शनिवार, 29 सितंबर 2012

दबाव बढ़ाने की राजनीति

डॉ. महेश परिमल
अजित का इस्तीफा स्वीकार होने के बाद काग्रेस-राकापा का असली द्वंद्व शुरू हो गया हैत्र अब अजित पवार विपक्ष और काग्रेस दोनों पर निशाना साधने के लिए स्वतंत्र होंगे। शरद पवार ने साफ कर दिया है कि अजित के इस्तीफे के बाद उपमुख्यमंत्री का पद किसी को नहीं दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में अजित स्वयं ही रिमोट कंट्रोल से राकापा कोटे के मंत्रियों को निर्देश देने के लिए स्वतंत्र होंगे। साथ ही पूरे राज्य में घूम-घूमकर भविष्य में होनेवाले राज्य विधानसभा और लोकसभा चुनावों की तैयारी करेंगे। ताकि अगले विधानसभा चुनाव के बाद वह सीधे मुख्यमंत्री पद की दावेदारी मजबूत कर सकें। पिछले वर्ष हुए राज्य के स्थानीय निकाय चुनावों में करीब-करीब हर स्तर पर काग्रेस के मुकाबले राकापा बीस रही है। अजीत पवार इसी मजबूती को विधानसभा चुनाव में भुनाकर मुख्यमंत्री पद हासिल करना चाहते हैं। इस बीच, राकापा के प्रदेश अध्यक्ष मधुकरराव पिचड़ ने पार्टी के कार्यकर्ताओं से कहा कि वे अजीत के साथ एकजुटता दिखाने के लिए प्रदर्शनों तथा बड़े पैमाने पर इस्तीफे से दूर रहे।
लगता है भ्रष्टाचार प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को चैन से बठने नहीं देगा। टू जी स्पेक्ट्रम कांड से उबरे, तो कोयला घोटाले ने जकड़ लिया। बड़ी मुश्किल से उससे छुटकारा मिला, तो अब महाराष्ट्र की राजनीति डांवाडोल होने लगी है। इसमें भी कृषि मंत्री शरद पवार के भतीजे अजीत पवार द्वारा 72 हजार करोड़ का सिंचाई घोटाला किए जाने की खबर है। अब तक महाराष्ट्र सरकार में अपनी सहभागिता दिखाने वाले शरद पवार अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करते रहे। पर भतीजे अजीत पवार ने इस्तीफा देकर उनके सारे किए कराए पर पानी फेर दिया है। पवार के इस्तीफ से कांग्रेस-एनसीपी की युति सरकार के सामने संकट आ खड़ा हुआ है। इससे कांग्रेस की जो हालत होनी है, सो होगी ही, पर एनसीपी में जो भीतरी लड़ाई चल रही थी, वह बाहर आ गई है। आश्चर्य की बात यह है कि पवार ने अपना इस्तीफा मुख्यमंत्री को भेजा है, पर एनसीपी के विधायकों ने अपना इस्तीफा पार्टी अध्यक्ष अजीत पवार को ही दिया है। यहां शरद पवार के खिलाफ खुली लड़ाई का शंखनाद हो चुका है। अब पवार के खिलाफ पवार और एनसीपी के खिलाफ कांग्रेस खड़ी हो गई है।
एक समय ऐसा भी था, जब शरद पवार ने भतीजे अजीत पवार की ऊंगली पकड़कर राजनीति के गलियारे में लाने की कोशिश की थी। शरद पवार की ही कृपा से अजित को उप मु यमंत्री की कुर्सी मिली थी। शरद पवार जब दिल्ली की राजनीति में उलझ गए, उस दौरान अजित पवार ने महाराष्ट्र की राजनीति में अपना महत्वपूर्ण किंतु मजबूत स्थान बना लिया। जब सिंचाई घोटाला सामने आया, तब शरद पवार ने अपनी बेटी सुप्रिया को मंत्रीपद दिलाने की तैयारी पूरी कर ली थी। वे चाहते थे कि उनकी बेटी के नेतृत्व में ही सन 2014 का चुनाव लड़ा जाए। वे अपनी बेटी को महराष्ट्र की मु यमंत्री के रूप में देखना चाहते थे। पर अजीत पवार ने जो चाल चली, उससे शरद पवार का समीकरण बिगड़ गया। अजित ने सही समय पर सही चोट की, ताकि चाचा कुछ न कर पाएँ। अब हालत यह है कि वे पार्टी को बचाने में लगे हैं। पर पार्टी पर भतीजे का वर्चस्व कायम है।
अजीत पवार पर यह आरोप है कि उन्होंने सिंचाई मंत्री रहने के दौरान करीब 20 हजार करोड़ के सिंचाई ठेके अपने ही चहेतों को दिए। इस काम में नियमों को ताक पर रख दिया गया। सरकार द्वारा तैयार की गई सिंचाई योजनाओं का लाभ आज तक प्रदेश के किसानों को नहीं मिल पाया है। यही महाराष्ट्र है, जहाँ अभी तक सबसे अधिक किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। अजीत के बाद सिंचाई मंत्री का पद एनसीपी के ही सुनील तटकरे को दिया गया, इन पर भी भ्रष्टाचार के अनेक आरोप हैं। इस तरह से सिंचाई के नाम पर सरकार के 72 हजार करोड़ रुपए नेताओं और मंत्रियों की जेबों में चले गए। कांग्रेसी मु यमंत्री पृथ्वीराज चौहान ने एनसीपी पर लगाम कसने के लिए ही इस घोटाले पर श्वेतपत्र लाने की घोषणा की थी। लेकिन अजीत पवार सवा सेर निकले, उन्होंने चौहान को पाठ पढ़ाने के लिए ही विधायकों के सामूहिक इस्तीफे का नाटक रचा। इस समय महाराष्ट्र विधानसीा की कुल 288 सीटों में कांग्रेस 82 और एनसीपी 62 सीटों पर अपना कब्जा जमाए हुए हैं। इन दोनों को मिलाकार कुल संख्या 144 होती है। इसके बाद कई छोटे-छोटे दलों ने भी सरकार को अपना समर्थन दे रखा है। यदि एनसीपी के विधायक सरकार को अपना समर्थन देना बंद कर दें, तो चौहान सरकार का गिरना तय है। अपना इस्तीफा देकर अजीत पवार सरकार को गिराना नहीं चाहते, बल्कि चौहान के कांधे पर बंदूक रखकर वे शरद पवार को सबक सिखाना चाहते हैं। इस तरह से वे शरद पवार पर दबाव बढ़ाना चाहते हैं। ताकि जो वे चाहते हैं, उसे पवार कर दें। वैसे चौहान पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। उन पर लगे आरोपों की जांच बहुत ही धीमी गति से चल रही है। ये जांच तेजी से हो, इसीलिए शरद पवार के कहने से ही अजित पवार ने इस्तीफा दिया था, पर अजित पवार ने इस्तीफे के बाद जो चाल चली, उसे शरद पवार हतप्रभ रह गए हैं।
अजित पवार उप मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ एनसीपी के अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने अपना इस्तीफा मुख्यमंत्री को भेज दिया। इसके बाद उन्होंने अपने बंगले पर एनसीपी के विधायकों की बैठक बुलाई। इस बैठक में एनसीपी के सभी विधायकों ने पार्टी की महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष मधुकर पिचड़ को अपना इस्तीफा भेज दिया। यह स्क्रिप्ट शरद पवार ने नहीं लिखी थी, बल्कि इसे लिखने वाले थे अजित पवार। शरद पवार उस समय कोलकाता में थे। उन्हें जब विधायकों के इस्तीफे की जानकारी मिली, तो उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ। इस पर लीपापोती करते हुए उन्होंने यही कहा कि सभी विधायक अपना इस्तीफा वापस ले लेंगे। देखना यह है कि शरद पवार के इस फैसले को विधायक मानते हैं या नहीं? वैसे महाराष्ट्र एनसीपी के कई विधायक भी भ्रष्टाचार में गले तक डूबे हुए हैं। उनकी पहचान ही भ्रष्टाचारी के रूप में होने लगी है। सिंचाई मंत्री सुनील तटकर के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच भी चल रही है। एनसीपी के ही दूसरे मंत्री छगन भुजबल के खिलाफ भी महाराष्ट्र भवन में हुए भ्रष्टाचार की जांच चल रही है। परिवहन विभाग के मंत्री गुलाब राव देवकर तो जलगांव हाउसिंग घोटाले में जेल की सजा भी भोग चुके हैं।
एक बात सबको चौंका रही है कि एनसीपी के विधायकों ने अपने इस्तीफे शरद पवार को क्यों नहीं सौंपे? पार्टी की इकाई के अध्यक्ष को क्यों सौंपे? शरद पवार की योजना थी कि अजित पवार के इस्तीफे से वे केंद्र सरकार पर दबाव बनाएंगे कि पृथ्वीराज चौहान को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया जाए। इसके पहले भी उन्होंने दिल्ली में जो बलवा किया था, उस समय भी उनकी यही मांग थी, पर उनकी मांग को नहीं माना गया था। यदि चाचा-भतीजा मिल जाएं, तो वे दोनों पृथ्वीराज चौहान को परेशान कर सकते हैं। महाराष्ट्र के इस महाभारत में देखना यह है कि शरद पवार की नेतागिरी कसौटी पर कसी जाती है या नहीं? शरद पवार की नजरें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। इसके लिए वे समय-समय पर अपने होने का अहसास केंद्र सरकार को कराते रहते हैं। पर केंद्र उनकी एक नहीं सुनता। कांग्रेस के लिए पवार कभी विश्वसनीय नहीं रहे। अपने सर पर कई मंडलों, बोर्डो, समितियों का ताज रखने वाले शरद पवार एक तरफ केंद्र में स्वयं को बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री की जी हुजूरी में लगे रहते हैं, तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री बनने की कसक को अपने भीतर महसूस करते रहते हैँ। उनकी छवि एक बगावती के रूप में है। इंदिरा गांधी ने जब 1977 में बुरी तरह चुनाव हार गईं थी, तब उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया था। 1986 में वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गए। इसके बाद 1999 में उन्होंने एनसीपी नाम से नई पार्टी बना ली। कांग्रेस छोड़ने का मुख्य कारण उन्होंने सोनिया गांधी के विदेशी मूल होना माना था। उन्हें आशा थी कि त्रिशंकु लोकसभा होने की स्थिति में वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में उभरकर आएंगे। पर यहां भी उनका समीकरण बिगड़ गया। कांग्रेस के दिवंगत नेता अजरुन सिंह ने तो स्पष्ट कह दिया था कि शरद पवार किसी भी रूप में कांग्रेस के विश्वसनीय नहीं हो सकते। वे किसी भी समय पार्टी के साथ धोखा कर सकते हैं। जब उन्होंने एनसीपी का गठन किया, तब भी उन्होंने कहा था कि यह उनकी आखिरी हरकत नहीं होगी। वे किसी न किसी तरह से कांग्रेस के साथ सौदेबाजी करेंगे ही। अजरुन सिंह ने अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र किया है।
स्वार्थ की राजनीति क्या स्वरूप दिखाती है, यह जानना बाकी है, क्योंकि न तो चाचा विश्वसनीय हैं और न ही भतीजा। राजनीति में कोई किसी का नहीं होता। यह सभी जानते हैं। आज कांग्रेस को शरद पवार भले ही अपने लग रहे हों, पर सच तो काफी पहले ही अजरुन सिंह ने बता दिया था। यह तो कांग्रेस की विवशता है कि शरद पवार को अपने साथ सहयोगी दलों के नेता के रूप में रखे हुए है। सहयोग के नाम पर उधर मुलायम सिंह यादव अपने समर्थन की कीमत वसूल रहे हैं। अब शरद पवार भी आगे आ जाएंगे। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण ने अभी तक उपमुख्यमंत्री अजित पवार का इस्तीफा स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने काग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाकर सभी को चुप रहने के निर्देश जरूर दिए, ताकि विवाद कोई नया रूप न ले। मुख्यमंत्री ने अपने पार्टी विधायकों को संकेत दिए कि अजीत पवार के फैसले पर दोनों दलों के शीर्ष नेता जो निर्णय करेंगे, वह उसी का पालन करेंगे।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

सभी जकड़े हैं वॉल मार्ट के मायाजाल में

डॉ. महेश परिमल
वाल मार्ट की तुलना यदि किसी के साथ हो सकती है, तो वह है सर्वशक्तिमान ईश्वर। ये हजार हाथवाला है, हम सबसे धनी है और अपनी मर्जी के मुताबिक सबको नचाता है। इस देश की 120 करोड़ की जनता यदि यह चाहती है कि वाल मार्ट का प्रवेश हमारे देश में न हो, फिर भी ये हमारे देश में आएगी ही। भारतीय संसद में 542 सदस्य हैं, इनमें से अधिकांश नहीं चाहते कि वाल मार्ट भारत आए, फिर भी ये हमारे देश में आएगी ही। क्योंकि अमेरिका की सभी मार्ट्स में ताले लग गए हैं। आखिर उसके कर्मचारी कहां जाएंगे, इसलिए भारत आकर ही वे अपना रोजगार करेंगी। वैसे भी भारतीय संविधान में यह कहीं नहीं लिखा है कि विदेशी कंपनियां हमारे देश में व्यापार करने के लिए उन्हें संसद की मंजूरी लेना आवश्यक है। हमारे देश में केबिनेट को कई अधिकार दिए गए हैं, यह सभी जानते हैं किभारतीय केबिनेट की कठपुतली बन गई है।
समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव देश में रिटेल क्षेत्र में पूंजी निवेश के घोर विरोधी रहे हैं, इसके बाद भी उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज के खिलाफ वॉल मार्ट को भारत में लाने वाली यूपीए सरकार का समर्थन देकर उसे उबार लिया। इसे वॉल मार्ट का मायाजाल न कहें, तो और क्या कहा जाए? एफडीआई, रसोई गैस और डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी को लेकर ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, उनके मंत्रियों ने इस्तीफा भी दे दिया। उनके तेवर यदि सच्चे होते, तो इसी मुद्दे पर भारत बंद में उन्हें शामिल होना था, पर वे नहीं हुई, इसका क्या आशय निकाला जाए? प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी खाली सीट के लिए जो चुनाव होने वाले हैं, उसमें अपना प्रत्याशी खड़े न कर वे क्या बताना चाहती हैं, इसे कौन समझेगा? आखिर वह कौन सी नीति है, जिसके तहत वे ऐसा कर रही हैं। शिवसेना विपक्ष में है, उसके बाद भी वह भारत बंद में शामिल नहीं हुई, आखिर क्यों? एक तरफ मुलायम भारत बंद में शामिल होते हैं, तो दूसरी तरफ वे सरकार को समर्थन देकर उसे जीवनदान भी देते हैं।
यह किसी ने सोचा कि भारत बंद के दौरान कहीं भी किसी भी तरह की कोई हिंसक घटना नहीं हुई। यह बंद पूरी तरह से शांतिपूर्ण रहा। न कहीं लाठी चार्ज, न कही गोलीबार, न कहीं अश्रुगैस, न कहीं हिंसक प्रदर्शन। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? क्या इसे कांग्रेस-भाजपा का फिक्सिंग मैच कहा जाए? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी 2 सितम्बर को अमेरिका गई, दस सितम्बर को स्वदेश लौटते ही 14 सितम्बर को केंद्र की केबिनेट मिल्ट ब्रांड  रिटेल में 51 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी दे दी। सोनिया गांधी जब अमेरिका गई, उसके ठीक एक सप्ताह पहले भाजपाध्यक्ष नितीन गडकरी दो सप्ताह की कनाडा होकर आ गए। उनके भारत आने के एक सप्ताह बाद ही एफडीआई पर निर्णय ले लिया गया। इन सारी कड़ियों से लगता है कि वॉल मार्ट की नजरें बहुत दूर तक जाती हैं। किसी को एक देश में साधा जाता है, तो किसी को दूसरे देश में। इसके मायाजाल में भारत सरकार बुरी तरह से फंस चुकी है।
केंद्र में जब एनडीए का शासन था, तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने 14 मई 2002 को भारत सरकार के केबिनेट सेक्रेटरी एम.एस. श्रीनिवास से देश में मिल्टब्रांड रिटेल में 50 से 100 प्रतिशत एफडीआई की हिमायत करने वाली रिपोर्ट तैयार की थी। अब भाजपा किस मुंह से एफडीआई में विदेश पूंजी निवेश का विरोध कर रही है? इसे कौन समझा सकता है? हमारे ही देश में एक राज्य के लोगोंे को दूसरे राज्य में रोजगार न करने का विरोध करने वाले बाल ठाकरे आखिर एफडीआई के इतने लचीले कैसे हो गए? कहाँ तो उन्हें हमारे ही देश के बिहार प्रांत के लोग फूटी आंख नहीं सुहाते, कहां तो विदेशी कंपनी उन्हें अच्छी लगने लगी? इसे दोगलापन न कहा जाए, तो फिर क्या कहा जाए? ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का बयान इस दिशा में कुछ और ही स्थिति को दर्शाता है। वे कहते हैं कि इस संबंध में उन्होंने अभी विचार नहीं किया है। जल्द ही वे इस दिशा में विचार कर अपनी स्थिति स्पष्ट करेंगे। आखिर क्या सचमुच यह इतना बड़ा मामला है कि इस पर प्रदीर्घ विचार विमर्श किया जाए? कोई इस दिशा में नहीं सोच रहा है कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने संसद में यह वचन दिया था कि एफडीआई के संबंध में कोई भी निर्णय राजनैतिक दलों को विश्वास में लिए बिना नहीं लिया जाएगा। आखिर यह वचन भंग करने की नौबत क्यों आई? इस पर कौन बोलेगा? वाल मार्ट ने भारती इंटरप्राइजेज की भागीदारी में 2009 में अमृतसर में पहली होलसेल की दुकान खोली थी, आज इस कंपनी की देश भर में 17 दुकाने हैं। इसमें से कई भाजपाशासित प्रदेशों में भी है। आखिर भाजपा ने इन दुकानों को अपने राज्य में खोलने की अनुमति क्यों दी? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने यूपीए 2 के तीन वर्ष के शासनकाल में एक बार टीवी पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए रिटेल में एफडीआई के मुद्दे पर अपना बयान देना पड़ा। क्या देश पर कोई आफत आ गई थी, या फिर देश सचमुच गंभीर स्थिति से गुजर रहा था। आखिर राष्ट्र के नाम संदेश देने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी? 14 सितम्बर के बाद ऐसा लग रहा था, मानो अब सरकार चली जाएगी। सरकार का पतन तय है। एक सप्ताह में ही देश का वातावरण एकदम से पलट गया। अब यह चर्चा गौण हो गई, आखिर इसका क्या कयास लगाया जाए?
देश में अभी बहुत से ऐसे प्रश्न है, जो वॉल मार्ट से बाबस्ता हैं। पर हर कोई इस मामले में खामोश है। जब संसद के अधिकांश सदस्य इसके खिलाफ हैं, तो फिर यह कंपनी भारत कैसे आ सकती है? वित्त मंत्री के वचन का क्या हुआ? राज्य में दूसरे प्रांत के लोग स्वीकार्य नहीं, पर विदेशी कंपनियां स्वीकार्य? ऐसे कैसे हो सकता है? जब एनडीए ने एफडीआई को लाने की योजना बनाई तो फिर कांग्रेस ने इसका विरोध क्यों किया था? आज भाजपा इसका विरोध क्यों कर रही है? ये सब कहीं न कहीं वॉलमार्ट के प्रभाव से प्रभावित हैं? इसीलिए ऐसा हो रहा है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 22 सितंबर 2012

बंद होना चाहिए बंद का नाटक

डॉ. महेश परिमल
आपने कभी सुना है कि आज जापान बंद, आज अमेरिका बंद या फिर आज चीन बंद। लेकिन वर्ष में दो तीन बार तो आप यह सुन ही लेते हैं कि आज भारत बंद। आखिर इस बंद से लाभ किसको होता है। जाहिर है राजनीतिज्ञों को और इसका खामियाजा भुगतता है आम आदमी। इस बंद से आम आदमी को कभी लाभ नहीं हुआ। हमारे देश में बंद को अपने सशस्त्र शस्त्र की तरह राजनीति में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इससे वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, बल्कि अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए सामने वाले पर दबाव भी बनाते हैं। इसलिए अब धीरे-धीरे बंद का यह शस्त्र कमजोर होता जा रहा है। लेकिन हमारे देश के नेता इसका फायदा उठाना जानते हैं। समय समय पर वे ऐसा करके अपनी ताकत और एकजुटता का प्रदर्शन करते रहते हैं।
हमारे देश में प्रजांतत्र है, जो लोगों को यह आजादी देता है कि वे अपनी बात को सबके सामने लाने का अधिकार रखते हैं। पर अभी तक कितने बंद ऐसे हुए हैं, जिसमें लोगों ने स्वयं आगे बढ़कर हिस्सा लिया हो। हमारे देश में बंद का आयोजन राजनैतिक पार्टियों द्वारा किया जाता है। जो एक तरह से थोपा हुआ ही होता है। गुरुवार को जब देश बंद होने का उत्सव मना रहा था, तक कई लोगों को यह पता ही नहीं था कि यह बंद क्यों मनाया जा रहा है? लोग यह बताने लगे हैं कि इस बंद से अभी तक कितना नुकसान हुआ है। आखिर इस नुकसान की भरपाई आम आदमी से ही होगी। बंद से होने वाले नुकसान की चिंता सबको है, पर लोगों को कितना नुकसान होता है, यह जानने के लिए कोई कोशिश नहीं करता। जो रोज कमाते हैं, उनके लिए बंद एक अभिशाप ही है। उस दिन बच्चे भूखे सोते हैं। अभी तक कितने बंद हुए,उसके नुकसान के आंकड़े सब को पता है, पर उस बंद से कितने मासूम भूखे सोए, इसके आंकड़े किसी के पास नहीं हैं। दवाई की दुकान बंद होने से कितने मरीजों को समय पर दवा नहीं मिली और वे काल-कवलित हो गए, आखिर इसका जिम्मेदार कौन होगा? ट्रेनें रोक दी गई, इससे न जाने कितने युवा साक्षात्कार के लिए नहीं पहुंच पाए। आखिर इसकी जिम्मेदारी भी किसी को लेनी ही चाहिए! दवा के लिए दर-दर भटकने वालों की वेदना को किसने समझने की कोशिश की है?
विरोध जताने के लिए बंद एक अमोध शस्त्र है। इसमें कोई संदेह नहीं है। शर्त केवल इतनी है कि  बंद में केवल राजनैतिक दल ही नहीं, बल्कि सभी लोगों को शामिल होना चाहिए। बंद का ऐलान भाजपा ने किया था, इसलिए भाजपाशासित राज्यों में इसका असर दिखाई दिया। मध्यप्रदेश बंद से अलग रहा। वहां अब 24 को बंद का आयोजन किया गया है। अब बंद के लिए लोग सड़क पर आते हैं। इस दौरान उनके हाथ में पत्थर होना आवश्यक है। शायद ये लोग पहले हाथ जोड़कर यह विनती करते होंगे, भाई साब अपनी दुकान बंद कर लो। यदि भाई साब ने ऐसा नहीं किया, तो उन्हीं हाथों में न जाने कहाँ से पत्थर आ जाते हैं। इस बार भारत बंद को शिवसेना ने अपना समर्थन नहीं दिया। क्योंकि महराष्ट्र में इस समय गणोशोत्सव चल रहा है। इस तरह से शिवसेना ने यह बता दिया है कि यदि वह न चाहे, तो बंद हो ही नहीं सकता। कई दलों ने इस बंद में कभी हाँ और कभी ना की स्थिति में रहे। लोगों को आता देख दुकानें बंद हो गई। उनके जाते ही दुकानें खुल गई। इस तरह से बंद और खुले का खेल चलता रहा। कई स्थानों पर कांग्रेस को अपना समर्थन देने वाली समाजवादी पार्टी ने बंद में खुलकर भाग लिया। तमिलनाड़ु में डीएमके यूपीए सरकार के साथ है, इसके बाद भी उसने बंद में खुलकर भाग लिया। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद डीएमके गठबंधन सरकार से नाराज चल रही है। अब जब ममता की छाँव केंद्र सरकार पर नहीं रही, तो सरकार फिर डीएमके को मनाना चाहेगी। इसे करुणिानिधि अच्छी तरह से समझ गए हैं। बंद का साथ देकर डीएमके ने यह जता दिया है कि हमें अब तक बहुत ही अनदेखा किया गया है, अब हमें नहीं साधा गया, तो हम बिफर जाएंगे। इस तरह से हर दल अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए बंद का सहारा लेता है, आम आदमी को निशाना बनाता है। बंद से आम आदमी की पीड़ा को समझने वाला कोई नहीं है।
अभी हम सबने देखा कि देश में हो रहे तमाम घोटालों के कारण इस बार संसद का सत्र पूरी तरह से ठप्प रहा। पहले टू जी स्पेक्ट्रम, फिर राष्ट्रमंडल खेल, कोयला घोटाला, डीजल के भाव में वृधि, एफडीआई को मंजूरी, रसोई गैस की राशनिंग, ममता का सरकार से समर्थन वापस लेना आदि के बीच अब कोयला घोटाले की कोई बात ही नहीं करता। एक घोटाले के बाद होने वाला दूसरा घोटाला पहले घोटाले की याद भुला देता है। ऐसे कई घोटाले हो गए, जनता सब भूलती चली गई। तभी तो हमारे गृहमंत्री भी यही कहते हैं कि जनता कोयला घोटाले को भी भूल जाएगी। इससे यह न समझा जाए कि लोगों की याददाश्त कमजोर है। वास्तव में लोगों को अपनी ही इतनी अधिक चिंता है कि उस चिंता के आगे कोई चिंता टिकती ही नहीं। लोगोंे के पास इतना समय ही नहीं है कि वह घोटाले को याद रखे। राजनेताओं को क्या है, उन्हें तो अपनी खिचड़ी पकानी है। किसी न किसी तरह से। वे तो यह देखते हैं कि इस बंद से हमारे वोट कितने बढ़ेंगे? जब तक लोकसभा चुनाव न हो जाएं, तब तक ऐसे नाटक चलते ही रहेंगे। यह कहने की हिम्मत किसी दल में नहीं है जो यह कह सके कि हम बंद का ऐलान करके किसी को परेशान नहीं करेंगे। आखिर कब तक चलता रहेगा यह बंद का नाटक। एक आम आदमी को नजर से इस बंद को देखो, तो साफ हो जाएगा कि बंद ने रोजी-रोटी छीन ली। बच्च बिना दवा के मर गया। रात में गरीबों के बच्चे भूखे सोए। उधर बंद के सफल होने पर देर रात तक विभिन्न दलों के कार्यकत्र्ता खुशियां मनाते रहे। जहां बहुत सारा भोजना बेकार गया। क्या अब भी आप यह सोचते हैं कि बंद का आयोजन होना चाहिए?
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

विश्वसनीय नहीं हैं कांग्रेस के दोनों खेवनहार

डॉ. महेश परिमल
ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से अपना नाता तोड़ लिया। इससे केंद्र सरकार को अब समझ जाना चाहिए कि कठोरता से बात नहीं बनने वाली। अब उसे यह भी समझना होगा कि ममता द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बाद सपा-बसपा ही उनके खेवनहार हैं। ममता से भले ही नाता टूट जाए, पर अभी जो खेवनहार हैं, वे किसी से कम नहीं हैं। वे अपनी बात मनवाना अच्छी तरह से जानते हैं। यह भी सच है कि दोनों ने कांग्रेस के कठिन समय में उनका साथ दिया है। पर इसकी भारी कीमत भी वसूली है। आज वही खेवनहार अपनी भारी कीमत तय कर रहे हैं। इसलिए अब कांग्रेस को और संभलने की आवश्यकता है। साथ ही सपा-बसपा से सचेत रहना भी उतना ही आवश्यक है।
ममता की दहाड़ अभी भी गूंज रही है। उनका केंद्र सरकार से अपना नाता तोड़ लिया है। अब मंत्रिमंडल का पुनर्गठन होगा। जिसमें यदि सपा के सांसद रहेंगे, तो निश्चित रूप से वे न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में अपनी स्थिति को मजबूत करने में लगाएंगे। मंत्री बनने की ताकत और उसके बाद मंत्रिपद पर बने रहने के लिए वे येनकेन प्रकारेण अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कदापि पीछे नहीं रहेंगे। रही बात ममता की, इस बार वे नहीं मानने वाली। उनका विरोध पहले भी जिन मुद्दों पर था, अभी भी वे उसी पर कायम हैं। हालांकि कई बार उसे ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है। पर वे अपनी आक्रामकता से बाज नहीं आएंगी। अपने तीखे तेवरों से उसने अपनी पहचान बना ली है। समय और अवसर के अनुसार राजनैतिक दाँव-पेंच आजमाने वाली ममता बनर्जी अपनी भावनाओं को ही राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। इसके लिए कई बार वे काफी परेशानियों में भी उलझी हैं। बंगाली बाघिन के रूप में पूरे पश्चिम बंगाल के रूप में उनकी पहचान है। आज ममता के पास 19 सांसद हैं, पर एक समय ऐसा भी था, जब उनका महत्व कोई खास नहीं था। 1989 में पश्चिम बंगाल कांग्रेस के एक प्रादेशिक पद के रूप मे ंउन्होंने मुर्शिदाबाद के एक कलेक्टर द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के खिलाफ उसका घेराव किया था। उसे पूरे 14 घंटे तक बंधक बनाकर रास्ते पर ही रोक रखा था। आखिर में वामपंथी सरकार के मंत्री घटनास्थल पर पहुंचे और जाँच आयोग की घोषणा की, तब जाकर कलेक्टर को छोड़ा गया। उसके तेवर ही उसकी पहचान है और वह अपनी पहचान खोना नहीं चाहती।
जिद ममता बनर्जी का ऐसा ब्रह्मास्त्र है, जो उनके विरोधियों को भी चारों खाने चित कर सकता है। इस ब्रह्मास्त्र से वे कई बार स्वयं भी घायल हुई हैं। बात 1994 की है, जब वे केंद्र सरकार में मंत्री थीं। तब नदिया जिले की किसी महिला पर बलात्कार हो गया। इसमें वामपंथी दल की किसी हस्ती शामिल थी। इसलिए पुलिस ने उनकी एफआईआर दर्ज नहीं की। ममता ने स्वयं ही उक्त पीड़ित महिला को पश्चिम बंगाल सरकार के सचिवालय यानी राइटर्स बिल्डिंग पहुंच गई। इस समय तक तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु उनके तेवर से वाकिफ नहीं थे, इसलिए उनसे मिलने की भी जहमत उन्होंने नहीं उठाई। इससे नाराज होकर ममता राइटर्स बिल्डिंग में ही धरने पर बैठ गइर्ं। पूरे 7 घंटे के धरने के बाद देर रात पुलिस ने उन्हें जबर्दस्ती लॉकअप में बंद कर दिया। तब ममता ने यह संकल्प लिया कि अब वे कभी जनता की अनुमति के बिना इस राइटर्स बिल्डिंग में अपने पांव तक नहीं रखेंगी। इस संकल्प को पूरा करने में उसे पूरे 18 साल लगे।
राष्ट्रपति चुनाव के समय भी ममता-मुलायम ने बैठक कर कांग्रेस को झटका दिया था। मुलायम तो तीसरे मोर्चे की तैयारी में जुट भी गए थे। पर कांग्रेस के साथ कुछ विवशताओं के चलते दोनों फिर अलग हो गए। लेकिन मुलायम भी प्रधानमंत्री बनने का सपना पालते हुए येनकेन अपनी उपस्थिति का आभास दिलाते रहते हैं। लोग तो यहां तक कहते हैं कि मुलायम की जिद होती ही है मान जाने के लिए। मुलायम पहले तो जिद करते हैं, फिर उसका प्रचार-प्रसार करते हैं, फिर वे कुछ शर्तो के साथ मान भी जाते हैं। उनकी मान-मनौव्वल में क्या होता है, यह कांग्रेस के अलावा किसी को पता नहीं है। लेकिन वे मान जाते हैं, इतना तय है। उधर मायावती अपनी अकूत संपत्ति को लेकर उलझन में है। जब तक वे कांग्रेस को समर्थन दे रही हैं, तब तक उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी, यह एक अलिखित समझौता है, कांग्रेस-बसपा का। जिस दिन उसने भी ममता की तरह तेवर दिखाने शुरू किए, उसे भी रास्ता दिखा दिया जाएगा। इसलिए वह भी अपनी मजबूरियों के तहत कांग्रेस को अपना समर्थन दे रही हैं।
कांग्रेस इस मुगालते में है कि अभी कोई भी दल मध्यावधि चुनाव नहीं चाहता। इसलिए एफडीआई का विरोध नहीं होगा। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। अब तृणमूल भी प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांग रही है। मतलब साफ है कि मध्यावधि चुनाव से ममता को कोई गुरेज नहीं है। वह अपनी साख बचा लेंगी, इसका उन्हें पूरा भरोसा है। भाजपा भले ही प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग करे, पर वह भी मध्यावधि चुनाव नहीं चाहती।
20 सितम्बर को बंद का आह्वान विपक्षी दलों ने किया है। बंद का सफल होना ही विभिन्न दलों की ताकत को बताएगा। कांग्रेस कभी नहीं चाहेगी कि बंद सफल हो। पर हाल ही में हुई डीजल में मूल्य वृद्धि से सभी हलाकान हैं। इसलिए केवल इसी मुद्दे पर बंद सफल हो सकता है। वैसे भी महंगाइ अपनी चरमवस्था में है। लोग सरकार से खफा हैं।  देश की राजनैतिक स्थिति डांवाडोल है। कांग्रेसशासित राज्यों में तीन और गैस सिलेंडरों पर सबसिडी देने की घोषणा कांग्रेस ने कर दी है। इससे राज्यों पर भी ऐसा ही करने के लिए दबाव बढ़ जाएगा। केंद्र के इस पांसे से क्या होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। पर बंद को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के लिए यह एक विकट घड़ी है, इससे पूरी सदाशयता के साथ नम्र होकर ही निपटा जा सकता है। कठोरता काम नहीं आने वाली, क्योंकि खेवनहार विश्वसनीय नहीं हैं।
   डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 19 सितंबर 2012

उनकी आँखों में सपने से अधिक तनाव तैरते हैं......

आज युवाओं की जिंदगी स्पीड से चलती मोटरबाइक जैसी हो गई है। जिसमें केवल गति है। इस गति को बनाए रखने के लिए युवा कुछ भी करने को तैयार हैं। हर काम का शार्ट कट उन्हें पता है। ले ही बाद में उन्हं पछताना पड़े, पर सच तो यह है कि उनके पास अभी तो पछताने का भी वक्त नहीं है। हर काम को तेजी के साथ कर लेने की प्रवृत्ति उन्हें कहाँ ले जा रही है, इसका अंदाजा उन्हें भी नहीं है। प्रतिस्पर्धा का दौर बचपन से ही शुरू हो जाता है। प्ले ग्रुप में पढ़ते बालक को नए स्कूल में एडमिशन के लिए होने वाले इंटरव्यू की चिंता सताती है। जूनियर के.जी. में आते ही वह होमवर्क की चक्की पीसना शुरू कर देता है। कक्षाएँ बढ़ती जाती हैं और एकाम, कोचिंग, ट्यूशन का तनाव साथ-साथ दोगुनी गति से बढ़ता जाता है। विद्यार्थियों की आँखों में जितने सपने नहीं होते उससे कहीं अधिक तनाव के कभी न सुलझने वाले जाल होते हैं। इन तनावों के जाल में उलझा किशोर मन 12 वर्ष का होते ही कॉलेज और कॅरियर की चिंता करने लगता है। चिंता केवल पढ़ाई से जुड़ी हो, ऐसा ी नहीं है। पढ़ाई के अलावा ‘स्टेटस सि?बॉल’ के रूप में मोबाइल मुख्‍य भूमिका निभाता है। मोबाईल का कौन सा मॉडल खरीदना और उसमें टॉकटाइम रवाने के लिए पैसों की व्यवस्था किस प्रकार की जाए, ये चिंता भी आज के किशोर की मुख्य चिंताओं में से एक है। आज युवा मस्तिष्क में हर काम जल्द से जल्द पूरा करने का एक जुनून-सा छाया हुआ है। आज के युवा को डिग्री भी जल्दी चाहिए और आकर्षक वेतन वाली नौकरी ?ाी। यहाँ तक कि वह किसी के प्रेम में भी जल्दी गिर?तार होता है और विवाह बंधन में भी जल्दी ही बँधता है। आठवीं में पहुँचते न पहुँचते गर्लफेन्ड की तलाश शुरू हो जाती है। इस दौरान कई फ्रेंड बदलता है। कॉलेजं तक आते ही सीमाओं के पार की दुनिया में कदम रख देता है। कहीं सामाजिक मर्यादा का खयाल आता है, तो विवाह बंधन में बँध जाता है। आश्चर्य तो यह कि विवाह-बंधन से मुक्त भी जल्दी ही हो जाता है। जल्दबाजी का यह सिलसिला यही खत्म नहीं होता, जिंदगी ी जल्दी ही पूर्ण विराम पा जाती है। जल्दबाजी के दौर में युवा हर तरह का खतरा उठाने को तत्पर रहता है। इस खतरे का सीधा असर उससे जुड़े लोगों पर भी होता है, लेकिन उससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह तो अपनी मर्जी से जिंदगी जीता है और भरपूर जीता है। हाल ही की एक घटना है- दिल्ली में इंडिया गेट के नजदीक ही एक पेड़ से एक गाड़ी बुरी तरह से टकरा गई। जिसमें दो युवक-युवती की तो घटनास्थल पर ही मौत हो गई और दो युवक-युवती गंभीर रूप से घायल हो गए। गाड़ी की हालत देखकर ही अंदाजा लगाया जा सकता था कि टक्कर कितनी तेज गति से हुई होगी। चालक एवं सवार सभी 20-25 वर्ष के ही थे। यानी कि ‘फास्ट लाईफ’ जीने के क्रेजी युवाओं का अंत भी ‘फास्ट डेथ’ के रूप में हुआ। देहरादून में इस वर्ष तेजी से बाईक चलाने के कारण 28 युवक-युवती काल के ग्रास बने हैं। केवल दिल्ली या देहरादून की ही यह कहानी नहीं है, ?ाारत के हर शहर की यही कहानी है। युवाओं को बाईक स्पीड में चलानी है और जिंदगी ?ाी स्पीड में ही जीनी है। परिणाम सामने है, पर सावधान होने के लिए समय कहाँ है? युवाओं के इस टकन के लिए क्या वे स्वयं ही जिम्‍मेदार हैं ? कहीं न कहीं घर का वातावरण, आसपास की दुनिया, सामाजिक परिवेश सभी कुछ तो ऐसा है, जो उसे इस रास्ते पर जाने को बाध्य कर रहा है। यदि आज स्कूल का एक विद्यार्थी कार से स्कूल जाता है, हाथ में सेलफोन रखता है और एकांत मे अल्कोहल का पैग या धुएँ के कश में डूब जाता है, तो उसके लिए क्या केवल वही जि?मेदार है ? उसकी मित्र-मंडली, घर का वातावरण जि?मेदार नहीं! किसने थमाई उसके हाथ में कार की चाबी? किसने पकड़ाया उसके हाथ में सेलफोन? अल्कोहल और सिगरेट का नशा क्या यूँ ही उस पर हावी हो गया? कॉलेज में पहुँचते-पहुँचते ये रास्ते गहरी खाई का रूप ले लेते हैं और तब कहीं जाकर माता-पिता को अपनी गलती का अहसास होता है। लेकिन तब काफी देर हो चुकी होती है। वे अपनी संतान को खो बैठते हैं या फिर अपनी आँखों के सामने अपाहिज संतान को घर में बैठा देखते रहते हैं।आज के युवाओं के लिए मित्रता और मनोरंजन की व्याख्‍या भी बदल गई है। पहले तो वे पार्टियाँ करते थें, पिकनिक मनाते थे और खेल खेलते थे, लेकिन अब वे साइबर पार्टियाँ करते है, ये पार्टियाँ सोशल नेटवर्किंग की साइट पर आयोजित होती हैं। मित्रों से मिलने के लिए भी वे साइट का ही सहारा लेते हैं। उनकी जिंदगी टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल के आसपास ही घूमती रहती है। धूम जैसी फिल्मों और फास्ट मोबाइल का नशा उन पर बुरी तरह से सवार हो गया है। जो युवक कैफे में जाते हैं, उनमें से अधिकांश ‘बर्नआउट’ नामक विडियो गेम खेलते हैं। इस खेल में आप जितने अधिक एक्सीडेंट करेंगेे, उतने अधिक पाइंट मिलेंगे। युवा इसमें अधिक से अधिक एक्सीडेंट कर आनंद प्राप्त करते हैं। इसीलिए वे अपनी रियल लाइफ में भी एक खेल की तरह अधिक से अधिक दुर्घटनाएँ करना चाहते हैँ। मौका मिलने पर वे चूकते भी नहीं। दूसरी ओर आज युवाओं पर अपेक्षाओं का भारी बोझ है। माता-पिता स्वयं तो उसे समय नहीं दे पाते, लेकिन अपेक्षाएँ बहुत सी रखते हैं। ये अपेक्षाएँ उन्हें तनाव में डाल देती हैं। आजकल बच्चे फर्स्ट क्लास लाते हैं, तो उसकी कोई कीमत नहीं है। 80 प्रतिशत अंक लाने वाला एवरेज विद्यार्थी माना जाता है। यदि 90 प्रतिशत अंक आते हैं, तो पालक खुश होते हैं। सभी पालक यही चाहते हैं कि उनका बच्चा सुपरकिड बन जाए। केवल स्कूल-कॉलेज ही नहीं, बल्कि शिक्षा से अलग जो ?ाी करे, उसमें उनका बच्चा सर्वश्रेष्ठ हो, बस इन्हीं चाहतों के बीच आज का मासूम भी कुचलकर रह गया है। बच्चे को संगीत सिखना चाहिए, ड्राइंग सिखनी चाहिए। उसे कराटे में ब्लेकबेल्ट मिलना ही चाहिए। यदि वह स्केटिंग सीख रहा है, तो उसे स्टेट लेबल पर तो जाना ही चाहिए। यह तो तय है कि सभी बच्चे सुपरकिड नहीं बन सकते। कुछ बच्चे धीमे-धीमे सीखते हैं। ऐसे बच्चे सबसे अधिक अपमानित होते हैं। पालक के सामने ी और समाज के सामने भी। इससे उनका तनाव बढ़ जाता है। इस तनाव को दूर करने के लिए वह तरह-तरह के उपाय करता है। कभी किसी व्यसन का शिकार होता है, तो कभी स्मोकिंग करने लगता है। कई तो ड्रग्स लेना शुरू कर देते हैं। कुछ शराब की शरण में चले जाते हैं। यदि कुछ बच जाते हैं, तो वे गुटखा-तम्‍‍बाखू का सहारा लेते हैं। अपने गुस्से को बताने के लिए उनके पास कोई सहारा नहीं होता, तो वे अपने वाहन पर अपनी खीझ निकालते है। फास्ट ड्राइविंग करते हुए वे कॉलेज में मारा-मारी पर उतारू हो जाते हैं।आज के युवाओं पर सतत सफल होने का दबाव बढ़ गया है। उन्हें संस्कारवान बनना है, यह कोई नहीं सिखाता। यही कारण है कि वे अपने से बड़ों से सीधे मुँह बात तक नहीं करते। बुजुर्गों की सेवा करना तो उन्हें आता ही नहीं। बडे़-बुजर्गों को तो वे बोझ समझने लगे हैं। गलत तरीके से धन नहीं कमाना चाहिए। किसी से धोखेबाजी नहीं करनी चाहिए। ये कोेई उन्हें सिखाता ही नहीं है। इस कारण वे मतलबी और स्वार्थी होने लगे हैं। किस्मत अच्छी होती है, तो वे धनपति बन जाते हैं, पर संस्कारी बन नहीं पाते। ऐसे लोगों के जीवन में जब विषमताएँ आती हैं, तो उन्हें डगमगाने में देर नहीं लगती। माता-पिता अपने बच्चों का मोबाइल दे सकते हैं कार दे सकते हैं, पर समय और सहानुभूति नहीं दे सकते। बच्चे स्वयं को अनाथ समझने लगते हैं। वे यह अच्छी तरह से समझते हैं कि उनके माता-पिता भी गलत तरीके से धन कमा रहे हैं, तो उन्हें उनके धन को खर्च करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती। परिश्रम से कमाया हुआ धन कैसा होता है, यह वे न तो जानते हैं और न ही समझते हैं।बच्चों के आदर्श उनके माता-पिता ही होते हैं। कॉलेज में पढ़ने वाले अपने युवा बच्चे से एक पालक ने कह दिया कि वे कॉलेज के किसी भी विद्यार्थी से मारपीट करने की छूट है। मैं सबसे निपट लूँगा, इतना खयाल रखना कि इस मारपीट में किसी की मौत न हो जाए। जो पालक अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा देते हो, उन्हें किसी दुश्मन की क्या आवश्यकता? आज बच्चे घर आए मेहमान का अपमान करते हैं, तो पालक उसे डॉटने के बजाए शाबासी देते हैं। जैसे बच्चे ने कोई पराक्रम किया है। ऐसे बच्चे अपने माता-पिता की इात कैसे कर सकते हैं भला? दूसरे ओर आज के युवाओं में बहुत ही जल्द बोर होने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी है। मोबाइल फोन के मॉडल से बोर होने के कारण वे हर तीन-चार महीनों में अपना मोबाइल बदलते हैं। 6 महीने में ही अपनी बाइक से बोर होने लगते हैं। हर वर्ष वे अपनी कार बदलने लगे हैं। यही हाल नौकरियों का भी है। उसमें ी वे लगातार ज?प मारते रहते हैं। कूदने की प्रवृŸिा उनके जीवन का हिस्सा बन जाती है। शादी से पहले वे बड़ों की तरह गर्लफ्रेंड बदलते हैं। शादी के बाद एक ही पत्नी से भी बोर होने लगते हैं। स्थिति विवाहेत्‍तर संबंधों तक पहुँच जाती है। इसके बाद होता है तलाक। गर्लफ्रेंड के साथ मित्रता कैसे की जाती है, यह तो उन्हें पता ही नहीं होता। इसकी भी ंफुरसत उनके पास नहीं होती। इसलिए वे स्पीड डेटिंग करने लग जाते हैं।युवा आज जिन कॉलेजों में मैनेजमेंट की शिक्षा ग्रहण कर रहे होते हैं, वहाँ भी उन्हें ईमानदारी का धंधा करने के बजाए कोमोडिटी की बिक्री किस तरह बढ़ाई जाए, ग्राहकों से किस तरह से धोखेबाजी की जाए, यह सिखाया जाता है। कॉलेज से एमबीए की डिग्री लेकर जब वे मार्केटिंग मैनेजर बन जाते हैं, तब वे गलत तरीके से पैसा उगाहने वाली स्कीमें तैयार करते हैं। ग्राहकों की जेब से किस तरह से धन निकाला जाए, इसके कई रास्ते निकालते हैं। आज जिस तरह से मोबाइल कंपनियाँ बाजार में आकर ग्राहकों को ठग रही हैं, यह सब आज के युवाओं के दिमाग की ही उपज है।आज का युग तेजी से बदल रहा है। देश ी तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है। लोगों के पास धन भी पर्याप्त आ रहा है। समाज के जीवन मूल्य ी बदल रहे हैं। जो परिवर्तन पहले दस वर्ष में दिखते थे, वे अब दस माह में ही दिखने लगे हैं। शहर की गलियाँ ी तेजी से बदलती जा रही है। लोगों के पास अब वन डे देखने का समय नहीं है, वे अब 20-20 में दिलचस्पी लेने लगे हैं। सामाजिक बदलाव भी तेजी से दिखाई देने लगे हैं। पूरे समाज की ही कायापलट हो गई है, इससे समाज का क्या ला होगा, यह शोध का विषय हो सकता है।
डॉ. महेश परिमल

भारतीय चीन से तकनीक क्यों सीखना नहीं चाहते?

डॉ महेश परिमल
चीन में व्यापार करने जाने वाले भारतीय व्यापारियों पर पिछले दिनों जिस तरह से व्यवहार किया गया, उससे यही साबित होता है कि वहाँ भारतीय व्यापारी असुरक्षित हैं। आखिर क्या कारण है कि इतनी दूर जाकर भी माल लाने पर व्यापारियों को फायदा होता है? जिल्लत सहकर भी व्यापारी चीन से माल लाते हैं और भारी मुनाफा कमाते हैं। भारतीय व्यापारी यदि चीन जाकर वहाँ से माल के बजाए उनकी तकनीक सीखकर आएँ, तो फिर क्या आवश्यकता है, माल लाने की? आखिर वह कौन से कारण है कि चीन के व्यापारी को जो माल 9 लाख रुपए में पड़ता है,उसके लिए भारतीय व्यापारी को 60 लाख रुपए चुकाने होते हैं? इसकी वजह यही है कि वहाँ की सरकार लघु एवं गृह उद्योगों को खूब प्रोत्साहन देती है। यही कारण है कि वहाँ का माल भारत लाकर भी भारतीयों को सस्ता पड़ता है। यदि हमारे देश की सरकार भी चीन की तरह करे, तो चीन से माल लाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।दीपावली पर हमने जो इलेक्ट्रानिक तोरण का इस्तेमाल किया, वह चीन से आयात किया हुआ था। होली में बच्चे जिन पिचकारियों का इस्तेमाल किया, वह चीन से आयातित था। हमारे बच्चे जिन खिलौनों से खेलते हैं, वह चीन का होता है।पूरे देश में चीन से हर साल अरबों रुपए का माल आता है। दिल्ली-मुम्बई में चाइना मेड माल के कई होलसेल बाजार हैं। हाल ही भारतीय व्यापारियों से चीन के शेझियांग प्रांत के यिवु शहर में जिस तरह का व्यवहार किया गया है, उससे भारतीय व्यापारियों में ¨चता व्याप्त है। भारतीय व्यापारी यिवु से इसलिए माल लाते हैं, क्योंकि यहाँ की कंपनियाँ डिस्काउंट देने में विख्यात हैं। यहाँ पर दुनिया भर से व्यापारी माल लेने आते हैं। भारत से करीब सौ व्यापारी नियमित रूप से यिवु जाते हैं और वहाँ से खरीदी करते हैं। भारत के कई व्यापारी तो पश्चिम एशिया के अरब देशों के एजेंट के रूप मंे काम करते हैं। अरब देशों में अराजकता की स्थिति के कारण वहाँ से ग्राहकी कम हो गई है। कई कंपनियों का दीवाला ही निकल गया है। इस कारण चीन के व्यापारी भारत के एजेंटों से खफा हो गए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि यिवु के व्यापारियों के रोष के आगे वहाँ का प्रशासन तंत्र भी लाचार हो जाता है। वह भी चीनी व्यापारियों का ही पक्ष लेता है। अदालतें भी असहाय नजर आती हैं। इसलिए भारतीय दूतावास से यह आदेश जारी हुआ है कि भारतीय व्यापारी यिवु के व्यापारियों से माल न खरीदें। यहाँ मुश्किल यह है कि भातर में चीन से जो माल आता है, उसका 75 प्रतिशत तो केवल यिवु से ही आता है। यदि भारतीय यिवु से माल खरीदना बंद कर दें, तो वहाँ के व्यापारियों और उद्योपगतियों के सामने भूखे रहने की स्थिति आ सकती है। चीन में भारतीय व्यापारियों को प्रताड़ित करने की यह पहली घटना नहीं है। मुंबई के एक व्यापारी को चीनी भाषा न आने के कारण उसने यिवु के एक दुभाषिये को एजेंट के रूप में नियुक्त किया। इस एजेंट भारतीय व्यापारी के नाम पर खरीदी की और माल लेकर भाग गया। उक्त भारतीय व्यापारी जब यिवु गया, तो उसके साथ मारपीट की गई। भाषा के कारण भारतीय व्यापारियों को वहाँ एजेंट रखना अनिवार्य होता है। इन एजेंटों को दोनों तरफ से कमिशन मिलता है। ये एजेंट यदि किसी प्रकार का घालमेल करें, तो उसकी सजा भारतीय व्यापारियों को भोगनी होती है।जब से चीन से सस्ता माल आने लगा है, तब से भारतीय उद्योग को काफी नुकसान होने लगा है। यहाँ के कारीगर बेकार होने लगे हैं। चीन के लघु उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। भारतीय कारीगरों की बेकारी ने चीनी उद्योग को मालामाल कर दिया है। चीन में जिस माल की कीमत 9 लाख रुपए है, उसके लिए भारतीयों को 60 लाख रुपए चुकाने होते हैं। इसलिए भारत के साथ व्यापार करने में चीन को भारी मुनाफा होता है। भारत को जितनी गरज है, उससे अधिक गरज चीन की है। इस बात को अभी तक किसी ने समझने की कोशिश नहीं की है। यह भी सच है कि चीनी माल से अब भारतीयों का मोहभंग होने लगा है। एक तो उसकी गुणवत्ता निम्न दर्जे की होती है। उस पर इस्तेमाल किए गए रंगों से स्वास्थ्य को हानि होती है। दिल्ली के व्यापारियों ने एकजुट होकर कहा है कि यदि भारतीय व्यापारियों के साथ चीन में इस तरह से र्दुव्‍यवहार होता रहेगा, तो वे चीनी माल का बहिष्कार कर भारतीय माल ही बेचेंगे। वैसे दिल्ली के व्यापारियों का यह भी कहना है कि वे काफी बरसों से चीन के साथ व्यापार कर रहे हैं, उन्हें अब तक किसी प्रकार का खराब अनुभव नहीं हुआ है। उनका कहना है कि यिवु शहर में भारतीय व्यापारियों की काफी इज्जत की जाती है। पर जो व्यापारी उधारी करते हैं और समय पर नहीं चुकाते, तो उनका व्यवहार बदल जाता है। उसके बाद तो वे कानून हाथ में लेने से नहीं हिचकते। इन दिनों यिवु के व्यापारी भारतीय व्यापारियों से इसलिए नाराज चल रहे हैं, क्योंकि कई भारतीय माल लेकर गुम हो गए हैं। चीनी इस तरह की दगाबाजी सहन नहीं करते। इस दौरान यदि उन्हें कोई ईमानदार भारतीय व्यापारी भी मिल जाए, तो वे उसके साथ मारपीट करते हैं। भारतीय व्यापारी चीन से केवल माल लेकर आते हैं, वहाँ की तकनीक नहीं लाते। यदि वे वहाँ से तकनीक लाएँ और हमारे ही देश में सस्ता माल बनाएँ, तो भला चीनी माल क्यों खरीदा जाए? चीनी तकनीक के अलावा वहाँ की सरकार द्वारा लघु और गृह उद्योगों को प्रोत्साहन देने की नीति भी माल को सस्ता बनाती है। भारत ने वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन के जिन दस्तावेज पर हस्ताखर किए थे, उसके आधार पर आयात से ड्यटी हटा दी गई थी। इसी कारण भारत के बाजारों में चीन के सस्ते और गुणवत्ता में हलके माल आने शुरू हो गए। देश का मध्यम वर्ग आज भी चीन के बने उत्पादों का इस्तेमाल करता है। किंतु उच्च वर्ग ने चीन के उत्पादों से मुँह फेर लिया है। यह सोचने वाली बात है कि चीन से उत्पाद भारत आता है, इसके परिवहन खर्च के बाद भी देश में इतना सस्ता मिल रहा है। तो फिर भारत में ही बने उत्पाद इतने सस्ते क्यों नहीं हो सकते? इस सवाल का जवाब भारतीय उद्योगपतियों, व्यापारियों, ग्राहकों और सरकार को देना चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

फलक-आफरीन की मौत से खत्म हुआ देश का गौरव

डॉ. महेश परिमल
दो मासूमों की एक ही कहानी। दोनांे का अपराध यही था कि वे नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती थीं। दोनों ही सामाजिक विषमताओं का अत्याचार का शिकार हुई। मामला हत्या का नहीं, बल्कि उससे भी बड़ा है। देश में लचीले कानून के तहत सब कुछ ऐसा हो रहा है, जिससे अपराधियों को कानून का भय नहीं है। कानून से खेलना उनकी आदत में शुमार है। जेल में जितने अपराधी हैं, उससे अधिक खतरनाक अपराधी समाज में खुले आम घूम रहे हैं। मासूम फलक और आफरीन की मौत समाज के लिए कलंक है। अपनी मौत से वे ये बता गई कि समाज में ऐसे हत्यारे भी मौजूद हैं, जो जननी को मौत के घात उतारने में देर नहीं करते।

यूनिसेफ की रिपोर्ट की अनुसार भारत में कोख में ही मादा भ्रूण की हत्या करने का उद्योग अब बहुत ही फल-फूल गया है। इसका वार्षिक व्यापार अब 1000 करोड़ रुपए को हो गया है। देश भर के शहरों एवं कस्बों में ऐसे छोटे-छोटे क्लिनिक खुल गए हैं, जहाँ लिंग परीक्षण कर मादा भ्रूण की हत्या की जाती है। हमारे समाज में बेटी का स्थान आज भी बेटे से कमतर ही है। यह तो हाल ही में हुए जनसंख्या की गणना में सामने आया। जिसमें बताया गया है किदेश में 1000 पुरुष के एवज में स्त्रियों की संख्या 914 है। यदि भ्रूण को गर्भ में ही न मारा जाए, तो उनकी हालत फलक-आफरीन जैसी होती है। दो महीने तक मौत से जूझने वाली वह मासूम आखिर 15 मार्च कोजिंदगी की लड़ाई हार गई। ठीक उसी तरह 8 अप्रैल को पिता के अत्याचार का शिकार बनी आफरीन ने आखिर बेंगलोर की अस्पताल में कल ही दम तोड़ दिया। यह हमारा ही देश है, जहाँ वर्ष में दो बार नारी के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। लोग उपवास रखकर देवी के प्रति अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। यही नहीं कन्या भोज कराकर वे स्वयं को गौरवांवित महसूस करते हैं। दूसरी तरफ कोख में ही मादा भ्रूण की हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकते। शायद इसे ही कलयुग कहते हैं।
नई दिल्ली की ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट आफ मेडिकल साइंसीस हास्पिटल में इसी वर्ष 18 जनवरी को दो वर्ष की मासूम फलक को घायलवस्था में भर्ती किया गया। फलक के माथे पर चोट के निशान थे, यही नहीं उसके शरीर पर कई स्थान पर दांत से काटने के भी निशान मिले। उसके गाल को दागा गया था। फलक को अस्पताल लाने वाली 16 वर्ष की एक युवती ने स्वयं को फलक की माँ बताया था। वह युवती झूठी निकली। वास्तव में फलक एक कॉलगर्ल की अवैध संतान थी। कॉलगर्ल ने अपना पाप छिपाने के लिए इस मासूम को अपने एक दलाल को दत्तक के रूप में दे दिया था। इस दलाल ने बच्ची की देखभाल का काम उक्त युवती को सौंपा था। यह युवती भी जातीय अत्याचार का शिकार हुई थी। इसी युवती ने गुस्से में फलक को दीवार पर दे मारा था। उसके बाद उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया था।  इस समय फलक के बचने की आशा बिलकुल भी नहीं थी। फिर भी डॉक्टरों ने उसे बचाने की भरपूर कोशिश की। कई ऑपरेशन किए, पर उस मासूम को बचाया नहीं जा सका। फलक की माँ को खोजने के लिए पुलिस ने जाल बिछाया, तो एक सेक्स रेकेट का पता चला। इसमें फलक की माँ जैसी न जाने कितनी कॉलगर्ल फँसकर छटपटा रही थीं। फलक का गुनाह इतना ही था कि वह नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती थी। उनका जन्म यदि नर संतान के रूप में होता, तो शायद वह बच जाती।

हमारे देश में बेटी को बोझ समझा जाता है। बेटा आँख का तारा होता है। बरसों पहले राजस्थान में बेटी के जन्म पर उसे दूध के बरतन में डूबोकर मार डालने की परंपरा थी।  मादा भ्रूण की हत्या इस परंपरा की अगली कड़ी है। आफरीन को उसके पिता ने ही सिगरेट से दाग-दाग कर बुरी तरह से घायल कर दिया था। वह बेटा चाहता था, बेटी उसे पसंद नहीं थी, अपनी नापसंद को उसने एक वहशी बनकर मौत के हवाले कर दिया। बेटी के जन्म पर उसने अपनी पत्नी पर अत्याचार करना नहीं छोड़ा। ऐसे वहशी नर्क में जाएँगे, पर उसके पहले क्या उसे जिंदा रहने का हक है? बेबी आफरीन की मौत के बाद अनेक संवेदनशील संदेश ट्विटर पर आने लगे। पहले ही घंटे में 500 संदेश आए। फिल्म निर्माता एवं निर्देशक करण जौहर ने अपने ब्लॉग में लिखा- ‘बेबी आफरीन का बाप मानवजाति के लिए कलंक है।’ मेघना गुलजार ने अपने ब्लॉग में लिखा- ‘बेबी फलक के बाद अब बेबी आफरीन, ईश्वर न जाने और कितनी बेटियाँ होंगी, जो अखबार की हेडलाइन पर चमकेंगी। दु:खद और शर्मनाक।’ मिनी माथुर ने तो बेबी आफरीन के पिता को फाँसी पर लटकाने की माँग करती हैं। वे कहती हैं- ‘फाँसी की सजा अपवादस्वरूप ही दी जाती है, पर कोई बाप यदि अपनी ही बेटी को सिगरेट से दागे, उसका गला दबाए, तो उसे कैसे माफ किया जा सकता है? उसे तो फाँसी पर ही लटकाया जाना चाहिए।’
हम अपने देश की संस्कृति पर गर्व करते हैं। पर क्या यह संस्कृति यही सिखाती है कि फलक और आफरीन की मौत इस तरह से हो? ये तो मासूम थीं, उनमें ईश्वर का वास था, तो क्या आज हमारी परंपरा ईश्वर को ही खत्म करने पर आमादा है? आज इस पर विचार किया जाना चाहिए कि आखिर कब तक इस तरह से मासूमों को मारा जाता रहेगा। ओछी और संकीर्ण मानसिकता के चलते आखिर कब तक मासूम अपने जीवन की बलि देती रहेंगी? मुझे तो लगता है कि बेबी आफरीन की मौत के बाद देश का गौरव भी मर गया है। हमारा समाज नारी भ्रूण के प्रति इतना आक्रामक आखिर क्यों है? ऐसे लोगों को इतनी कड़ी सजा दी जाए, जिससे और कोई किसी मासूम को मारने के पहले हजार बार सोचे। ऐसे लोगों को सजा देने में न्यायालय पूरी तरह से कठोर हो जाए, तभी समाज में एक संदेश जाएगा कि बेटी की हत्या करने पर कितनी खतरनाक सजा होती है? सजा वह जो सबक दे, सोचने के लिए विवश करे और वैसा अपराध जीवन में कभी न करने की इच्छाशक्ति पैदा करे। बेबी फलक और बेबी आफरीन सामाजिक विषमताओं की पैदाइश हैं। जो पालक लगातार बेटी पर खर्च करते हैं, उस पर उससे कोई लाभ हासिल नहीं होता, इसलिए उसे उपेक्षित करते हैं। बेटी को पढ़ा-लिखा दिया, तो उसका लाभ उसके ससुराल वालों को ही मिलेगा, पालकों को नहीं, यही मानसिकता आज बेटी को कोख में ही मार डालने की प्रवृत्ति को हवा दे रही है। बेटे से यह अपेक्षा होती है कि वह माता-पिता का सहारा बनेगा। इसलिए उसकी शिक्षा में भी भारी खर्च किया जाता है। हमारे देश में ऐसा भी समाज है, जिसमे बेटी और बेटे की थाली जो भोजन परोसा जाता है, उसमें भी भेदभाव किया जाता है। बेटा बड़ा होकर दहेज लाएगा और कमाकर भी लाएगा, लेकिन बेटी दहेज के रूप में सम्पत्ति ले जाएगी और कमाएगी भी तो ससुराल जाकर। जब तक इस तरह की मानसिकता हमारे समाज में व्याप्त है, तब तक न तो समाज आगे बढ़ सकता है और न ही देश। बेटी के जन्म पर शोक की लहर आज भी दौड़ जाती है, जबकि बेटे के जन्म पर हर्ष मनाया जाता है।
आज की बेटियों को लगता है कि वे घर में ही उपेक्षित हैं। तब वह घर में बेटा बनकर सारे काम करती है। उसका लालन-पालन भी बेटे की तरह होता है। उसे बेटे जैसे ही कपड़े पहनाए जाते हैं। कॉलेज की उच्च शिक्षा प्राप्त करती है। माता-पिता की सेवा में वह इतना अधिक डूब जाती हैं कि अपना जीवन भी होम कर देती हैं। वे शादी नहीं करतीं, क्योंकि शादी के बाद माता-पिता की देखभाल कौन करेगा? इसलिए उनकी उम्र निकल जाती है। योग्य वर नहीं मिलता। माता-पिता के न रहने पर आखिर एकाकीपन जीवन को अपना लेती हैं और घुट-घुटकर जीने को विवश हो जाती हैं। इस तरह की लड़कियों की संख्या आज समाज में लगातार बढ़ रही है। अपनी मौत से बेबी फलक और बेबी आफरीन ने समाज के सामने यह चुनौती दी है कि आखिर कब तक बेटी की उपेक्षा करोगे। यदि बेटी न होती, तो समाज में पुरुष भी नहीं होते। बेटी नहीं होगी तो बेटे के लिए दुल्हन कहाँ से लाओगे? बेटी को कोख में मारने में सहायक की भूमिका निभाने वाली माँ से भी यही सवाल कि ऐसा ही यदि उनकी माँ ने भी सोचा होता, तो क्या वे आज अपनी बेटी को मारने में सहायक हो पाती? बेटे से तो वंश चलता है, यह सच है, पर वह किस वंश का पोषक है, यह कोई बता सकता है। बेटी दो कुलों की शोभा बनती है। इसे समाज क्यों भूल जाता है। यदि बेटा ही महत्वपूर्ण है,तो आज देश में वृद्धाश्रमों की संख्या इतनी तेजी से क्यों बढ़ रही है? कौन देगा इसका जवाब? जरा वृद्धाश्रम जाकर उन बूढ़ी आँखों से एक बार पूछो तो कि आखिर बेटा उन्हें अपने घर पर क्यों नहीं रखता? क्या इसी दिन के लिए उन्होंने बेटे की कामना की थी और बेटी को कोख में मार डालने का फैसला लिया था?
डॉ. महेश परिमल

नितीश को पाकिस्तान ने बुलाया

डॉ. महेश परिमल
एक समय ऐसा भी था, जब बिहार को लेकर कई जोक्स बन गए थे। जब लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे, तब एक लतीफा विशेष रूप से प्रचारित हुआ था। बात यूं हुई कि एक बार मियां मुशर्रफ कश्मीर के लिए अड़ गए? कई लोगों ने समझाया कि जिद छोड़ दो, ये पाकिस्तान के लिए अच्छा नहीं होगा। मियां मुशर्रफ नहीं माने? तब उन्हें मनाने के लिए लालू उनके पास पहूंचे? थोड़ी ही देर बाद मियां मुशर्रफ यह कहते हुए बाहर आए कि मुझे नहीं चाहिए कश्मीर? अब कान पकड़ता हूं, कभी कश्मीर के लिए नहीं अड़ूँगा। लोग हतप्रभ रह गए, आखिर लालू ने उन्हें ऐसा क्या कह दिया कि मियां भाग खड़े हुए? बाद में लालू से लोगों ने पूछा तो लालू ने बताया  कि कुछ नहीं मैंने उनसे यही कहा कि हम कश्मीर अकेले नहीं देंगे, उसके साथ आपको बिहार भी लेना होगा। बस मियां भाग गए। लालू ने बिहार को एक अराजक राज्य बना दिया था। वहां जंगलराज कायम हो गया था। आज हालात एकदम विपरीत हैं। पिछले दिनों पाकिस्तान का एक प्रतिनिधि मंडल बिहार के विकास के अध्ययन के लिए पटना आया था। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के नेतृत्व ने जिस तरह से विकास की इबारत लिखी है, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि उन्होंने एक संकल्प के साथ बिहार को विकास का रास्ता दिखाया है। अब तक बिहार को जिसने भी विकास का रास्ता दिखाया, उसने बिहार की अवाम के साथ धोखा ही किया। इस बार हालात बदले हुए हैं। बिहार ने गति पकड़ी है। यह विकास की गति है, जिसे रोकना अब मुश्किल है। आखिर पाकिस्तान को क्या पड़ी थी कि गुजरात छोड़कर वह विकास का अध्ययन करने के लिए बिहार जाए। कहीं तो कुछ है, जिसने पाकिस्तान को लुभाया। आखिरकार उसने यह फैसला लिया कि मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को पाकिस्तान बुलाकर उनसे विकास पर चर्चा की जाए।
पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल ने बिहार में नीतिश कुमार के कामकाज की जोरदार प्रशंसा की है। इस प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सचिव एवं सांसद जहांगीर बदर कर रहे थे। बिहार की प्रशंसा पाकिस्तान से सुनकर बिहार के जनसम्पर्क विभाग ने एक प्रेस नोट  देश भर के पत्रकारों को भेज दिया। अब यह बात सोचने के लायक है कि लालू के शासनकाल में बिहार में जंगलराज था, तो क्या नीतिश कुमार के राज में बिहार पूरी तरह से स्वर्ग बन गया है? बिहार स्वर्ग तो नहीं बन पाया है, पर जंगलराज से मुक्त हुआ है, यह कहा जा सकता है। नीतिश कुमार के बारे में यह कहा जाता है कि वे कोल्ड ब्लडेड और शांत प्रकृति के राजनीतिज्ञ हैं। सामान्य रूप से विदेश प्रवास नहीं करना चाहते। विदेश जाने के नाम पर वे इसे टालने की कोशिश करते हैं। पर जब पाकिस्तान जैसे देश से  बुलावा आए, तो वे झटपट तैयार भी हो जाते हैं। पर क्या हमारे देश में सब कुछ सामान्य रूप से संभव है। नीतिश के लिए पाकिस्तान से बुलावा क्या आया, लालू यादव और कांग्रेस की तो निकल पड़ी। दोनों मिलकर एक स्वर में इसका विरोध कर रहे हैं। इन्हें नीतिश के खिलाफ मुद्दा चाहिए था, जो उन्हें मिल गया। पाकिस्तान की नजर में उनका नम्बर वन दुश्मन भारत ही है। लेकिन दूसरी ओर आज भी दोनों देशों के बीच कलाकारों का आना-जाना, क्रिकेट का होना इस बात का सूचक है कि हालात पूरी तरह से बिगड़े नहीं है। यह भी सच है कि भारत में जो आतंकवाद पसर रहा है, उसमें पाकिस्तान का हाथ है।
इसे यदि राजनैतिक दृष्टि से देखा जाए, तो स्पष्ट होगा कि आज विपक्ष के पास प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के अलावा कोई नाम नहीं है। जो भी नाम सामने आता है, उसका विरोध शुरू हो जाता है। इनमे ंसे नीतिश कुमार का नाम भी शामिल है। अब नीतिश की प्रशंसा यदि हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान कर रहा है, तो विरोध तो होना ही चाहिए। हमारे देश में यह तय है कि जिसमें भी पाकिस्तान का नाम जुड़ा, उसका विरोध तय है। इसलिए नीतिश का भ विरोध शुरू हो गया है। भारत-पािकस्तान के बीच मतभेद किसी से छिपा नहीं है। संबंध कतई अच्छे नहंीं है। कठिन हालात बार-बार सामने आते रहते हैं। वैसे दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंध पहले से सुधरे हैं। अपनी आतंकवादी प्रवृत्ति के कारण पाकिस्तान पूरे विश्व में बदनाम है। हमारे यहां हर बात को वोट की दृष्टि से देखा जाता है। पाकिस्तान का विरोध भी वोट बैंक की राजनीति का एक हिस्सा ही है। वोट बैंक की राजनीति में नीतिश कुमार भी सिद्धहस्त है। पाकिस्तान द्वारा की गई तारीफ से वे बिहार में अपना मत विस्तार बढ़ा रहे हैं। वे बार-बार सभाओं में यही कहते हैं कि उन्होंने बिहार से जंगलराज का खात्मा किया है।
नीतिश कुमार ने सोचा है कि इस वर्ष के अंत तक वे पाकिस्तान की यात्रा पर जाएंगे। वैसे भी इस समय नीतिश कुमार जोश में हैं। हाल ही में सर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उनकी पीठ थपथपाई है। यही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि आम लोग ये मानते हैं कि बिहार का शासन गुजरात से बेहतर है। कुछ विदेशी पत्रकारों से बातचीत के दौरान भागवत ने कहा कि आम लोग ये मानते हैं कि बिहार गुजरात से बेहतर शासित प्रदेश है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के हालिया बयान ने बीजेपी के अंदर भी बवाल मचा दिया है। विदेशी पत्रकारों से बातचीत के दौरान मोहन भागवत ने बिहार के सुशासन पर चर्चा करते हुये कहा है कि लोग बिहार के बारे में लगातार ये बात कह रहे हैं इसलिए इस विषय में उनका खुद का मत बहुत मायने नहीं रखता। तय है कि नीतिश कुमार को अभी बहुत कुछ करना है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती नरेंद्र मोदी ही हैं। दोनों के मतभेद सामने आते ही रहते हैं। अब यदि नीतिश गुजरात जाकर चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी के खिलाफ कुछ कहते हैं, तो संबंध बिगड़ने ही हैं। उधर राज्य में लालू भी चुप बैठने वालों में से नहीं हैं। विकास की गति में वे सबसे बड़े अवरोधक के रूप में सामने हैं। यह मुकाबला भी कड़ा है। ऐसे में पाकिस्तानी प्रशंसा से वे गर्वित न होकर एक चुनौती के रूप में लेते हैं, तो यह उनके लिए उचित होगा।
  डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

लो कर लो बात, भारत पाकिस्तान को बिजली देगा!

डॉ. महेश परिमल
कहा गया है कि घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। संसद का शीतकालीन सत्र विपक्ष की जिद और केंद्र सरकार की हठधर्मिता की भेंट चढ़ गया। इस शोर में हम बहुत कुछ भूल गए। इस दौरान अमेरिका में संयुक्त राष्ट्र संघ की एनर्जी कानक्लेव हुई। जहाँ अमेरिाक मं भारतीय राजदूत निरुपमा राव ने यह घोषणा की कि भारत अब पाकिस्तान, बंगलादेश और नेपाल को कुल 1200 मेगावॉट बिजली देगा। हमारे देश में आज जहाँ उद्योगों को बिजली नहीं मिल पा रही हो, सुदूर गांव अंधेरे में डूबे हुए रहते हों, किसानों की फसल बिना बिजली के बरबाद होती हों, ऐसी स्थिति में हम उन्हें बिजली देंगे, जो निश्चित रूप से इसका दुरुपयोग ही करेंगे। सदुपयोग भ भले करें, पर भारत को किसी तरह से श्रेय देने से रहे। अपने करोडें नागरिक भारत पर थोपकर बंगला देश मजे कर रहा है। उन शरणार्थियों की वजह से देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ रही है। फिर भी हमारी दिलेरी है कि हम उसी देश को बिजली दे रहे हैं। पाकिस्तान भी हमसे बिजली लेकर अपने को ही सक्षम करेगा। उससे भारत को और भी खतरे में डालने की योजना बनाएगा। इन्हें बिजली देकर भारत आखिर क्या सिद्ध करना चाहता है? समझ में नहीं आता। शायद हम अच्छे पड़ोसी का धर्म निभा रहे हैं। पर पड़ोसी को भी तो यह समझना चाहिए कि उन्हें भी अच्छा पड़ोसी बनकर दिखाना है। निरुपमा राव ने इस कानक्लेव में बताया है कि अगस्त 2010 से भारत, पाकिस्तान को 400 मेगावॉट और बंगलादेश को 170 मेगावॉट बिजली राहत दर पर दे ही रहा है। बिजली देकर शायद भारत विश्व का सुपरपॉवर बनना चाहता है। संभव है इसी खैरात से नेहरुजी का सपना पूरा हो जाए।
 13 दिन से संसद नहीं चली, अंदर और बाहर के इस शोर में निरुपमा राव की घोषणा पर किसनी ने ध्यान नहीं दिया। ऐसा भी नहीं है कि हमारे देश में बिजली संकट नहीं है। अभी जुलाई में ही हमने बिजली संकट का भयावह रूप देखा है। शहर ही नहीं पूरा राज्य भी अंधेर में डूब गया। जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। दूसरी तरफ ऊर्जा मंत्री ने इसे उड़ीसा और उत्तर प्रदेश पर यह आरोप लगा दिया कि उन्होंने अधिक बिजली खींच ली। सवाल यह खड़ा होता है कि जब हमारे देश में बिजली का संकट है, तो पड़ोसी देशों को बिजली देकर हम क्या बताना चाहते हैं? इसके लिए आखिर दोष किसे दिया जाए, सरकार या उसकी नीति को? हाल ही में हुए देश में बिजली संकट से यह पता चल गया कि पॉवरग्रीड की किस तरह से मनमाने रूप से आवंटन हुआ है। एक तरफ तो हम सुपरपॉवर बनने का दावा कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ लोग किस तरह से बिजली संकट से जूझ रहे हैं, उसे भी देख लिया है। इस बिजली संकट ने न जाने कितनी खामियों को उजागर कर दिया है। अब हमें पता चला है कि पावरग्रीड टेक्नालॉजी की दृष्टि से हमारे संसाधन कितने कमजोर हैं। वहीं इसके आवंटन में भी जो लापरवाही बरती गई है, उसके पीछे हमारी अतार्किक नीति ही जवाबदार है।
हमें आजादी मिली, तब हम 1372 मेगावॉट बिजली पैदा करते थे। तब देश के 63 प्रतिशत क्षेत्रों को बिजली मिलती थी। आज हम 1 लाख 70 हजार मेगावॉट बिजली का उत्पादन करते हैं, फिर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम इस क्षेत्र में अभी पिछड़े ही कहलाते हैं। जहाँ विदेशों में औसतन 2429 यूनिट बिजली की खपत है, वहीं हमारे देश में इसकी खपत 734 यूनिट है। प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों के व्यय सहित कारकों पर ध्यान देने के बाद यह तो स्वीकारना ही होगा कि पाँवर ही विकास का ग्रोथ इंजन है। हमारा यह ग्रोथ इंजन अभी बहुत ही कमजोर है। पॉवर ग्रीड की रचना और वहां जमा बिजली का आवंटन काफी हद तक बांध की तरह है। बांध में जिस तरह से पानी जमा किया जाता है, फिर नहरों के माध्यम से आवश्यकतानुसार क्षेत्र में पहुंचाया जाता है, ठीक उसी तरह पॉवरग्रीड में बिजली जमा की जाती है। फिर उसे हाईटेंशन लाइनों के माध्यम अन्यत्र पहुंचाया जाता है। जुलाई में आए बिजली संकट के समय हमें पता चला कि हाईटेंशन लाइन के माध्यम से कई राज्यों ने आवश्यकता से अधिक बिजली खींच ली। बांध की नहरों में से यदि कुछ नहरों में अधिक पानी चला जाए, तो अन्य नहरों में पानी ही नहीं बचेगा। वही स्थिति इस बिजली संकट के दौरान आई। यही वजह है कि पूरा उत्तर भारत बिजली संकट से बुरी तरह से घिर गया।
पड़ोसी देशों को बिजली देने की जल्दबाजी को कई संदेहों से भी देखा जा रहा है। क्योंकि इस समय नार्दन और ईस्टर्न सर्किल में बिजली उत्पादन पिछले 8 वर्षो से लगातार घट रहा है। इस की को पूरा करने के लिए भारत ने लेह-लद्दाख और सियाचीन समेत नार्दन सेक्टर में विंड पॉवर प्लांट लगाने की योजना बनाई है। यदि सब कुछ ठीक रहा, तो आगामी तीन वर्षो में इससे 1800 मेगावॉट बिजली मिलने लगेगी। पर जिसका पड़ोसी पाकिस्तान हो, तब यह नहीं कहा जा सकता है कि सब कुछ ठीक ठाक होगा। इस दिशा में भारत ने अभी प्रस्ताव ही तैयार किया है, तो पाकिस्तान ने अपना अलग ही राग अलापना शुरू कर दिया है। अब पाकिस्तान प्रस्तावित जगह को विवादास्पद बता रहा है। एक तरफ वह कटोरा लेकर बिजली की भीख हमसे मांग रहा है, दूसरी तरफ बिजली उत्पादन की हमारी योजना को ही कार्यान्वित नहीं करने दे रहा है। ऐसे देश से आखिर क्या अपेक्षा रखी जाए? आखिर हम उस पर रहम क्यों कर रहे हैं? उधर बंगलादेश भी कम नहीं है। वह भी भारत को छेड़ने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देता। नदी के जल वितरण के मामले पर हाल ही में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने स्वयं प्रधानमंत्री के साथ एक मंच पर बैठने का आग्रह टाल दिया था। ब्रह्मपुत्र और गंगा के प्रवाह को रोककर भारत ने वहां कुल 1300 मेगावॉट के हाइड्रोपॉवर प्लांट लगाया है। इसमें बंगलादेश को 100 मेगावॉट बिजली देने की शर्त भी स्वीकार कर ली गई। इसके बाद भी योजना भारत की, खर्च भारत करे, विस्थापितों की समस्या का समाधान भी भारत करे और आधी यानी 650 मेगावॉट बिजली बंगलादेश को दी जाए, ऐसे अतार्किक और बेहूदा मांगों पर बंगलादेश अकड़ रहा है। हालत यह है कि ढाई वर्ष बाद भी वह प्लांट अभी तक कार्यरत नहीं हो पाया है।
हमारा देश अभी 1 लाख 70 हजार मेगावॉट बिजली का उत्पादन कर रहा है। इसके बाद भी यदि ऊर्जा मंत्रालय की मानें, तो अभी भी शाम 7 से रात 11 बजे तक देश के 56 प्रतिशत क्षेत्रों में उनकी मांग के अनुसार 10 प्रतिशत कम बिजली दी जा रही है। आजादी के 64 वर्षो बाद भी अभी तक केवल 9 राज्य ही बिजली के नाम पर आत्मनिर्भर हैं, शेष अन्य राज्यों में 8 से 37 प्रतिशत क्षेत्रों में अभी भी 24 घंटे बिजली नहीं मिल पा रही है। उद्योगों को पर्याप्त मात्रा में बिजली नहीं मिल पा रही है। उनकी शिकायत हमेशा बिजली की आपूर्ति को लेकर ही रहती है। आम आदमी गर्मी के दिनों में दोपहर बिना बिजली के रहने को विवश है, कभी रात में दीवाली मनाता रहता है। ऐसे में यदि हम पड़ोसी राज्यों को बिजली देने लगें, तो इसे क्या कहा जाएगा। घर फूंक तमाशा देख। एक तरफ विश्व स्तर पर सुपर पॉवर बनने का सपना, तो दूसरी तरफ चेहरे का तेज ही खत्म हो जाए, वैसे हालात। देश की सम्पति पर सबसे पहला अधिकार नागरिकों का ही होता है। इसे भारत सरकार ही अनदेखा कर रही है। पाकिस्तान को छोटा भाई मानकर क्या हम अपना घर लुटाकर उसकी सहायता करते रहें?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

फॉर द महराष्‍ट्र की राजनीति


 प्रभात खबर में आज प्रकाशित मेरा आलेख





बुधवार, 5 सितंबर 2012

देश में बंगलादेशी आ सकते हैं, तो बिहारी क्यों नहीं?

डॉ. महेश परिमल
इस देश में लाखों की संख्या में सीमा पार से बंगलादेशी आ सकते हैं। गलत तरीके से पाकिस्तानी भी आ सकते हैं। यहाँ रह सकते हैं। तो फिर इसी देश के बिहारी दूसरे राज्य में क्यों नहीं जा सकते? यह प्रश्न आज सभ को मथ रहा है। राज ठाकरे बोल रहे हैं, पर उसकी चुभन को हमारे नेता महसूस कर रहे हैं। राज ठाकरे की आक्रामकता इतनी खतरनाक है कि राज्य सरकार भी कुछ न करने की स्थिति में है। वे बिना अनुमति के रैली निकालकर व्यवस्था को लताड़ सकते हैं, पर उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। यदि राज ठाकरे बंगलादेशी घुसपैठियों को इसी तरह ललकारते, तो उन्हें देश की जनता का भारी सहयोग मिलता। पर उन्होंने देश के ही एक अन्य राज्य के लोगों पर कड़ी टिप्पणी की। उनका टारगेट बिहारी हैं। यह सच है, पर वे भी इसी देश के नागरिक हैं। दूसरी ओर राज ठाकरे के बयान पर टिप्पणी करने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके राज्य ने अपने राज्य में नौकरियों की सुविधाएँ नहीं दी, इसलिए लोगों को दूसरे राज्यों में जाना पड़ा, यदि उन्हें अपने ही राज्य में नौकरी मिल जाती, तो उन्हें दूसरे राज्यों की ओर मुंह नहीं ताकना पड़ता। अपनी गलतियों को ढांककर वे दूसरों पर आरोप लगा रहे हैं। आखिर वह देश का सबसे बड़ा राज्य है। और वे उस राज्य के मुखिया हैं।
एक तरफ राज ठाकरे हिंदी चैनलों पर अपना गुस्सा उतार रहे हैं, दूसरी तरफ वे अपनों से सहानुभूति भ प्राप्त करना चाहते हैं। उनकी पहचान एक आक्रामक नेता की है। एक समय था, जब यही स्थिति शिवसेना के सुप्रीमो बाल ठाकरे की थी। उनकी सिंह गर्जना आज राज ठाकरे के माध्यम से गूंज रही है। मुम्बई में ऐसे बहुत से लोग हैं, जो उन्हें हाथो-हाथ लेना चाहते हैं। पिछले दिनों उन्होंने जिस तरह से कानून की धज्जियां उड़ाते हुए जिस तरह से रैली निकाली, तो ऐसा लगा जैसे उन्होंने सविनय अवज्ञा कानून को भंग किया है। इस रैली से महाराष्ट्र सरकार की नींद ही उड़ गई। देश इस समय जिन हालात से होकर गुजर रहा है, उसे देखते हुए युवाओं का एक वर्ग ऐसा भी है, जो यह सोच रहा है कि यदि देश में 5 राज ठाकरे हो जाएं, तो पाकिस्तान कभी हमारी तरफ आंख उठाकर नहीं देख पाएगा। जब चारों तरफ अराजकता ओर भ्रष्टाचार का माहौल है, तब राज ठाकरे प्रासंगिक हो जाते हैं। एक बात यही कचोटती है कि राज ठाकरे के सलाहकार उन्हें दूरदर्शिता सिखाएं। ताकि कब, कहाँ, क्या बोलना है, ये वे जान सकें। राज ठाकरे यदि समय को पहचान कर बोलते, तो सार्थक होता। यदि बिहारियों ने मुम्बई में डेरा जमाया है, तो कहीं न कहीं इसे मुम्बईवासियों की काहिली ही कहा जाएगा। न जाने कितने काम ऐसे हैं, जो मुम्बई के लोग नहीं करना चाहते, उसे बिहारी कर दिखाते हैं। इस तरह से वे बिहारी उनके सहायक ही हुए। यदि आज बिहारी जो काम कर रहे हैं, उसे मुम्बईवासी करने को तैयार हो जाएं, तो फिर बिहारियों की आवश्यकता ही क्या? ऐसा नहीं हो पाया, इसलिए बिहारियों की मांग बढ़ती गई, लोग आते गए, कारवां बनता गया। आज वे भले ही आंख की किरकिरी बन गए हों, पर जब तक वे आपका काम करते रहे, तब तो अच्छे लगे। क्या यह दोहरी मानसिकता नहीं है?
आज भारतीय राजनीति की गंगा काफी मैली हो गई है। यहां आक्रामक लोगों की बेहद कमी है। कहा जाए कि मूर्ख लोग राज कर रहे हैं। आक्रामक लोग जो कहते हैं, वे कर दिखाते हैं। पर मूर्ख नेता जो बोलते हैं, वैसा करते नहीं। इस तरह से वे देश को दोनों हाथों से लूटने में लगे हैं। ऐसे स्वार्थी नेता केवल अपना घर ही भरते रहते हैं। उनके लिए तो सत्ता प्राप्त करना ही मुख्य उद्देश्य होता है। सत्ता के साथ शक्ति तो स्वमेव आ जाती है। इनकी कथनी और करनी में काफी अंतर है। दूसरी ओर राज ठाकरे जैसे लोग यदि कुछ कहते हैं, तो उनके सामने महाराष्ट्र ही होता है। वे फार द महाराष्ट्र, बाय द महाराष्ट्र को मानते हैं। राज ठाकरे की आक्रामक छवि का फायदा उठाने के लिए कुछ नेता तैयार बैठे हैं। कुछ ने तो ऐसी भी तैयारी कर रखी है कि कांधा राज ठाकरे और और बंदूक होगी उनकी। क्योंकि आज पूरे महाराष्ट्र में राज ठाकरे का सिक्का चलता है। सत्तारुढ़ दल में इतनी ताकत नहीं है कि वह आगामी विधानसभा चुनाव में अपने दम पर सरकार बना सके। अपने तेवरों को यदि राज ठाकरे कांग्रेस को चुनौती देते, तो शायद महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि इस देश का भी भविष्य बदल जाता। आज वे अपनी आक्रामकता का दुरुपयोग कर अपनी ही शक्ति को कम कर रहे हैं।
उधर यदि नीतिश कुमार यह कहते हैं कि महाराष्ट्र सरकार राज ठाकरे के खिलाफ आखिर कड़े कदम क्योंन हीं उठाती? अब यह नीतिश जी को कौन समझाए कि यदि राज ठाकरे के खिलाफ थोड़ी भी सख्ती बरती गई, तो तय है कि वे महाराष्ट्र में हीरो बन जाएंगे। एक राजनैतिक समीकरण यह भी है कि भविष्श् में कंग्रेस को ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के समर्थन की जरुरत पड़ सकती है। इससे संबंध सुधारें रहें, इससे अच्छा यही है कि संबंध बिगाड़े ही न जाएं। रही बिहार की बात, तो वहाँ सभी दल अलग-थलग पड़े रहते हैं, जब कभी किसी बिहारी की बात आती है, तो सब एक हो जाते हैं। मानों जनता की सबसे अधिक चिंता उन्हें ही है। ऐसा किसी अन्य राज्य में नहीं देखा गया। वहां के नेता अपना बिहार प्रेम दर्शाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। पर बिहारियों को ही रोजगार देने के नाम पर सबसे पीछे रह जाते हैं। इसीलिए आज बिहारी हर राज्य में मौजूद हैं। भले ही वे रिक्शा चलाएं, पर यह काम वे अपने बिहार में नहीं करेंगे।
महाराष्ट्र की राजनीति को समझने वाले कहते हैं कि वामपंथियों के बढ़ते प्रभुत्व को देखते हुए ही इंदिरा गांधी ने शिवसेना को समर्थन दिया था। बाद में शिवसेना इतनी मजबूत बन गई कि वह कांग्रेस को ही खटकने लगी। अब तो यह आरोप लगने लगे हैं कि राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को कांग्रेस ही समर्थन दे रही है, इसलिए उस पर सख्त कार्रवाई करने से डरती है। राजनीति में इस तरह के आक्षेप कोई नई बात नहीं है। राज ठाकरे की जो विशेषता है, वह है उनकी आक्रामकता। भाषण करने की कला, तीखे कटाक्ष और आक्षेप, यह विशेषता तो महाराष्ट्र के अन्य किसी भी नेता में नहीं है। उनको सुनकर बाल ठाकरे की याद आ जाती है। एक बात तो तय है कि जब राज ठाकरे बोलते हैं, तो महाराष्ट्र सुनता है और उन्हें हाथो-हाथ लेता है। दूसरी ओर अन्य नेता बुरी तरह से बौखला जाते हैं। वे सोचने लगते हैं कि उनमें राज ठाकरे जैसे बोलने की कला क्यों नहीं आई? राज ठाकरे को अभी बहुत लम्बी लड़ाई लड़नी है, इसलिए यदि वे मीडिया को साधकर रखें, तो यही मीडिया उन्हें काम भी आ सकता है। अन्यथा संभव है, यही मीडिया अपनी नकारात्मकता के कारण उन्हें धूल चाटने के लिए विवश कर दे।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 1 सितंबर 2012

डॉन को उम्रकैद

डॉ. महेश परिमल

अंडरवर्ल्ड डॉन से नेता बने अरुण गवली को मुंबई की अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई है। उसे शिवसेना नेता की हत्या के केस में दोषी करार दिया जा चुका था। अदालत ने 28 अगस्त को इस केस पर फैसला सुरक्षित रख लिया था। शुक्रवार को कोर्ट  ने गवली के साथ-साथ 9 और लोगों को भी उम्रकैद की सजा सुनाई। गवली पर 7 लाख रुप का जुर्माना भी लगाया गया है। मुंबई की मोका अदालत में 28 अगस्त को इस केस पर बहस पूरी कर ली गई थी. बहस के दौरान गवली की ओर से दी गई सफाई में कहा गया है कि 2007 के बीएमसी के चुनावों में शिवसेना को समर्थन करने के लिए उनकी पार्टी अखिल भारतीय सेना के चार पार्षदों को काफी पैसे मिले थे। ऐसे में वह 30 लाख रुपये के लिए जामसांडेकर की हत्या क्यों करेगा? लेकिन उसकी यह दलील नहीं मानी गई और 24 अगस्त को उसे दोषी करार दिया गया था। शिवसेना नेता और निगम पार्षद कमलाकर जामसांडेकर की हत्या मार्च 2007 में हुई थी। गवली पर इससे पहले भी हत्या, हत्या की कोशिश, जबरन उगाही और अपहरण के कई आपराधिक मुकदमे चले, लेकिन पुलिस उसे अदालत के सामने दोषी ठहराने में हर बार नाकाम रही है। यह पहला मौका है जब अरुण गवली किसी केस में सजा काटेगा।

एक समय के माफिया डॉन अरुण गवली की किस्मत का फैसला 31 अगस्त को हो गया। अपराध की दुनिया में जिनका सिक्का चलता था, जिनकी मर्जी के बिना मुम्बई का पत्ता तक न हिलता हो, उसी अरुण गवली को उम्रकैद की सजा दी गई है। मार्च 2008 में उसके इशारे पर शिवसेना के नगर सेवक कमलाकर जामसांडेकर की हत्या कर दी गई थी। इस हत्या के लिए अरुण गवली ने 30 लाख की सुपारी ली थी। मुम्बई पुलिस ने अरुण गवली को फांसी की सजा देने का अनुरोध अदालत से किया है। क्योंकि जब जामसांडेकर की हत्या हुई थी, तब गवली विधायक थे। अभी वह जेल में है। मुम्बई के डॉन को सजाहो गई, ,ऐसा पहली बार हुआ।

एक समय ऐसा भी था, जब मुम्बई में पुलिस नहीं बल्कि माफिया का राज चलता था। वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहिम, अमर नाइक, अश्विन नाइक, बड़ा राजन, छोटा राजन, छोटा शकील, अबू सलेम, आदि गेंगस्टार्स ने मुम्बई के इलाके बांट रखे थे। इन्हें राज्य के नेताओं का भी संरक्षण प्राप्त था। मुम्बई के बिल्डर अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के लिए इनकी सहायता लेते थे। बदले में उन्हें बिल्डर लॉबी की तरफ से मोटी राशि मिलती थी। 1060-70 के दशक में ये माफिया मूल रूप से तस्करी ही करते थे। विदेशों से सोना और कपड़े लाने पर प्रतिबंध होने से ये उन चीजों को तस्करी के माध्यम से भारत लाते थे। इस धंधे में करीम लाला, वरदराजन और हाजी मस्तान का एकाधिकार था। कई कस्टम अधिकारियों को इनकी तरफ से वेतन मिलता था। दाऊद इब्राहिम कासकर के पिता मुम्बई पुलिस में हवलदार थे। दाऊद ने अपने भाई शब्बीर के साथ तस्करी का काम शुरू किया। तब ये करीम लाला की पठान गेंग के दुश्मन बन गए। 1981 में करीम लाला ने दाऊद के भाई शब्बीर की हत्या कर दी। तब दाऊद गेंग और पठान गेंग की बीच जंग छिड़ गई। दोनों गुटों के बीच कई बार तीखी झड़प हुई, जिसमें दोनों तरफ कई साथी मारे गए। इसी बीच 1986 में दाऊद के साथियों ने करीम लाला के भाई रहीम खान को मार डाला। इसके बाद करीम टूट गया। उसने दाऊद से दोस्ती कर ली और अपराध की दुनिया को अलविदा कह दिया। सन 1960 में विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन पर एक पोर्टर के तौर पर जिंदगी शुरु करने वाला वरदराजन मणिस्वामी मुदलियार देखते-देखते मुंबई अंडरवल्र्ड का एक बड़ा नाम हो गया। कांट्रेक्ट किलिंग, स्मगलिंग और डाकयार्ड से माल साफ करना वरदराजन का मुख्य धंधा था। मुंबई में मटका के धंधे में भी मुदलियार ने एक लंबा-चौड़ा नेटवर्क खड़ा कर दिया था. 1987 में जब मणि रत्नम ने वरदराजन के जीवन पर आधारित फिल्म नायकन बनाई तो वह कमल हासन के अभिनय के चलते एक अविस्मरणीय फिल्म बन गई. बाद में फिरोज खान ने हिन्दी में दयावान के नाम से उसका रिमेक बनाया। 1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से प्रभावित होकर हाजी मस्तान ने अपराध की दुनिया छोड़ दी। इसके बाद उसने राजनीति में प्रवेश किया। 1980 में वरदराजन ने भी अपराध की दुनिया छोड़कर चेन्नई चला गया।

एक-एक करके जब पुराने डॉन चले गए, तब दाऊद का पूरी मुम्बई में एकछत्र राज हो गया। 1993 में जब मायानीगरी में बम विस्फोट हुए, तब अंडरवर्ल्‍ड के सारे समीकरण बदल गए। विस्फोट के पहले ही दाऊद पहले दुबई फिर बाद में करांची चला गया। हाऊद और छोटा राजन अलग पड़ गए। छोटा राजन ने मलेशिया में अपना कारोबार शुरू कर दिया। इससे मुम्बई में अरुण गवली और अमर नाइक को खुला मैदान मिल गया।  अब दोनों दलों के बीच गेंगवार होने लगे। 18 अप्रैल 1994 को अरुण गवली के शार्पशूटर रवींद्र सावंत ने अमर नाइक के भाई अश्विन नाइक पर अदालत परिसर में गोली चलाई। गोली अश्विन की खोपड़ी को पार कर गई, फिर भी वह बच गया। इसके बाद 10 अगस्त 1996 को मुम्बई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालसकर ने अमर नाइक को एनकाउंटर में मार डाला। अश्विन नाइक की गिरफ्तारी 1999 में हुई। अश्विन जब तिहाड़ जेल में था, तब उसकी पत्नी नीता नाइक की हत्या हो गई। इस हत्या का आरोप अश्विन पर ही लगाया गया। क्योंकि उसकी पत्नी नीता बेवफा है, ऐसा शक अश्विन उस पर करता था। नीता नाइक ने शिवसेना की टिकट से चुनाव भी लड़ा था और नगरसेविका बनी थी। उधर अश्विन दस वर्ष तक जेल में रहकर 2009 में बाहर आया। अब वह अपने पुराने दिनों को याद कर मुम्बई में ही कहीं रह रहा है।

अश्विन का राज खत्म होने से सेंट्रल मुम्बई की दगली चाल में अरुण गवली का राज चलने लगा। यहां पुलिस भी उसकी इजाजत के बिना प्रवेश नहीं कर पाती थी। दगड़ी चाल की स्थिति एक किले की तरह थी। वहां 15 फीट का एक दरवाजा था। अरुण गवली की गेंग में 800 लोग थे। इन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाता था। सभी को चार हजार रुपए महीने मिलते थे। बिल्डर और व्यापारी अपने कारोबार को बढ़ाने और प्रतिद्वंद्वी को खत्म करने के लिए लोग गवली की मदद लेते, एवज में गवली इनसे मोटी राशि प्राप्त करता। इसके अलावा गवली के साथी लोगों से हफ्ता भी लेते थे। इस तरह से गवली का साम्राज्य बढ़ता गया। लेकिन उसे हमेशा पुलिस का खौफ रहता। एक तरफ माफिया और दूसरी तरफ पुलिस के दबाव के चलते अरुण गवली को लगा कि इससे तो अच्छा है कि राजनीति में ही जोर आजमाया जाए। इसके बाद 2004 में उसने अखिल भारतीय सेना के नाम से एक दल गठित किया। विधानसभा चुनाव में उसने अपने कई प्रतिनिधि खड़े किए। अन्य की तो जानकारी नहीं है, पर वह स्वयं चिंचपोकली से जीत कर विधायक बन गया। 2008 में उसने 30 लाख की सुपारी लेकर शिवसेना के कापरेरेट कमलाकर जामसांडेकर की हत्या करवा दी। जाँच में उसे आरोपी माना गया, आरोप सिद्ध होने पर उसे जेल हो गई। इस दौरान उसकी पूरी गेंग खत्म हो गई। दया नायक, विजय सालसकर, और प्रदीप शिंदे जैसे एनकाउंटर विशेषज्ञों ने अधिकांश गेंग को खत्म ही कर दिया। दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन की लड़ाई अभी भी विदेशी भूमि पर ही चल रही है। इधर कहा यह जा सकता है कि मुम्बई माफियाओं से मुक्त हो गई है।

अरुण गवली को जो भी सजा हो, पर इससे यह सिद्ध हो जाता है कि कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं। अपराध के इन सरगनाओं का हश्र यही होता है। एक समय होता है, जब इनका समय होता है। बाद में वह समय चला जाता है, तो फिर किसी और का समय आ जाता है। इस समय अपने पुराने समय को वापस नहीं लाया जा सकता। इनकी भी कहानी तो खत्म होनी ही है, सबकी तरह। पर समय इन्हें भूल जाता है। कुछ फिल्मकार इन पर फिल्म बना लेते हैं, तो उनका नाम चल निकलता है। हाजी मस्तान पर दीवार बनाई गई, जो अभिताभ बच्चन के सशक्त अभिनय के कारण चल निकली। कमल हासन ने वरदराजन की भूमिका को नायकन में जान डाल दी। पर इसी फिल्म का रिमेक जब फिरोज खान ने दयावान के नाम से बनाई, तो वह बुरी तरह से विफल रही। कुछ भी हो अपराध की दुनिया के इन बेताज बादशाहों ने फिल्मी दुनिया को मसाला तो दे ही दिया, जो लम्बे समय तक काम आता रहेगा। गवली को होने वाली सजा से यह साफ हो जाएगा कि एक दिन कानून के हाथ में सबको आना ही है।

डॉ. महेश परिमल

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