे जातिवाद की लाठी से भाजपा को फटकारने में लगे हैं। उनकी इस कार्यशैली में कांग्रेस का हाथ है।
आज की तारीख में अरविंद केजरीवाल सबसे बड़े तमाशेबाज हैं। पहले उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया। तमाशा बने और बनाया भी। उनके इस तमाशे से नागरिकों को काफी पीड़ा हुई। इसलिए अब उन्होंने अपने सुर बदल दिए। तमाशे पर तमाशे करते रहे। कभी सड़क पर तो कभी विधानसभा में। अंतत: उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। जिस जनलोकपाल विधेयक को लेकर उन्होंने अपनी लड़ाई शुरू की, उसी बिल ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटने के लिए विवश किया। देश के तमाम नेताओं पर कीचड़ उछालकर उन्होंने अपनी पार्टी को पूरी तरह से बेदाग बताया। यही उनकी भूल सामने आई। टीवी पर लगातार चमकने की कला उन्हें खूब आती है। पर यही कला उन्हें ले डूबी। जिस तरह से तमाम चैनलों ने उन्हें हाथो-हाथ लिया, उन्हीं चैनलों से वे एकदम ही छिटक गए। ये सारी बातें उत्तर प्रदेश के वाराणसी में चुनाव के दौरान सामने आएंगी। वहां जबर्दस्त लड़ाई का माहौल दिखाई देगा। वहां सपा, बसपा, कांग्रेस और सभी भाजपा विरोधी हैं। यदि ये सभी एक हो जाएं और वाराणसी से अपने उम्मीदवार ही खड़े न करे, तो मोदी-केजरीवाल के बीच सीधी जंग होगी। इन हालात में नरेंद्र मोदी को अपनी पूरी शक्ति वाराणसी में ही केंद्रित करनी होगी। तब चुनाव समीकरण बदल सकते हैं। देखना यही है कि राजनीति का यह ऊंट किस करवट बैठता है?
डॉ. महेश परिमल
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