डॉ. महेश परिमल
आपने कभी सुना है कि आज जापान बंद, आज अमेरिका बंद या फिर आज चीन बंद। लेकिन वर्ष में दो तीन बार तो आप यह सुन ही लेते हैं कि आज भारत बंद। आखिर इस बंद से लाभ किसको होता है। जाहिर है राजनीतिज्ञों को और इसका खामियाजा भुगतता है आम आदमी। इस बंद से आम आदमी को कभी लाभ नहीं हुआ। हमारे देश में बंद को अपने सशस्त्र शस्त्र की तरह राजनीति में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इससे वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, बल्कि अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए सामने वाले पर दबाव भी बनाते हैं। इसलिए अब धीरे-धीरे बंद का यह शस्त्र कमजोर होता जा रहा है। लेकिन हमारे देश के नेता इसका फायदा उठाना जानते हैं। समय समय पर वे ऐसा करके अपनी ताकत और एकजुटता का प्रदर्शन करते रहते हैं।
हमारे देश में प्रजांतत्र है, जो लोगों को यह आजादी देता है कि वे अपनी बात को सबके सामने लाने का अधिकार रखते हैं। पर अभी तक कितने बंद ऐसे हुए हैं, जिसमें लोगों ने स्वयं आगे बढ़कर हिस्सा लिया हो। हमारे देश में बंद का आयोजन राजनैतिक पार्टियों द्वारा किया जाता है। जो एक तरह से थोपा हुआ ही होता है। गुरुवार को जब देश बंद होने का उत्सव मना रहा था, तक कई लोगों को यह पता ही नहीं था कि यह बंद क्यों मनाया जा रहा है? लोग यह बताने लगे हैं कि इस बंद से अभी तक कितना नुकसान हुआ है। आखिर इस नुकसान की भरपाई आम आदमी से ही होगी। बंद से होने वाले नुकसान की चिंता सबको है, पर लोगों को कितना नुकसान होता है, यह जानने के लिए कोई कोशिश नहीं करता। जो रोज कमाते हैं, उनके लिए बंद एक अभिशाप ही है। उस दिन बच्चे भूखे सोते हैं। अभी तक कितने बंद हुए,उसके नुकसान के आंकड़े सब को पता है, पर उस बंद से कितने मासूम भूखे सोए, इसके आंकड़े किसी के पास नहीं हैं। दवाई की दुकान बंद होने से कितने मरीजों को समय पर दवा नहीं मिली और वे काल-कवलित हो गए, आखिर इसका जिम्मेदार कौन होगा? ट्रेनें रोक दी गई, इससे न जाने कितने युवा साक्षात्कार के लिए नहीं पहुंच पाए। आखिर इसकी जिम्मेदारी भी किसी को लेनी ही चाहिए! दवा के लिए दर-दर भटकने वालों की वेदना को किसने समझने की कोशिश की है?
विरोध जताने के लिए बंद एक अमोध शस्त्र है। इसमें कोई संदेह नहीं है। शर्त केवल इतनी है कि बंद में केवल राजनैतिक दल ही नहीं, बल्कि सभी लोगों को शामिल होना चाहिए। बंद का ऐलान भाजपा ने किया था, इसलिए भाजपाशासित राज्यों में इसका असर दिखाई दिया। मध्यप्रदेश बंद से अलग रहा। वहां अब 24 को बंद का आयोजन किया गया है। अब बंद के लिए लोग सड़क पर आते हैं। इस दौरान उनके हाथ में पत्थर होना आवश्यक है। शायद ये लोग पहले हाथ जोड़कर यह विनती करते होंगे, भाई साब अपनी दुकान बंद कर लो। यदि भाई साब ने ऐसा नहीं किया, तो उन्हीं हाथों में न जाने कहाँ से पत्थर आ जाते हैं। इस बार भारत बंद को शिवसेना ने अपना समर्थन नहीं दिया। क्योंकि महराष्ट्र में इस समय गणोशोत्सव चल रहा है। इस तरह से शिवसेना ने यह बता दिया है कि यदि वह न चाहे, तो बंद हो ही नहीं सकता। कई दलों ने इस बंद में कभी हाँ और कभी ना की स्थिति में रहे। लोगों को आता देख दुकानें बंद हो गई। उनके जाते ही दुकानें खुल गई। इस तरह से बंद और खुले का खेल चलता रहा। कई स्थानों पर कांग्रेस को अपना समर्थन देने वाली समाजवादी पार्टी ने बंद में खुलकर भाग लिया। तमिलनाड़ु में डीएमके यूपीए सरकार के साथ है, इसके बाद भी उसने बंद में खुलकर भाग लिया। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद डीएमके गठबंधन सरकार से नाराज चल रही है। अब जब ममता की छाँव केंद्र सरकार पर नहीं रही, तो सरकार फिर डीएमके को मनाना चाहेगी। इसे करुणिानिधि अच्छी तरह से समझ गए हैं। बंद का साथ देकर डीएमके ने यह जता दिया है कि हमें अब तक बहुत ही अनदेखा किया गया है, अब हमें नहीं साधा गया, तो हम बिफर जाएंगे। इस तरह से हर दल अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए बंद का सहारा लेता है, आम आदमी को निशाना बनाता है। बंद से आम आदमी की पीड़ा को समझने वाला कोई नहीं है।
अभी हम सबने देखा कि देश में हो रहे तमाम घोटालों के कारण इस बार संसद का सत्र पूरी तरह से ठप्प रहा। पहले टू जी स्पेक्ट्रम, फिर राष्ट्रमंडल खेल, कोयला घोटाला, डीजल के भाव में वृधि, एफडीआई को मंजूरी, रसोई गैस की राशनिंग, ममता का सरकार से समर्थन वापस लेना आदि के बीच अब कोयला घोटाले की कोई बात ही नहीं करता। एक घोटाले के बाद होने वाला दूसरा घोटाला पहले घोटाले की याद भुला देता है। ऐसे कई घोटाले हो गए, जनता सब भूलती चली गई। तभी तो हमारे गृहमंत्री भी यही कहते हैं कि जनता कोयला घोटाले को भी भूल जाएगी। इससे यह न समझा जाए कि लोगों की याददाश्त कमजोर है। वास्तव में लोगों को अपनी ही इतनी अधिक चिंता है कि उस चिंता के आगे कोई चिंता टिकती ही नहीं। लोगोंे के पास इतना समय ही नहीं है कि वह घोटाले को याद रखे। राजनेताओं को क्या है, उन्हें तो अपनी खिचड़ी पकानी है। किसी न किसी तरह से। वे तो यह देखते हैं कि इस बंद से हमारे वोट कितने बढ़ेंगे? जब तक लोकसभा चुनाव न हो जाएं, तब तक ऐसे नाटक चलते ही रहेंगे। यह कहने की हिम्मत किसी दल में नहीं है जो यह कह सके कि हम बंद का ऐलान करके किसी को परेशान नहीं करेंगे। आखिर कब तक चलता रहेगा यह बंद का नाटक। एक आम आदमी को नजर से इस बंद को देखो, तो साफ हो जाएगा कि बंद ने रोजी-रोटी छीन ली। बच्च बिना दवा के मर गया। रात में गरीबों के बच्चे भूखे सोए। उधर बंद के सफल होने पर देर रात तक विभिन्न दलों के कार्यकत्र्ता खुशियां मनाते रहे। जहां बहुत सारा भोजना बेकार गया। क्या अब भी आप यह सोचते हैं कि बंद का आयोजन होना चाहिए?
डॉ. महेश परिमल
आपने कभी सुना है कि आज जापान बंद, आज अमेरिका बंद या फिर आज चीन बंद। लेकिन वर्ष में दो तीन बार तो आप यह सुन ही लेते हैं कि आज भारत बंद। आखिर इस बंद से लाभ किसको होता है। जाहिर है राजनीतिज्ञों को और इसका खामियाजा भुगतता है आम आदमी। इस बंद से आम आदमी को कभी लाभ नहीं हुआ। हमारे देश में बंद को अपने सशस्त्र शस्त्र की तरह राजनीति में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इससे वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं, बल्कि अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए सामने वाले पर दबाव भी बनाते हैं। इसलिए अब धीरे-धीरे बंद का यह शस्त्र कमजोर होता जा रहा है। लेकिन हमारे देश के नेता इसका फायदा उठाना जानते हैं। समय समय पर वे ऐसा करके अपनी ताकत और एकजुटता का प्रदर्शन करते रहते हैं।
हमारे देश में प्रजांतत्र है, जो लोगों को यह आजादी देता है कि वे अपनी बात को सबके सामने लाने का अधिकार रखते हैं। पर अभी तक कितने बंद ऐसे हुए हैं, जिसमें लोगों ने स्वयं आगे बढ़कर हिस्सा लिया हो। हमारे देश में बंद का आयोजन राजनैतिक पार्टियों द्वारा किया जाता है। जो एक तरह से थोपा हुआ ही होता है। गुरुवार को जब देश बंद होने का उत्सव मना रहा था, तक कई लोगों को यह पता ही नहीं था कि यह बंद क्यों मनाया जा रहा है? लोग यह बताने लगे हैं कि इस बंद से अभी तक कितना नुकसान हुआ है। आखिर इस नुकसान की भरपाई आम आदमी से ही होगी। बंद से होने वाले नुकसान की चिंता सबको है, पर लोगों को कितना नुकसान होता है, यह जानने के लिए कोई कोशिश नहीं करता। जो रोज कमाते हैं, उनके लिए बंद एक अभिशाप ही है। उस दिन बच्चे भूखे सोते हैं। अभी तक कितने बंद हुए,उसके नुकसान के आंकड़े सब को पता है, पर उस बंद से कितने मासूम भूखे सोए, इसके आंकड़े किसी के पास नहीं हैं। दवाई की दुकान बंद होने से कितने मरीजों को समय पर दवा नहीं मिली और वे काल-कवलित हो गए, आखिर इसका जिम्मेदार कौन होगा? ट्रेनें रोक दी गई, इससे न जाने कितने युवा साक्षात्कार के लिए नहीं पहुंच पाए। आखिर इसकी जिम्मेदारी भी किसी को लेनी ही चाहिए! दवा के लिए दर-दर भटकने वालों की वेदना को किसने समझने की कोशिश की है?
विरोध जताने के लिए बंद एक अमोध शस्त्र है। इसमें कोई संदेह नहीं है। शर्त केवल इतनी है कि बंद में केवल राजनैतिक दल ही नहीं, बल्कि सभी लोगों को शामिल होना चाहिए। बंद का ऐलान भाजपा ने किया था, इसलिए भाजपाशासित राज्यों में इसका असर दिखाई दिया। मध्यप्रदेश बंद से अलग रहा। वहां अब 24 को बंद का आयोजन किया गया है। अब बंद के लिए लोग सड़क पर आते हैं। इस दौरान उनके हाथ में पत्थर होना आवश्यक है। शायद ये लोग पहले हाथ जोड़कर यह विनती करते होंगे, भाई साब अपनी दुकान बंद कर लो। यदि भाई साब ने ऐसा नहीं किया, तो उन्हीं हाथों में न जाने कहाँ से पत्थर आ जाते हैं। इस बार भारत बंद को शिवसेना ने अपना समर्थन नहीं दिया। क्योंकि महराष्ट्र में इस समय गणोशोत्सव चल रहा है। इस तरह से शिवसेना ने यह बता दिया है कि यदि वह न चाहे, तो बंद हो ही नहीं सकता। कई दलों ने इस बंद में कभी हाँ और कभी ना की स्थिति में रहे। लोगों को आता देख दुकानें बंद हो गई। उनके जाते ही दुकानें खुल गई। इस तरह से बंद और खुले का खेल चलता रहा। कई स्थानों पर कांग्रेस को अपना समर्थन देने वाली समाजवादी पार्टी ने बंद में खुलकर भाग लिया। तमिलनाड़ु में डीएमके यूपीए सरकार के साथ है, इसके बाद भी उसने बंद में खुलकर भाग लिया। 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद डीएमके गठबंधन सरकार से नाराज चल रही है। अब जब ममता की छाँव केंद्र सरकार पर नहीं रही, तो सरकार फिर डीएमके को मनाना चाहेगी। इसे करुणिानिधि अच्छी तरह से समझ गए हैं। बंद का साथ देकर डीएमके ने यह जता दिया है कि हमें अब तक बहुत ही अनदेखा किया गया है, अब हमें नहीं साधा गया, तो हम बिफर जाएंगे। इस तरह से हर दल अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए बंद का सहारा लेता है, आम आदमी को निशाना बनाता है। बंद से आम आदमी की पीड़ा को समझने वाला कोई नहीं है।
अभी हम सबने देखा कि देश में हो रहे तमाम घोटालों के कारण इस बार संसद का सत्र पूरी तरह से ठप्प रहा। पहले टू जी स्पेक्ट्रम, फिर राष्ट्रमंडल खेल, कोयला घोटाला, डीजल के भाव में वृधि, एफडीआई को मंजूरी, रसोई गैस की राशनिंग, ममता का सरकार से समर्थन वापस लेना आदि के बीच अब कोयला घोटाले की कोई बात ही नहीं करता। एक घोटाले के बाद होने वाला दूसरा घोटाला पहले घोटाले की याद भुला देता है। ऐसे कई घोटाले हो गए, जनता सब भूलती चली गई। तभी तो हमारे गृहमंत्री भी यही कहते हैं कि जनता कोयला घोटाले को भी भूल जाएगी। इससे यह न समझा जाए कि लोगों की याददाश्त कमजोर है। वास्तव में लोगों को अपनी ही इतनी अधिक चिंता है कि उस चिंता के आगे कोई चिंता टिकती ही नहीं। लोगोंे के पास इतना समय ही नहीं है कि वह घोटाले को याद रखे। राजनेताओं को क्या है, उन्हें तो अपनी खिचड़ी पकानी है। किसी न किसी तरह से। वे तो यह देखते हैं कि इस बंद से हमारे वोट कितने बढ़ेंगे? जब तक लोकसभा चुनाव न हो जाएं, तब तक ऐसे नाटक चलते ही रहेंगे। यह कहने की हिम्मत किसी दल में नहीं है जो यह कह सके कि हम बंद का ऐलान करके किसी को परेशान नहीं करेंगे। आखिर कब तक चलता रहेगा यह बंद का नाटक। एक आम आदमी को नजर से इस बंद को देखो, तो साफ हो जाएगा कि बंद ने रोजी-रोटी छीन ली। बच्च बिना दवा के मर गया। रात में गरीबों के बच्चे भूखे सोए। उधर बंद के सफल होने पर देर रात तक विभिन्न दलों के कार्यकत्र्ता खुशियां मनाते रहे। जहां बहुत सारा भोजना बेकार गया। क्या अब भी आप यह सोचते हैं कि बंद का आयोजन होना चाहिए?
डॉ. महेश परिमल